Khaleda Zia Death News : पूर्व पीएम खालिदा जिया का 80 साल की उम्र में निधन, वेंटिलेटर पर रहते हुए भी भरा था चुनावी पर्चा

Khaleda Zia Death News : देश की पहली महिला प्रधानमंत्री और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) की ताकतवर नेता खालिदा जिया का आज सुबह निधन हो गया।

Update: 2025-12-30 04:42 GMT

Khaleda Zia Death News : पूर्व पीएम खालिदा जिया का 80 साल की उम्र में निधन, वेंटिलेटर पर रहते हुए भी भरा था चुनावी पर्चा

Bangladesh Former PM Passed Away : ढाका/इंटरनेशनल डेस्क: पड़ोसी देश बांग्लादेश से एक बहुत बड़ी दुखद खबर सामने आ रही है। देश की पहली महिला प्रधानमंत्री और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) की ताकतवर नेता खालिदा जिया का आज सुबह निधन हो गया। 80 साल की उम्र में उन्होंने ढाका के एवरकेयर अस्पताल में आखिरी सांस ली। खालिदा जिया पिछले काफी समय से गंभीर बीमारियों से जूझ रही थीं और पिछले 20 दिनों से उनकी जिंदगी वेंटिलेटर के सहारे टिकी हुई थी। उनके निधन की खबर से न केवल बांग्लादेश बल्कि पूरी दुनिया के राजनीतिक गलियारों में शोक की लहर दौड़ गई है।

Bangladesh Former PM Passed Away : अस्पताल में संघर्ष और आखिरी वक्त: खालिदा जिया की सेहत पिछले कई सालों से नाजुक बनी हुई थी। उन्हें लीवर, किडनी, डायबिटीज, सीने में इन्फेक्शन और गठिया जैसी गंभीर बीमारियां थीं। 29 और 30 दिसंबर की दरमियानी रात उनकी तबीयत अचानक इतनी बिगड़ गई कि डॉक्टरों के पास उन्हें वेंटिलेटर पर रखने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। परिवार उन्हें बेहतर इलाज के लिए लंदन या विदेश ले जाना चाहता था। इसके लिए कतर से एक विशेष एयर एम्बुलेंस भी ढाका एयरपोर्ट पर खड़ी कर दी गई थी, लेकिन मेडिकल बोर्ड ने उनकी हालत इतनी नाजुक बताई कि उन्हें उड़ान भरने की इजाजत नहीं मिल सकी और आखिरकार सुबह 6 बजे उनका शरीर शांत हो गया।

वेंटिलेटर पर रहकर भी दिखाया सियासी जुनून: खालिदा जिया के निधन से ठीक एक दिन पहले एक ऐसी घटना हुई जिसने उनके सियासी रसूख को साबित कर दिया। जब वह अस्पताल में मौत से जंग लड़ रही थीं, तब उनकी पार्टी (BNP) के नेताओं ने बोगुरा-7 सीट से उनका चुनावी नामांकन दाखिल किया। यह सीट खालिदा जिया के लिए हमेशा से लकी रही है, यहीं से जीतकर वह तीन बार प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंची थीं। उनके पति और पार्टी के संस्थापक जियाउर रहमान का घर भी इसी इलाके में था। पार्टी चाहती थी कि भले ही उनकी स्थिति नाजुक हो, लेकिन चुनावी मैदान में उनका नाम बना रहे।

बैटल ऑफ बेगम्स का हुआ अंत : खालिदा जिया के जाने के साथ ही बांग्लादेश की राजनीति में मशहूर बैटल ऑफ बेगम्स का दौर भी खत्म हो गया। एक समय था जब खालिदा जिया और शेख हसीना ने मिलकर देश से सैन्य शासन को उखाड़ फेंकने के लिए सड़कों पर संघर्ष किया था। लेकिन 1991 में जब खालिदा पहली बार प्रधानमंत्री बनीं, तो दोनों के बीच ऐसी राजनीतिक दुश्मनी शुरू हुई जो दशकों तक चली। बांग्लादेश की सत्ता सालों तक इन्हीं दो महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती रही। कभी खालिदा का राज होता तो कभी शेख हसीना का।

