Harsiddhi Mandir: 2000 साल पुराने इस मंदिर का रोचक है इतिहास, राजा विक्रमादित्य ने काटकर चढ़ाया था अपना सिर, यहीं गिरी थी माता सती की कोहनी...

Harsiddhi Mandir Ujjain: उज्जैन में स्थित प्रसिद्ध हरसिद्धि मंदिर 51 शक्तिपीठों में शामिल है. हरसिद्धि मंदिर में सालभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है.

Update: 2024-10-05 08:09 GMT

नवरात्रि के नौ दिन मां की उपासना का दिन है, ऐसे में शक्तिपीठों के दर्शन-पूजन से विशेष लाभ प्राप्त होता है. देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन किया गया है. पुराणों के अनुसार, जहाँ जहाँ माँ सती के अंग गिरे वहां शक्तिपीठ बनते गए. इस तरह 51 शक्तिपीठों की स्थापना हुई. माँ के हर शक्तिपीठ की अपनी एक कहानी और  विशेष महत्व है. इन्हे में है उज्जैन का प्रसिद्ध हरसिद्धि मंदिर. 

हरसिद्धि मंदिर का इतिहास 

मध्यप्रदेश के उज्जैन में स्थित प्रसिद्ध हरसिद्धि मंदिर 51 शक्तिपीठों में शामिल है. हरसिद्धि मंदिर में सालभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है. लेकिन नवरात्रि के दौरान भक्तगण का तैनात लगा रहता है. इस मंदिर में तीन देवियां सबसे ऊपर लक्ष्मी, बीच में अन्नपूर्णा की मूर्ति और नीचे सरस्वती एक साथ विराजित हैं. हरसिद्धि माता को मांगल-चाण्डिकी के नाम से भी जाना जाता है. माता हरसिद्धि की साधना करने से सभी प्रकार की दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं. यह मंदिर करीब 2000 साल पुराना है जिसका इतिहास बेहद ही रोचक है. 

यहाँ गिरी थी माता सती की कोहनी

पौराणिक कथा के मुताबिक, माता सती के पिता प्रजापति दक्ष ने कनखल नाम का स्थान जिसे हरिद्वार के नाम से जाना जाता है वहां यह किया था. दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में शिव को छोड़कर ब्रम्हा-विष्णु सहित सभी देवी-देवताओं को न्यौता दिया था. माता सती अपने पति भगवान शिव के अपमान को सह नहीं पायी. जिसके बाद माता सती ने उसी यज्ञ के अग्निकुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी. इससे शिव क्रोधित हुए और उनका तीसरा नेत्र खुल गया. भगवान शिव माता सति का जलता हुआ शरीर लेकर तांडव करने लगे. भगवान शिव तांडव से पृथ्वी पर प्रलय होने लगा. जिसे रोकने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर को टुकड़ों में बांट दिया. ये हिस्से अलग-अलग स्थानों पर गिरे. माँ के शरीर के 51 टुकड़े पृथ्वी पर गिरे. इस तरह 51 शक्तिपीठों की स्थापना हुई. माँ सती की कोहनी का एक हिस्सा टुकड़ा उज्जैन में गिरा था. जिसे हरसिद्धि मंदिर के नाम से जाना जाता है. 

ऐसे पड़ा हरसिद्धि नाम 

स्कंद पुराण के अनुसार, चण्ड और मुण्ड नामक दो दैत्यों ने अपना आतंक मचा रखा था. एक बार जब भगवान शिव और पार्वती कैलाश पर्वत पर अकेले थे. तब चंड और मुंड ने कैलाश पर कब्जा करने की कोशिश की. चण्ड और मुण्ड ने अंदर घुसने की कोशिश करने लगे. भगवान शिव के नंदीगण ने द्वार पर ही उन्हें रोक दिया. लेकिन चण्ड और मुण्ड ने नंदीगण को घायल कर दिया. तब शिवजी ने तुरंत चंडी देवी का स्मरण किया और माँ चंडी को दोनों को दैत्यों को नष्ट करने के लिए बुलाया. देवी चंडी ने दोनों दैत्यों का वध कर दिया. इससे भगवान शिव प्रसन्न होकर उन्हें हरसिद्धि नाम दिया. तब इस मंदिर का नाम हरसिद्धि पड़ा. हरसिद्धि का अर्थ होता है हर कार्य को सिद्ध करने वाली देवी. 

राजा विक्रमादित्य ने माँ हरसिद्धी को चढ़ाये थे अपने सिर

इस मंदिर का इतिहास सम्राट राजा विक्रमादित्य से भी जुड़ा है. मान्यता है कि यह स्थान सम्राट विक्रमादित्य की तपोभूमि है. मां हरसिद्धी सम्राट राजा विक्रमादित्य और कई वंशों की कूलदेवी थीं. सम्राट विक्रमादित्य भी सिद्धि के लिए पूजा किया करते थे. वो उनके परम भक्त थे. कहा जाता है, सम्राट विक्रमादित्य हर साल माँ हरसिद्धी को अपना सिर काटकर चढ़ाते थे. उन्होंने देवी हरसिद्धि को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया था. 11 साल तक अपने हाथों से अपने सिर काटकर माँ को अर्पित करते थे. जब भी विक्रमादित्य अपना सिर काटते उसके स्थान पर नया सिर आ जाता था. लेकिन 12वीं बार में उनका सिर नहीं आया और उनकी मृत्यु हो गयी थी. कहा जाता है मंदिर के एक कोने में 11 सिंदूर लगे हुए हैं जो राजा विक्रमादित्य के ही हैं. 

दीप स्तंभो में जलते हैं 1 हजार दीये

2 हजार साल से पहले मंदिर के ठीक सामने राजा विक्रमादित्य ने मंदिर में दीप स्तंभो की स्थापना कराइ थी. यह स्तंभ लगभग 51 फीट ऊंचे हैं. इस स्तम्भ को शिव-शक्ति का प्रतीक माना जाता है. नवरात्रि के दौरान यह स्तंभ बेहद सुंदर दिखाई पड़ते हैं. स्तंभ पर 1 हजार 11 दीये बने हुए हैं. इन दीपों को जलाने के लिए 4 किलो रुई की बाती और 60 लीटर तेल का उपयोग होता है. 6 लोग मिलकर सिर्फ 5 मिनट में सारे दीये जलाते हैं. स्तंभ दीप जलाते समय बोली गई हर मनोकामना पूरी होती है. लेकिन स्तंभ दीप जलाने का सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता. 

हर मनोकामना होती है पूरी

इस मंदिर की परंपराएं बेहद अनूठी है. यहाँ मंदिर में बलि नहीं दी जाती है. क्युकी यहाँ देवी वैष्णव हैं. मान्यता है नवरात्र में गुप्त साधक यहां गुप्त साधना करने आते हैं. इसके अलावा  माना जाता है कि यहां आने वाले हर भक्त की मनोकामना पूरी होती है. 

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