Chhattisgarh Tarkash 2025: खटराल अफसर, मौन सिस्टम, 1000 करोड़ स्वाहा
Chhattisgarh Tarkash 2025: छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी और राजनीति पर केंद्रित पत्रकार संजय के. दीक्षित का पिछले 16 बरसों से निरंतर प्रकाशित लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ तरकश
Chhattisgarh Tarkash: तरकश
संजय के. दीक्षित
खटराल अफसर, मौन सिस्टम, 1000 करोड़ स्वाहा
स्वच्छ भारत मिशन याने 'एसबीएम' के पहले फेज में गांवों के हर घर में टॉयलेट बनवाना था। इसके बाद 2020 से 2025 के लिए शुरू सेकेंड फेज में भारत सरकार ने योजना का मोड बदलकर 'क्लीन विलेज' कर दिया। इसमें गांवों की साफ-सफाई के साथ टॉयलेट का मेंटनेंस, वेस्ट मैनेजमेंज आदि-आदि करना था। इसके लिए 250 करोड़ के हिसाब से चार साल में अभी तक पंचायत विभाग को 1000 करोड़ मिल चुका है। चूकि घर-घर टॉयलेट का टास्क बड़ा था, इसलिए केंद्र ने कुल बजट का दो परसेंट सेटअप पर खर्च करने का प्रावधान रखा। सेकेंड मोड में जागरुकता का काम ज्यादा है, इसलिए प्रशासनिक खर्च के बजट में कटौती कर एक फीसदी किया गया। भारत सरकार ने यह भी कहा था कि एसबीएम-2 का सेटअप, बायलॉज बनाकर कैबिनेट से पारित कराया जाए, इसके बाद काम प्रारंभ करें। मगर छत्तीसगढ़ में बड़ा खेल हो गया। खटराल अधिकारियों ने न कैबिनेट से सेटअप अनुमोदित कराया, न प्रशासनिक खर्च का बजट कम कराया। जाहिर है, मामला कैबिनेट में जाता तो फिर आधे अधिकारियों, कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ती। सो, जिनकी कोई जरूरत नहीं, उन्हें उपकृत करने के लिए सिस्टम ने आंख मूंद लिया। और जहां 250 करोड़ के एक परसेंट के हिसाब से सेटअप पर खर्च होना था ढाई करोड़, वहां बहाया जा रहा नौ करोड़। याने भारत सरकार के तय प्रावधान से चार गुना अधिक। आलम यह है कि जिन अधिकारियों, कर्मचारियों की आवश्यकता नहीं, वे भी पिछले पांच साल से भारी-भरकम सैलरी उठा रहे हैं। पांच साल में प्रचार-प्रसार मद का करीब 35 करोड़ रुपिया सरप्लस अधिकारियों, कर्मचारियों को पगार देने में निकल गया। सवाल उठता है...पीएम मोदी के क्लीन विलेज जैसी ड्रीम योजना को पलीता लगाया जा रहा है, तो सिस्टम मौन क्यों है?
हास्यपद रिव्यू
मोदी सरकार ने छत्तीसगढ़ में क्लीन विलेज का टाईम एक साल बढ़ाकर अब छह साल कर दिया है। याने 2025-26 तक यह चलेगा। चूकि टॉयलेट की साफ-सफाई और प्रचार-प्रसार के बजट से नियम विरूद्ध वेतन बांटे जा रहे हैं। इसको लेकर हाल ही में रिव्यू बैठक बुलाई गई थी। मीटिंग में बताया गया कि कुल काम का एक परसेंट वेतन पर व्यय करना है, लेकिन स्टाफ ज्यादा होने से दीगर मद के पैसे से वेतन बांटना पड़ रहा है। यह सुनते ही आईएएस अफसर ने कहा...ठीक है, खर्च बढ़ा दो। खर्च बढ़ेगा तो वेतन अपने आप बढ़ जाएगा। इसे हास्यपद जवाब ही तो कहा जाएगा। जिम्मेदार पद पर बैठे आईएएस अफसर को यह नहीं पता कि असली खेल क्या हो रहा है, और उसका निराकरण कैसे किया जाए।
कागजों में 'क्लीन विलेज'
छत्तीसगढ़ में 19 हजार के करीब गांव हैं, और 11 हजार ग्राम पंचायत। पांच साल में इन पंचायतों को क्लीन बनाने 1000 करोड़ खर्च हो चुके हैं। इस पैसे में घर-घर से कचरा उठाने सायकिल रिक्शे खरीदे गए...वेस्ट मैटेरियल को डिस्पोज किया गया...गांवों को रोज झाड़ू मार चमका दिया गया है...सफाई के लिए ग्रामीणों के व्यवहार में परिवर्तन लाने प्रचार-प्रसार के लिए होर्डिग्स से लेकर वॉल राइटिंग कराए गए हैं। पीएम मोदी के सपने के अनुरुप छत्तीसगढ़ के गांव गंदगी मुक्त हो रहे हैं...ये हम नहीं कह रहे। पंचायत विभाग के अधिकारी कहते हैं। दावों और हकीकत में फर्क अब आप कीजिए?
