Chhattisgarh Tarkash: हार कर भी हीरो...
छत्तीसगढ़ की ब्यूरोक्रेसी और राजनीति पर केंद्रित वरिष्ठ पत्रकार संजय दीक्षित का निरंतर 14 वर्षों से प्रकाशित लोकपिय्र साप्ताहिक स्तंभ तरकश
तरकश, 20 अगस्त 2023
संजय के. दीक्षित
हार कर भी हीरो
हार कर भी हीरो...पढ़कर आपको थोड़ा अटपटा लगेगा। मगर पुराने लोगों को याद होगा कि छत्तीसगढ़ में एक ऐसा विधानसभा चुनाव हुआ है, जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी रहीं। बात खरसिया एसेंबली इलेक्शन की है। मध्यप्रदेश के समय 1988 में वहां जबर्दस्त सियासी मुकाबला हुआ था। तब राज्यपाल के तौर पर पंजाब में आतंकवाद के खिलाफ ऐतिहासिक लोंगोवाल समझौता कराने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अर्जुन सिंह को फिर से मध्यप्रदेश का सीएम बनाया था। सिंह उस समय विधायक नहीं थे, लिहाजा, छह महीने के भीतर उन्हें विधानसभा पहुंचना जरूरी था। अर्जुन सिंह के रणनीतिकारों ने आसान सीट की खोज शुरू की। खरसिया विधायक लक्ष्मी पटेल सीएम के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने सीएम से खरसिया से चुनाव लड़ने का आग्रह किया। इस सीट पर कांग्रेस कभी हारी नहीं थी...पार्टी के लोगों ने अर्जुन सिंह को अश्वस्त किया...आप नामंकन जमा कर भोपाल चले जाइयेगा, बाकी हमलोग संभाल लेंगे। अर्जुन सिंह ने इस पर सहमति दे दी। मगर बीजेपी के कद्दावर नेता लखीराम अग्रवाल को यह नागवार गुजरा कि उनके खरसिया को कांग्रेस इतना आसान सीट मान रही है। उन्होंने अर्जुन सिंह को टक्कर देने के लिए जशपुर के दिलीप सिंह जूदेव को चुना। अपने शेरो-शायरी, मिलिट्री ड्रेस और मूंछों पर ताव देते खास अंदाज से जूदेव युवाओं में बेहद लोकप्रिय थे। जूदेव की नामंकन रैली को देखकर अर्जुन सिंह समर्थकों को सांप सूंघ गया। खबर मिली तो भोपाल से भागे-भागे अर्जुन सिंह भी खरसिया पहुंचे। सीट ऐसी फंस गई थी कि अर्जुन सिंह को वोटिंग तक खरसिया में ही कैंप करना पड़ा। चूकि सीएम का मामला था, पूरे तंत्र को झोंक दिया गया। उस समय ये अपुष्ट खबर भी चर्चाओं में रही कि चुनाव उलझता देख अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह ने खरसिया के एक लोकल नेता को थप्पड़ जड़ दिया कि तुमने डैडी को बुलाकर यहां उलझा दिया। बहरहाल, वोटिग के बाद नतीजा आया...अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज मुख्यमंत्री मात्र 8000 वोट से जीत पाए। इस चुनाव से अर्जुन सिंह इतने दुखी थे कि सर्टिफिकेट लेकर तुरंत भोपाल रवाना हो गए। जबकि जूदेव ने हारने के बाद भी खरसिया में जुलूस निकाला। देश का संभवतः पहला चुनाव होगा, जिसमें हारने के बाद भी किसी नेता का जुलूस निकाला गया हो।
ओपी किधर?
बीजेपी ने 21 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशियों के नामों का ऐलान किया है, उनमें खरसिया से महेश साहू को चुनावी मैदान में उतारा गया है। 2018 के चुनाव में इस सीट पर कलेक्टरी छोड़ सियासत में आए ओपी चौधरी को भाजपा ने प्रत्याशी बनाया था। इस बार हालांकि, मंत्री उमेश पटेल की स्थिति 2018 सरीखी नहीं है फिर भी बीजेपी ने भविष्य के इस नेता को किसी दूसरी सीट से टिकिट देना मुनासिब समझा। ओपी के लिए चंद्रपुर और रायगढ़ का नाम चर्चाओं में है। सियासी प्रेक्षकों का भी मानना है कि ऐन वक्त पर अगर नया समीकरण नहीं बना तो बीजेपी ओपी को इन्हीं दोनों सीटों में से किसी पर खड़ा करेगी।
नो परिवारवाद!
