Dadasaheb Bhagat : बस चाह लिया और बीड के 10वीं पास भगत बन गए इनफ़ोसिस के चपरासी से सीईओ, जानें उनके चपरासी से सीईओ बनने तक का सफर

Dadasaheb Bhagat : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें एक सच्ची मेक इन इंडिया उपलब्धि की कहानी बताया।

Update: 2025-10-18 07:13 GMT

BEED KE Dadasaheb Bhagat : जहाँ चाह है वहां राह है... अगर आप अपने मंजिल को पाने के लिए सच्चे दिल से कड़ी मेहनत करो तो तो वो मंजिल खुद ब खुद आपके पास आती है और आपको अपना चाह भरा रास्ता मिल ही जाता है. और आप वो सब पा लेते हैं जो आपका सपना है और आपने उसके लिए अपना हर एक पल लगाया है. 


ऐसा ही एक वाकया यहाँ हुआ है महाराष्ट्र के बीड जिले में जन्मे दादासाहेब भगत का, जिनका जीवन संघर्षभरा रहा। उन्होंने एक साधारण शुरुआत से लेकर असाधारण सफलता तक का सफ़र तय किया, जिससे साबित हुआ कि दृढ़ संकल्प किसी भी बाधा को पार कर सकता है।​ सिर्फ 10वीं पास इस शख्स ने डिज़ाइन टेम्प्लेट बना डाला और चपरासी से कंपनी के सीईओ तक का सफर तय किया।


आईआईटी, आईआईएम में पढ़ाई को लेकर आज बड़ा कॉम्पिटीशन है। बच्चे इसके लिए कड़ी मेहनत करते हैं। सोच है कि किसी कंपनी का सीईओ बनने के लिए ये डिग्रियां जरूरी हैं। हालांकि समाज के इस मिथ को दादासाहेब भगत ने झुठलाया है। इंफोसिस में एक ऑफिस बॉय की नौकरी करने वाले ने वह कर दिखाया है, जो हर किसी के लिए प्रेरणा है। महज 10वीं पास इस शख्स ने डिज़ाइन टेम्प्लेट बना डाला और चपरासी से कंपनी के सीईओ तक का सफर तय किया।





 कौन है दादासाहेब भगत


यह हैं महाराष्ट्र के दादासाहेब भगत। दादासाहेब ने भारत के उद्यमी समुदाय और सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बन गए हैं। आज जो लोकप्रिय है वह केवल उनका व्यवसाय नहीं है, बल्कि उनकी दृढ़ता है। वह दृढ़ता, जो यह याद दिलाती है कि रचनात्मकता हमेशा आधुनिक संरचनाओं में नहीं पनपती। अक्सर, यह ढलान पर बने किसी खलिहान के पास पनपती है।


सिर्फ 10वीं तक पढ़े

महाराष्ट्र के बीड जिले में जन्मे दादासाहेब भगत का जीवन संघर्षभरा रहा। वह एक ऐसे किसान परिवार में जन्में जिनके पिता खेतिहर मजदूर थे। इलाके में सूखा इस परिवार के लिए दो वक्त की भरपेट रोटी तक नहीं दे पाता था। दादासाहेब का पालन-पोषण ऐसे इलाके में हुआ जहां खेती करना चुनौतीपूर्ण था। परिवार के लिए शिक्षा प्राथमिकता नहीं थी। दादासाहेब ने किसी तरह दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की। किसी फैक्ट्री में नौकरी मिल जाए, इसलिए आईटीआई किया। हालांकि, नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।

नौकरी की तलाश में पुणे आए और ऐसे इंफोसिस में बने चपरासी

दादासाहेब छोटे से शहर बीड से निकलकर नौकरी की तलाश में पुणे आ गए। यहां उन्होंने कम वेतन वाली नौकरियां कीं। उनका गुज़ारा मुश्किल से चल पाता था। उन्होंने 4000 रुपये महीने की नौकरी से शुरुआत की। कई नौकरियां बदलने के बाद उन्हें इंफोसिस में ऑफिस बॉय की नौकरी की। उनका वेतन 9000 रुपये महीने था। हालांकि जिंदगी का यह कदम उनकी तकदीर बदलने वाला था। दादासाहेब इससे अंजान थे। इस नौकरी के दौरान वह इंफोसिस के दफ्तर में सुबह जल्दी आकर सफाई करते थे। डेस्क तक चाय पहुंचाना, और इंजीनियर्स के ऑर्डर को फॉलो करना उनका काम था।

