Allahabad High Court News: BNSS गैर संज्ञेय अपराध में समन से पहले आरोपी को अपना पक्ष रखने का मिलना चाहिए मौका, हाई कोर्ट का निचली अदालतों को समझाइश

Allahabad High Court News: एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने गैर संज्ञेय अपराध को लेकर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि बीएनएसएस की धारा के तहत गैर संज्ञेय अपराध के लिए पुलिस द्वारा पेश चार्जशीट को मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत माना जाना चाहिए। इसे पुलिस केस के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। हाई कोर्ट ने कहा कि संबंधित को समन जारी करने से पहले सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए।

Update: 2025-11-27 06:21 GMT

Allahabad High Court News: प्रयागराज। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इहालाबाद हाई कोर्ट ने गैर संज्ञेय अपराध को लेकर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि बीएनएसएस की धारा के तहत गैर संज्ञेय अपराध के लिए पुलिस द्वारा पेश चार्जशीट को मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत माना जाना चाहिए। इसे पुलिस केस के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।

हाई कोर्ट ने कहा कि संबंधित को समन जारी करने से पहले सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए। हाई कोर्ट ने कहा, यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 BNSS की धारा 2(1)(h) के एक्सप्लेनेशन के अनुसार है। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट आरोपी को सुनवाई का मौका दिए बिना समन जारी नहीं कर सकता, जैसा कि BNSS की धारा 223(1) के पहले प्रावधान के तहत ज़रूरी है।

जस्टिस प्रवीण कुमार गिरी की सिंगल बेंच ने शाहजहांपुर में ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट द्वारा गैर संज्ञेय अपराध के लिए पास किए गए समन आदेश को रद्द करते हुए यह आदेश जारी किया है। सिंगल बेंच ने इस मामले को भारत के संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन बताया। सिंगल बेंच ने कहा कि संबंधित मजिस्ट्रेट ने न तो गैर संज्ञेय अपराध बताने वाली चार्जशीट को 'कंप्लेंट' में बदला और न ही BNSS की धारा 210(1)(a) के तहत संज्ञान में लेकर शिकायत पर शुरू किए गए समन के तौर पर आगे बढ़ने में गलती की। सिंगल बेंच ने BNSS की धारा 210(1)(b) के तहत संज्ञान लेने और आवेदक को सुनवाई का मौका दिए बिना जैसा कि BNSS की धारा 223(1) के पहले प्रावधान के तहत दिया गया, समन भेजने में संबंधित मजिस्ट्रेट के काम में गलती पाई। साथ ही गलती से शिकायत के बजाय पुलिस रिपोर्ट पर शुरू किए गए समन-केस के ट्रायल के तौर पर आगे बढ़ा।

यह मामला पड़ोसियों के बीच टॉयलेट वेस्ट ड्रेनेज को लेकर हुए झगड़े से जुड़ा था। शिकायत करने वाले ने आरोप लगाया कि आरोपी ने गलत तरीके से सोक-पिट टॉयलेट बनाया, जिससे गंदा पानी उसके घर के सामने खुले नाले में बहता था। 10 अगस्त, 2024 को झगड़ा बढ़ गया, जिसके बाद गाली-गलौज और मारपीट हुई।

इसके बाद BNS की धारा 115(2) (जानबूझकर चोट पहुंचाना) और 352 (शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर बेइज्जती करना) के तहत एक गैर संज्ञेय अपराध के तहत रिपोर्ट दर्ज की गई। मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकृत जांच के बाद, पुलिस ने चार्जशीट पेश की। अब मुख्य मुद्दा यह था: ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने इस चार्जशीट पर अपराध का संज्ञान लिया और इसे BNSS की धारा 210(1)(b) के तहत पुलिस रिपोर्ट माना। फिर मजिस्ट्रेट ने आरोपी को समन भेजा और पुलिस रिपोर्ट पर शुरू किए गए समन-केस के ट्रायल का सामना करने के लिए कहा। इस आदेश को चुनौती देते हुए आरोपी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

BNSS की धारा 2(1)(h) के एक्सप्लेनेशन पर भरोसा करते हुए सिंगल बेंच ने ज़ोर दिया कि जब जांच के बाद एक गैर संज्ञेय अपरोध होने का आरोप लगाया गया तो पुलिस ऑफिसर को शिकायकर्ता मानकर इसे शिकायत माना जाना चाहिए था। हाई कोर्ट ने देखा कि मजिस्ट्रेट ने गलती से धारा 210(1)(a) के बजाय धारा 210(1)(b) के तहत कार्रवाई की।

हाई कोर्ट ने साफ किया कि केस को 'पुलिस केस' के बजाय 'कम्प्लेंट' मानना ​​सिर्फ टेक्निकल ही नहीं है, बल्कि यह आरोपी के असली अधिकारों और ट्रायल के तरीके पर भी असर डालता है। कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि BNSS की धारा 223 शिकायतकर्ता की जांच, के तहत "आरोपी को सुनवाई का मौका दिए बिना मजिस्ट्रेट किसी अपराध (शिकायत पर) का संज्ञान नहीं लेगा"।

कोर्ट ने कहा कि मामले को पुलिस केस मानकर, मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ताओं को यह कानूनी अधिकार नहीं दिया था। जस्टिस गिरी ने आगे कहा कि शिकायत पर शुरू किए गए समन-केस के ट्रायल में BNSS की धारा 279 (CrPC की धारा 256) लागू होती है। इसलिए अगर शिकायतकर्ता पेश नहीं होता है या उसकी मौत हो जाती है, तो मजिस्ट्रेट आरोपी को बरी कर देगा।

हाई कोर्ट ने कहा कि ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने गलती से BNSS के नियमों का उल्लंघन करते हुए कॉग्निजेंस-कम-समन ऑर्डर पास कर दिया। इसलिए समन ऑर्डर रद्द करते हुए हाई कोर्ट ने इस निर्देश के साथ मामला ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को वापस भेज दिया: 1. पुलिस रिपोर्ट (चार्ज-शीट) को, जहाँ तक उसमें किसी नॉन-कॉग्निजेबल अपराध के होने का खुलासा होता है, 'शिकायत' माना जाए। 2. शिकायत मामलों में लागू नियमों के अनुसार सख्ती से आगे बढ़ें। बेंच ने संबंधित मजिस्ट्रेट को यह भी निर्देश दिया कि भविष्य में समन ऑर्डर पास करते समय ज़्यादा सावधानी बरतें।

जस्टिस गिरी ने कहा, "मजिस्ट्रेट को यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी आरोपी को समन भेजने का मतलब सिर्फ़ चार्जशीट या शिकायत के रूप में कोर्ट के सामने रखी गई सामग्री का ज्यूडिशियल नोटिस लेना है, और इससे दोषी या बेगुनाह होने का कोई तय नहीं होता। कोर्ट ने यह भी कहा कि जिस ऑर्डर पर सवाल उठाया गया है, उसमें मजिस्ट्रेट ने ऑर्डर पर अपने साइन की जगह अपना नाम, डेज़िग्नेशन और ID नहीं लिखा था। हाई कोर्ट ने सभी पीठासीन अधिकारियों को यह भी निर्देश दिया कि वे हाई कोर्ट के सर्कुलर का "पूरी तरह से पालन" करें, जिसमें हर ऑर्डर पर उनके साइन के नीचे उनकी डिटेल्स साफ-साफ लिखी जानी ज़रूरी हैं।

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