मध्यप्रदेश में राजनीतिज्ञों के पुत्रों ने सियासत में अपनी अच्छी बखत बनाई है। माधव राव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य केंद्रीय मंत्री ही नहीं बल्कि प्रभावशाली नेता भी हैं। इसी तरह सुभाष यादव के बेटे अरुण, दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्द्धन, कमलनाथ के बेटे नकुल, सभी ठीक ठाक ट्रेक पर हैं। मगर मध्यप्रदेश से अलग हुआ छत्तीसगढ़ की सियासी माटी पता नहीं कैसे सियासी नेताओं के बेटों के लिए बंजर सी हो गई है। हालांकि, राज्य बनने के पहले स्थिति ठीक रही। एमपी के फर्स्ट सीएम पंडित रविशंकर शुक्ल के बेटे श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल करिश्माई नेता रहे। बिसाहू दास महंत के बेटे चरणदास महंत तो अभी भी मेन ट्रेक पर हैं...एमपी के समय तो वे नंबर दो पर पहुंच गए थे। स्थिति ये हो गई कि दिग्विजय सिंह को उन्हें जांजगीर लोकसभा से लड़ाकर दिल्ली भेजना पड़ा। एमपी के समय ही लखीराम अग्रवाल के बेटे अमर अग्रवाल भी सियासत में इंट्री ली और काबिलियत साबित कर 15 साल मंत्री रहे। आदिवासी नेताओं की बात करें तो बलीराम कश्यप के बेटे केदार कश्यप 15 साल मंत्री रहे और वे अभी भी अपनी रेटिंग बनाए हुए हैं। उसके बाद राजनीतिज्ञों के बेटों पर ग्रहण लग गया। अजीत जोगी के बेटे अमित एक बार विधायक रहे। चार बार के सीएम श्यामाचरण के पुत्र अमितेष की स्थिति भी अच्छी नहीं कही जा सकती। पूर्व सीएम मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण का हाल भी इससे जुदा नहीं। चरणदास महंत ने अपने बेटे को राजनीति में लाने का प्रयास किया। मगर किन्हीं कारणों से उसे ड्रॉप कर दिया। स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के भतीजे आदित्येश्वर सरकारी कामकाज में ट्रेंड तो हो गए हैं...वे जिला पंचायत के उपाध्यक्ष भी हैं। मगर इससे आगे क्या...अभी पिक्चर क्लियर नहीं। कुछ और नेताओं के बेटे उछल-कूद मचा कर पर्दे के पीछे जा चुके हैं। बहरहाल, ये ठीक भी है...छत्तीसगढ़ में कम-से-कम परिवारवाद का आरोप तो नहीं चलेगा।
महंत की मजबूरी?
कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का जांजगीर में कार्यक्रम करके विधानसभा अध्यक्ष चरणदास महंत ने अपनी ताकत दिखाई। कार्यक्रम में 25 हजार के करीब भीड़ रही। सारे मंत्री आए तो 60 के करीब विधायकों की भी मौजूदगी रही। हालांकि, राष्ट्रीय अध्यक्ष का पहला दौरा था, इसलिए सरकार ने भी इसे प्रायरिटी दिया। फिर भी भीड़ को देखकर महंत खुद इतने उत्साहित हो गए कि सरकारी कार्यक्रम का संचालन खुद करने लगे। बावजूद इसके, उन्हें एक बात का मलाल जरूर रहेगा। जांजगीर मेडिकल कॉलेज का नामकरण वे अपने पिता बीडी महंत के नाम पर करना चाहते थे। मगर पता नहीं वो मजबूरी कैसे निर्मित हुई कि उन्हें मंच से खुद मिनी माता के नाम पर कालेज का नामकरण करने का प्रस्ताव रखना पड़ा और उसे ओके कर दिया गया।
रायपुर या गोवा?
