Bilaspur High Court: हाई कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा:न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए, त्वरित न्याय ना मिलना जनता के लिए खतरा

Bilaspur High Court: बिलासपुर हाई कोर्ट के सिंगल बेंच ने सिविल प्रकरण में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। जस्टिस राकेश मोहन पांडेय के सिंगल बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए क्योंकि त्वरित न्याय मानव अधिकार का हिस्सा है। त्वरित न्याय न मिलना जनता के लिए खतरा है।

Update: 2025-05-11 06:48 GMT

Bilaspur High Court: बिलासपुर हाई कोर्ट के सिंगल बेंच ने सिविल प्रकरण में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। जस्टिस राकेश मोहन पांडेय के सिंगल बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए क्योंकि त्वरित न्याय मानव अधिकार का हिस्सा है। त्वरित न्याय न मिलना जनता के लिए खतरा है।

सिविल प्रकरण में निचली अदालत के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। जस्टिस राकेश मोहन पांडेय के सिंगल बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि समय पर न्याय मिलने से विश्वास बना रहता है और स्थायी स्थिरता स्थापित होती है। त्वरित न्याय तक पहुंच को मानव अधिकार माना जाता है जो लोकतंत्र की आधारभूत अवधारणा में गहराई से निहित है। ऐसा अधिकार न केवल कानून द्वारा निर्मित है बल्कि एक प्राकृतिक अधिकार भी है। इस महत्वपूर्ण टिप्पणी के साथ कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को सही ठहराते हुए बरकरार रखा है।

नसीमा अली सहित दो अन्य ने ग्यारहवें जिला न्यायाधीश, रायपुर द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी है। याचिकाकर्ता ने जिला कोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए स्थगन की मांग की है। याचिका के अनुसार रानी दुर्गावती वार्ड क्रमांक 45, खनिज नगर, तेलीबांधा, तहसील और जिला- रायपुर (छ.ग.) में स्थित प्लॉट क्रमांक 46, 1500 वर्ग फीट के मुकदमे वाले घर को एक पंजीकृत बिक्री-विलेख के माध्यम से 03.मार्च.1994 को खरीदा गया था। वर्ष 2005 में, सकीला परिवन की शादी सलमा खातून व रजब अली के बेटे नौशाद अली से हुई थी। नौशाद अली ने बजाज फिनकॉर्प से 5 लाख रुपये का ऋण लिया और एक घर बनाया। जहां वह रह रहा है। नौशाद अली की मृत्यु के बाद, रजब अली ने अपनी पत्नी सलमा खातून के पक्ष में विलेख निष्पादित किया। इसे लेकर ट्रायल कोर्ट में मामला दायर किया था।

ट्रायल कोर्ट ने 09 अप्रैल 2025 के आदेश के तहत माना कि याचिकाकर्ता के साक्ष्य के लिए मामला 24.दिसंबर.2021 तय किया गया था और आज तक, यह पूरा नहीं हुआ है। याचिकाकर्ता ने विभिन्न तिथियों पर स्थगन की मांग की थी। सुनवाई के बाद ट्रायल कोर्ट ने स्थगन आवेदन को खारिज करते हुए उसके द्वारा पेश किए जाने वाले साक्ष्य की भी सुनवाई नहीं कीऔर अधिकार से वंचित कर दिया।

FTC में पेशी के चलते नहीं हो पाई थी उपस्थित

याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में बताया है कि 09 अप्रैल 2025 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, एफटीसी, रायपुर कोर्ट के समक्ष बी.एन.एस.एस., 2023 की धारा 483 के तहत दायर जमानत आवेदन में एक आपत्तिकर्ता के रूप में उपस्थित हुई, इसलिए वह जिरह के लिए ट्रायल कोर्ट के समक्ष उपस्थित नहीं हो सकी और अन्य गवाह भी उपस्थित नहीं थे। सुनवाई के दौरान गैर मौजूदगी को कारण बताते हुए कोर्ट ने उसे अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया और उसके आवेदन को खारिज कर दिया।

क्या है CPC का आदेश 17 नियम 1

1. न्यायालय समय दे सकता है और सुनवाई स्थगित कर सकता है -

यदि पर्याप्त कारण दर्शाया गया हो तो न्यायालय वाद के किसी भी चरण में पक्षकारों को या उनमें से किसी को समय दे सकता है, तथा समय-समय पर लिखित रूप में अभिलिखित किए जाने वाले कारणों से वाद की सुनवाई स्थगित कर सकता है:

वादों की सुनवाई के दौरान किसी पक्षकार को ऐसा स्थगन तीन बार से अधिक नहीं दिया जाएगा।

प्रावधान को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रावधान न्यायालय को पक्षकारों को समय देने और सुनवाई स्थगित करने का अधिकार देता है, बशर्ते पर्याप्त कारण बताए जाएं। यह नियम किसी भी चरण में स्थगन की अनुमति देता है और न्यायालय को स्थगन के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करने की आवश्यकता होती है। हालांकि, यह किसी पक्ष को मुकदमों की सुनवाई के दौरान अधिकतम तीन स्थगन तक सीमित करता है।

ये है महत्वपूर्ण कारण

(i) यदि पर्याप्त कारण बताए जाएं तो न्यायालय पक्षकारों को समय दे सकता है।

(ii) स्थगन देने के कारण लिखित रूप में दर्ज किए जाने चाहिए।

(iii) वादों की सुनवाई के दौरान किसी पक्ष को अधिकतम तीन स्थगनों तक सीमित किया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सिंगल बेंच ने दिया हवाला

जस्टिस राकेश मोहन पांडेय ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण आदेश में की गई टिप्पणी का हवाला दिया है। जस्टिस पांडेय ने अपने फैसले में लिखा है कि यह कानून का एक सुस्थापित सिद्धांत है कि त्वरित सुनवाई वादी का कानूनी अधिकार है। न्याय में देरी, जैसा कि प्रसिद्ध रूप से कहा जाता है, न्याय से वंचित करने के समान है। यदि न्याय प्रशासन की प्रक्रिया में इतना समय लगता है।

हाई कोर्ट ने इन टिप्पणियों के साथ याचिका किया खारिज

हाई काेर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, यह सुरक्षित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि याचिकाकर्ता अपने सिविल मुकदमे को आगे बढ़ाने में सतर्क नहीं थे। याचिकाकर्ता को चार साल की अवधि में 10 अवसर दिए गए थे, लेकिन वे खुद को जिरह के लिए उपलब्ध कराने में विफल रहा है। इसलिए ट्रायल कोर्ट ने सीपीसी के आदेश 17 नियम 1 के तहत दायर आवेदन को सही ढंग से खारिज कर दिया और सबूत पेश करने के उनके अधिकार को बंद कर दिया। लिहाजा याचिका खारिज की जाती है।

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