Supreme Court News: ज्यूडिशियल सर्विस में तीन साल की प्रैक्टिस की अनिवार्यता, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर हुई पुनर्विचार याचिका

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में फैसला दिया था ज्यूडिशियल सर्विस, सिविल जज-जूनियर डिवीजन के पद पर सेवा में जाने से पहले ला ग्रेज्युएट्स को तीन साल की प्रैक्टिस अनिवार्य है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले तीन साल वकालत करने उसके बाद ज्यूडिशियल सर्विस में भर्ती की अनिवार्यता कर दी है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रैक्टिसिंग एडवोकेट ने चुनौती देते हुए पुनर्विचार याचिका दायर की है।

Update: 2025-06-16 12:16 GMT

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दिल्ली। पुनर्विचार याचिका दायर करने वाले प्रैक्टिसिंग एडवोकेट ने अपनी याचिका में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कोई तथ्यात्मक डेटा, सांख्यिकी या रिसर्च का हवाला नहीं दिया है कि नए लॉ ग्रेजुएट जज के रूप में खराब प्रदर्शन करते हैं।याचिका में यह भी कहा है कि उन नए लॉ ग्रेजुएट की संख्या या सफलता दर पर कोई विचार नहीं किया गया, जिन्होंने ज्यूडिशियल सर्विस के दौरान बेहतर प्रदर्शन किया है। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में मांग की है कि पिछले पात्रता मापदंडों के तहत तैयारी करने वाले वर्तमान ला ग्रेजुएट (2023-2025) को अनुचित रूप से बाहर करने से बचने के लिए तीन साल की प्रैक्टिस नियम की अनिवार्यता को 2027 से लागू की जाए।

याचिकाकर्ता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को तत्काल प्रभाव से लागू करने की स्थिति में संवैधानिक बाध्यता भी खड़ी होगी। जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निष्पक्षता, वैध अपेक्षा और समान अवसर के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा। याचिकाकर्ता प्रैक्टिसिंग एडवोकेट चंद्र सेन यादव ने अपनी याचिका में शेट्टी आयोग की सिफारिशों का हवाला दिया है। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में कहा है कि आयोग की सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट ने नजरअंदाज कर दिया है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में प्रैक्टिस की अनिवार्यता को हटाने की सिफारिश की थी। आयोग ने कहा था कि न्यायालय का दौरा और इंटर्नशिप कानून की डिग्री के पाठ्यक्रम का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट ने आयोग की सिफारिशों पर विचार नहीं किया। अदालत का निर्देश केवल कुछ हाईकोर्ट और राज्य सरकारों द्वारा दायर हलफनामों पर आधारित हैं, जिन्होंने न्यायिक सेवा में प्रवेश करने से पहले कानूनी प्रैक्टिस की शर्त को बहाल करने का समर्थन किया था।

याचिकाकर्ता ने दिया ये तर्क-

याचिकाकर्ता अधिवक्ता ने अपनी याचिका में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय किसी ठोस सामग्री पर आधारित नहीं है। केवल व्यक्तिपरक, वास्तविक धारणाओं पर आधारित है। याचिका के अनुसार न्यायालय के समक्ष यह स्थापित करने के लिए कोई व्यापक डेटा नहीं रखा गया कि नए लॉ ग्रेजुएट या तीन साल के प्रैक्टिस के बिना उम्मीदवार न्यायिक भूमिकाओं में खराब प्रदर्शन कर रहे है। न ही ऐसी आवश्यकता के बिना भर्ती किए गए पहले बैचों की सफलता या विफलता का कोई मूल्यांकन किया गया।

यह पेशा चुनने के अधिकार का उल्लंघन है-

याचिकाकर्ता अधिवक्ता ने अपनी याचिका में कहा है कि प्रैक्टिस की अनिवार्यता ने लॉ ग्रेजुएट के एक पूरे वर्ग को एकसाथ अयोग्य घोषित कर दिया गया है। यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) के अनुसार पेशा चुनने के अधिकार का उल्लंघन है।

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