तरकश का इम्पैक्ट
पिछले 'तरकश' स्तंभ में सड़कों पर गायें, चीफ सिकरेट्री का गुस्सा और इस समस्या के समाधान पर अलग-अलग शीर्षक से प्रमुखता के साथ फोकस किया गया था। इसमें अब ताजा अपडेट यह है कि सरकार ने गोठान योजना की जगह गौधाम योजना लांच कर दिया है। तरकश में हमने बताया था कि पिछली सरकार की गोठान योजना अच्छी थी मगर उसका क्रियान्वयन दोषपूर्ण था, इस वजह से वह सफल होने से पहले फेल हो गई। विष्णुदेव सरकार ने योजना का नाम बदला ही है, प्रक्रिया में व्यापक रिफार्म करते हुए उसे सिस्टेमिक कर दिया है। फायनेंस से बकायदा बजट पास कराया गया है। वहीं, चरवाहे और गोसेवकों के लिए मानदेय का प्रावधान भी किया गया है। इससे ग्रामीण इलाकों के युवाओं को रोजगार भी मिलेगा। पिछली सरकार में चूक ये हुई थी कि गोठान योजना को पायलट प्रोजेक्ट की बजाए सारे जिलों में एक साथ प्रारंभ कर दिया गया था, जिसका खामियाजा सरकार को उठाना पड़ा। गोठानों में देखभाल की समुचित व्यवस्था न होने से जगह-जगह गायों के मरने की खबरें आने लगी। दरअसल, तब मॉनिटरिंग सिस्टम नहीं के बराबर था। गौधाम योजना में ऐसा नहीं है। अभी इसे नेशनल हाईवे से लगे गांवों के आसपास बनाया जाएगा। वह इसलिए कि सबसे अधिक गायों की मौतें हाईवे पर हो रही है। पिछले हफ्ते ही तीन हादसों में 90 गायें जान गंवा बैठीं। कायदे से कोई भी योजना पायलट प्रोजेक्ट की तरह शुरू होना चाहिए। उससे खामियों को समझने का मौका मिल जाता है। खैर, चलिये...गौधामों से गौमाताओं का भला हो जाए...सड़क दुर्घटनाएं कम हो जाए।
उधार में खुफिया, एसीबी
छत्तीसगढ़ राज्य बने 25 साल गुजर गए। मगर अफसोस की बात ये कि नवोदित राज्य में न तो कभी वर्किंग कल्चर की बात हुई और न ही महत्वपूर्ण संस्थाओं को स्थापित करने का प्रयास किया गया। केंद्र द्वारा पैसा देने के बाद भी एक जिले में भी डिटेंशन सेंटर नहीं बनाया जा सका। जबकि, भारत सरकार ने सभी जिलों में इसे बनाने कहा है। जब बंगलादेशियों की धड़पकड़ तेज हुई तो पुलिस वालों के हाथ-पांव फुल गए कि उन्हें रखा कहां जाए। जाहिर है, उनके खिलाफ जब तक केस रजिस्टर्ड नहीं होगा, तब तक जेल भेजा नहीं जा सकता। इसलिए, केंद्र सरकार ने उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखने कहा था। और-तो-और किसी भी राज्य में सबसे महत्वपूर्ण खुफिया महकमा होता है। राज्य की छोटी-से-छोटी घटनाओं की दृष्टि रखने के साथ ही अघोषित तौर पर पॉलिटिकल घटनाक्रमों पर इसकी पैनी नजर रहती है। कह सकते हैं, खुफिया अधिकारी सरकार के आंख-नाक-कान होते हैं। दिन भर के घटनाओं पर इंटेलिजेंस अधिकारी मुख्यमंत्री को ब्रीफ करते हैं। मगर राज्य में 25 साल से इसमें कोई भर्ती नहीं हुई है। यही हाल, एसीबी और ईओडब्लू का है। जुगाड़ की व्यवस्था से ये दोनों एजेंसियां रन कर रही हैं। एसीबी में जो अफसर आता है, अपने हिसाब से अधिकारियों को ले आता है और फिर जब यहां से रिलीव हुए तो सबको रिलीव करा दिया...