नया रायपुर कैपिटल सिटी की बजाय लोगों के लिए तफरीह सिटी बनती जा रही है। खासकर शाम को आप चले जाइये...गोवा से भी ज्यादा उन्मुक्तता देखने का मिलेगी। सड़क किनारे बाइक खड़ी है, आदमी गायब। लास्ट संडे की शाम की बात करें...अनायास नया रायपुर जाना पड़ गया। वहां का दृश्य देखकर चकित रह गया...मंत्रालय के ठीक सामने झील किनारे पाथ वे पर एक युवक और तीन युवतियां बेतकल्लुफ होकर शराब पी रहे थे। बगल से लोग आ जा रहे...पर कोई मतलब नहीं। एकबारगी लगा गोवा बनता जा रहा है नया रायपुर। गोवा की पुलिस भी ऐसे मामलों में आंखें मूंद लेती है। उनकी मजबूरी भी है...वहां टूरिज्म के अलावा कुछ भी नहीं। नया रायपुर में भी कुछ थाने हैं...पेट्रोलिंग पार्टी की तैनाती की बातें भी होती हैं...मगर तेलीबांधा के बाद कहीं पुलिस नजर नहीं आती। कोई बड़ी वारदात हो जाए, उससे बेहतर होगा कि सिस्टम संज्ञान लें।
पैग में मास्टरी
शराब की बात निकली तो बता दें कि छत्तीसगढ़ में एक ऐसे आईएफएस अफसर हैं, जिन्हें शराब का पैग बनाने और उसे पीने का भांति-भांति का आइडिया है। वे खुद भी पैग बनाने के नए-नए प्रयोग करते रहते हैं। महफिल सजाने के वे इतने शौकिन कि रायपुर से अगर 100 किमी के डिस्टेंस पर भी गए तो नाइट हॉल्ट वहीं करेंगे। फिर शाम को पार्टी। बताते हैं, टकिला कोई शराब की वेराइटी होती है। इसमें उन्हें मास्टरी हासिल है...कितना बूंद नींबू डालना है, वे उसमें अदरख भी डलवाते हैं। कुल मिलाकर अफसर दिलचस्प हैं। उनके इस खास क्वालिटी के कई आईएएस, आईपीएस भी मुरीद हैं।
ब्रांड की किल्लत
शराब पीने में जब से जेंडर भेद मिटा है...लोगों की दिनचर्या तनावग्रस्त हुई है जाहिर है सूबे में शराब की खपत भी बढ़ी है। पिछले एक दशक में छत्तीसगढ़ में शराब की सेल दोगुनी से अधिक हो गई है। मगर अभी सूरा प्रेमियों को ईडी से शिकायत है कि उसकी कार्रवाइयों के चलते कई ब्रांड मार्केट से गायब हो गए हैं। बताते हैं, मीडिल क्लास में सबसे अधिक चलने वाला ब्लेंडर प्राइड की सप्लाई बंद है। किंगफिशर बीयर भी मार्केट से आउट है।
चुनाव आयोग का ट्रेलर
आईएएस सुरुचि सिंह के ट्रांसफर पर ब्रेक लगाने से यह स्पष्ट हो गया है कि विधानसभा चुनाव में अधिकारियों पर निर्वाचन आयोग की नजरें बनी रहेंगी। मतदाता पुनरीक्षण कार्य के दौरान बेमेतरा एसडीएस सुरुचि सिंह के ट्रांसफर पर चुनाव आयोग ने संज्ञान लेकर उनका ट्रांसफर रोक दिया। यह तब हुआ, जब आचार संहिता प्रभावशील नहीं हुआ है। कलेक्टर, एसपी को इसके लिए सतर्क रहना होगा।
अंत में दो सवाल आपसे
1. विधानसभा अध्यक्ष चरणदास महंत सक्ती से चुनाव लड़ेंगे या अपनी सीट बदलेंगे
2. ऐसा क्यों कहा जा रहा है कि बीएसपी ने जिन नौ सीटों पर अपना प्रत्याशी खड़ा किया है, वे बीजेपी के अनुकूल हैं?