चाहा और सब कुछ सीख लिया 


इंफोसिस में चपरासी की नौकरी के दौरान दादासाहेब ने कंप्यूटर को करीब से देखा। अपने वर्कप्लेस पर काम करने वाले कर्मचारियों को देखकर, दादासाहेब समझ गए कि असली ताकत शारीरिक श्रम में नहीं, बल्कि डिजिटल विशेषज्ञता में निहित है। उन्होंने यहां इंजीनियर्स से कंप्यूटर के बार में पूछना शुरू किया। जवाब निराशाजनक थे। उनसे उनके डिप्लोमा और डिग्री के बारे में पूछा जाता। इसके बावजूद वह यहां आए दिन सिस्टम से रिलेटेड सवाल पूछते रहते। इसी दौरान ऑफिस में एक इंजीनियर ने ग्राफ़िक डिज़ाइन का ज़िक्र किया। एक ऐसा क्षेत्र जहां रचनात्मकता का महत्व डिग्रियों से ज़्यादा है। इस एक बात ने मानो एक चिंगारी जला दी।


बचपन में मंदिरों में भित्ति चित्र बनाते थे, फिर यूट्यूब से सीखी डिजाइनिंग


बचपन में, दादासाहेब अक्सर किसी स्थानीय कलाकार के साथ मिलकर मंदिरों में भित्ति चित्र बनाते थे। उन्होंने ग्राफिस डिजाइन को उससे रिलेट किया। उन्हें राह दिखाने वाले इंजीनियर ने राह दिखाई। उसने बताया कि हां बस ग्राफिक डिजाइन एक तरह की भित्ति चित्र ही है। दादासाहेब दिन में वे नौकरी करते और रात में मोबाइल पर ग्राफिक डिजाइनिंग से संबंधित वीडियो देखते। उन्होंने ऑनलाइन ट्यूटोरियल और फ्री प्रोग्राम का इस्तेमाल करके डिजाइनिंग सीखनी शुरू की। एक साल से भी कम समय में, वे एक ऑफ़िस बॉय से ग्राफिक डिज़ाइनर बन गए, और पोछा लगाने की बजाय माउस से कमाई करने लगे।

अपना रास्ता खुद बनाना


दादासाहेब आगे बढ़ते रहे। उन्होंने अपनी कंपनी बनाने की कल्पना की। एक ऐसी भारतीय वेबसाइट जहां सुलभ डिज़ाइन टेम्प्लेट हों जिनका कोई भी उपयोग कर सके। और इस तरह डिज़ाइन टेम्प्लेट की शुरुआत हुई। उन्होंने कैनवा की तरह भारतीय टेम्प्लेट तैयार किया।








 

कोरोना में सबने हार माना पर भगत ने नहीं 


जब कोरोना महामारी शुरू हुई, तो पुणे स्थित उनका कार्यालय बंद हो गया। हालांकि कई लोग हार मान लेते, लेकिन दादासाहेब ने इसे एक संदेश के रूप में देखा। वे अपने गांव लौट आए, लागत कम की और चुनौतियों को अवसरों में बदल दिया। इंटरनेट की कमी और सीमित बिजली आपूर्ति के कारण, उन्होंने और उनकी टीम ने एक पहाड़ी पर गौशाला के बगल में एक अस्थायी वर्कशॉप बनाई।

 एक सच्ची मेक इन इंडिया उपलब्धि की कहानी


उस दूर के परिवेश से, डिज़ाइन टेम्पलेट ने आकार लेना शुरू किया। एक सच्ची मेक इन इंडिया उपलब्धि की कहानी। उनके आविष्कार की खबर फैल गई, जिसने राष्ट्रीय रुचि को आकर्षित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें आत्मनिर्भरता से प्रेरित जमीनी स्तर की उद्यमिता का एक आदर्श बताया।

भारत का कैनवा


वर्तमान में, डिज़ाइन टेम्पलेट को कैनवा के भारत के विकल्प के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह स्थानीय रचनाकारों और छोटे उद्यमों को वैश्विक सेवाओं से स्वतंत्र रूप से पोस्टर, प्रस्तुतियां और डिजिटल सामग्री बनाने में सक्षम बनाता है।

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