पिछले डेढ़ दशक से प्रदेश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी में यही चल रहा है। ये तब है, जब एसीबी और ईओडब्लू जीएडी में आता है। और, छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को छोड़ दें हमेशा सीएम के पास रहता आया है। चलिये, विष्णुदेव सरकार ने रिफार्म की कोशिशें तेज की हैं, तो उम्मीद की जा सकती है कि छत्तीसगढ़ के संस्थागत डेवलपमेंट पर भी विचार किया जाएगा।
प्रभारवाद का वायरस
छत्तीसगढ़ में करप्शन की एक बड़ी वजह प्रभारवाद का वायरस है। सूबे में प्रभारवाद की बीमारी 2013 के बाद तेजी से पनपी। शुरू में पीडब्लूडी, इरीगेशन और पीएचई के ईएनसी से चालू हुई। तब सीनियर अफसरों के होते जूनियरों को चीफ बनाया जाने लगा। अब तो पराकाष्ठा हो गया है...स्कूल शिक्षा जैसा विभाग 80 परसेंट से अधिक प्रभार में चल रहा है। पिछले 10-12 साल से सूबे के 3300 स्कूल प्रभारी प्राचार्य के भरोसे चल रहे हैं तो 33 में 31 जिला शिक्षा अधिकारी प्रभारी हैं। स्वास्थ्य विभाग में 90 परसेंट डीन, एमएस, सीएमओ प्रभार में हैं। ऐसा नहीं है कि सीएमओ बनने लायक डॉक्टर प्रदेश में नहीं हैं, मगर जो मामला प्रीपेड, पोस्टपेड जैसे रिचार्ज प्लान से जुड़ा है, तो कोई क्या ही कर सकता है। दरअसल, पूर्णकालिक अफसर एक लिमिट से अधिक कंप्रोमाइज नहीं करता। मगर प्रभारी कुछ भी कर सकता है। उसे लगता है कि किसी भी दिन उसकी कुर्सी चली जाएगी। इसका फायदा यह होता है कि उससे जहां चाहे, वहां दस्तखत करा लो। सरकार अगर प्रभारवाद सिस्टम को खतम कर दें तो छत्तीसगढ़ में 25 प्रतिशत करप्शन एक झटके में खतम हो जाएगा।
अफसरों का टोटा
राज्य सरकार ने इसी हफ्ते 10 आईएएस अधिकारियों का ट्रांसफर किया। लिस्ट में कुछ सलेक्शन बढ़िया थे मगर एकाध नाम को देखकर लगा कि सरकार के पास विकल्प का अभाव है। दरअसल, छत्तीसगढ़ में दिक्कत यह है कि नौकरशाहों की फौज तो खड़ी हो गई है मगर काम के लोगों की संख्या क्षीण है। आलम यह है कि सरकार हेल्थ में कुछ बदलाव करना चाहती है मगर ढंग का कोई विकल्प मिल नहीं रहा। राज्य बनने के बाद अभी तक आईएएस का 22 बैच आ चुका है। 150 से अधिक अफसर हो चुके हैं। सचिवों की संख्या ही 50 क्रॉस कर चुकी है। मगर वास्तविकता है है कि सभी 22 बैचों में दो-चार बैच ही ऐसा होगा, जिनमें 40 या 50 परसेंट अच्छे अफसर होंगे। वरना, एक या दो से ज्यादा नहीं। इसी में कलेक्टर से लेकर डायरेक्टर, सचिव, प्रमुख सचिव, अपर मुख्य सचिव शामिल हैं। आईएएस के कैडर में छत्तीसगढ़ जैसी खराब स्थिति शायद ही किसी राज्य में होगी। ऐसे में, सरकार के रणनीतिकार क्या कर लेंगे।
ब्यूरोक्रेसी जिम्मेदार-1
छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी को खराब करने में अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को कसूरवार माना जाता है। उन्होंने कैडर बंटवारे का ऐसा फार्मूला सेट किया कि 90 परसेंट अच्छे अफसर एमपी में रह गए...सारे रिजेक्टेड को छत्तीसगढ़ को टिका दिया। रही-सही कसर नौकरशाहीवाद ने खराब किया। एक तो मेजरटी गड़बड़ टाईप के अफसरों की बन गई, फिर जो मुठ्ठी भर अच्छे अफसर थे, उन्होंने भी इसे रिफाइन करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। मध्यप्रदेश के समय एक सिस्टम बना हुआ था। कलेक्टर बनने से पहले एसडीएम, एडिशनल कलेक्टर, जिला पंचायत सीईओ, फिर कलेक्टर। कलेक्टर अपने जूनियरों को जिम्मेदारी के साथ कार्यपद्धति सिखाते थे। मगर अब ये पुरानी बात हो गई। आज के अधिकांश कलेक्टर या सीनियर अफसर जूनियरों को जाम छलकाना और पैसे कमाना सिखा रहे हैं। दूसरी जो महत्वपूर्ण बात...तमाम गड़बड़ियों में लिप्त अपने अफसरों को लिमिट से ज्यादा बचाना। एक बार कलेक्टर कांक्लेव में आईएएस एसोसियेशन के प्रेसिडेंट मनोज पिंगुआ ने मंच से नए अफसरों के बिगड़े चाल पर कटाक्ष कर दिया था। मनोज पिंगुआ और ऋचा शर्मा ने पिछले दिनों मंत्रालय में एक मीटिंग कर अफसरों को आगाह किया था। मगर सिर्फ एक बार टोकने और मीटिंग करने से नहीं होगा। इसे कलेक्टर लेवल पर करना होगा। क्योंकि, नए अफसर सचिवों के संपर्क में बाद में आते हैं, पहले उनका साबका कलेक्टरों से पड़ता है। ढंग के कलेक्टर, अगर ढंग से जूनियरों को ट्रेंड करें तो अभी भी मौका है...आगे की पौध ठीक हो जाएंगी।
ब्यूरोक्रेसी जिम्मेदार-2
लगभग डेढ़ दशक पुरानी बात होगी। प्रमुख सचिव लेवल के एक अफसर मंत्रालय में पोस्टेड एक सचिव के बारे में काफी अंट-शंट बोलते थे। बिना किसी हिचक कहते थे...फलां बेहद भ्रष्ट है...वो...बिना पैसा लिए काम कर दिया तो बताना। मगर उस अफसर के यहां एक एजेंसी का छापा पड़ा तो सीनियर अफसर का सूर बदल गया। बोलने लगे...आईएएस के यहां कहीं छापा पड़ता है, हमलोग देश चलाते हैं...इसमें कुछ नहीं होगा। और, वहीं हुआ। अफसर का कुछ नहीं हुआ। सब सेट हो गया। मगर कुछ साल बाद सब कुछ हो गया। अफसर का बड़ा नुकसान हो गया। इस प्रसंग का लिखने का मतलब यह बताना है कि शुरू में ही जूनियर अफसर को अगर टोक-टाक कर ठीक कर लिया गया होता, तो कम-से-कम उसका कैरियर तो खराब नहीं हुआ होता।
आईएएस का ट्रांसफर
कलेक्टरों का ट्रांसफर होने की अटकलें काफी दिनों से चल रही थीं। मगर 10 अधिकारियों की लिस्ट निकलने के बाद अब नहीं लगता कि बहुत जल्द कलेक्टरों को तबादला किया जा सकता है। कह सकते हैं...फिलहाल उन्हें मोहलत मिल गई है। अब वे हिट विकेट हो जाएं तो बात अलग है। सिकरेट्री रैंक के आईएएस कार्तिकेय गोयल के डेपुटेशन पर पोस्टिंग से डायरेक्टर फूड और एमडी वेयर हाउसिंग का पद खाली हो गया है। सरकार को इन दो पदों पर जरूर पोस्टिंग करनी होगी।
अंत में दो सवाल आपसे
1. इन अटकलों में कोई दम है कि चीफ सिकरेट्री अमिताभ जैन को एक एक्सटेंशन और मिल सकता है?
2. डीजी पवनदेव का पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन से छह साल बाद भी ट्रांसफर नहीं हो रहा और एडीजी जीपी सिंह को पोस्टिंग नहीं मिल रही, क्या वजह है?