घरेलू महिला से पीएम बनने तक का सफर : खालिदा जिया का जन्म 1945 में हुआ था और शुरुआत में उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था। वह एक साधारण घरेलू महिला थीं, जिनकी शादी सैन्य अधिकारी जियाउर रहमान से हुई थी। 1981 में जब उनके पति की हत्या कर दी गई, तब पार्टी को बिखरने से बचाने के लिए वह राजनीति के मैदान में उतरीं। उन्होंने अपनी मेहनत से BNP को खड़ा किया और 1991 में देश की पहली महिला पीएम बनकर इतिहास रच दिया। उनके बड़े बेटे तारीक रहमान फिलहाल पार्टी की कमान संभाल रहे हैं, जो हाल ही में लंदन से वापस लौटे हैं। खालिदा जिया का निधन केवल एक नेता का जाना नहीं है, बल्कि यह बांग्लादेश के उस इतिहास का अंत है जिसने देश को लोकतंत्र की राह पर चलना सिखाया। भले ही वह विवादों में रहीं या जेल में, लेकिन उनके समर्थकों के लिए वह हमेशा देशनेत्री बनी रहीं।


खालिदा जिया की कहानी सिर्फ सत्ता के गलियारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक घरेलू महिला के आयरन लेडी बनने की वो दास्तां है जिसने बांग्लादेश के इतिहास को बदल दिया। उनके जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट 1984 में आया, जब पति जियाउर रहमान की हत्या के बाद उन्होंने राजनीति की कमान संभाली। उस दौर में किसी को भरोसा नहीं था कि एक फौजी की पत्नी मंझे हुए राजनेताओं के बीच अपनी जगह बना पाएगी, लेकिन खालिदा ने न केवल बिखरती हुई पार्टी (BNP) को एकजुट किया, बल्कि जनरल इरशाद की तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोलकर अपनी लीडरशिप का लोहा मनवाया। प्रधानमंत्री के रूप में उनका सबसे बड़ा योगदान शिक्षा के क्षेत्र में रहा; उन्होंने लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा की जो क्रांतिकारी शुरुआत की, उसी का परिणाम है कि आज बांग्लादेश की महिलाओं की साक्षरता दर और सामाजिक स्थिति में इतना बड़ा सुधार नजर आता है।

उनकी राजनीति की सबसे बड़ी पहचान थी समझौता न करने की जिद। साल 2018 में जब उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल भेजा गया, तब भी उन्होंने सरकार के सामने घुटने नहीं टेके। उनकी सेहत लगातार गिरती रही, लेकिन उन्होंने पेरोल की उन शर्तों को ठुकरा दिया जिसमें उन्हें राजनीति छोड़ने के लिए कहा गया था। उनका यह अडिग रुख उनके समर्थकों के लिए प्रेरणा बन गया। उनके निधन को अब भारत-बांग्लादेश संबंधों के एक नए अध्याय के रूप में भी देखा जा रहा है। शेख हसीना के दौर में भारत के साथ जो करीबी रिश्ते रहे, खालिदा जिया का नजरिया उससे हमेशा अलग और संप्रभुता को प्राथमिकता देने वाला रहा। अब उनके जाने के बाद, उनके बेटे तारीक रहमान के नेतृत्व में पार्टी का रुख भारत के प्रति कैसा होगा, इस पर पूरी दुनिया की नजरें टिकी हैं क्योंकि यह बदलाव दक्षिण एशिया की पूरी कूटनीति (Diplomacy) को प्रभावित कर सकता है।


भारत-बांग्लादेश संबंध: 

खालिदा जिया के कार्यकाल के दौरान भारत और बांग्लादेश के रिश्तों का एक ऐसा दौर रहा जिसे कूटनीति की भाषा में बहुत सहज नहीं माना जाता। शेख हसीना के भारत-समर्थक रुख के विपरीत, खालिदा जिया की सरकार का झुकाव अक्सर उन नीतियों की ओर रहा जिनसे भारत की चिंताएं बढ़ती थीं। उनके शासनकाल (खासकर 2001-2006) के दौरान भारत ने कई बार पूर्वोत्तर राज्यों के उग्रवादियों को बांग्लादेशी जमीन पर पनाह मिलने का मुद्दा उठाया था। उस समय दोनों देशों के बीच सीमा विवाद, घुसपैठ और गंगा जल बंटवारे जैसे मुद्दों पर काफी तीखी बहस होती थी। खालिदा जिया की राजनीति अक्सर 'राष्ट्रवाद' के इर्द-गिर्द घूमती थी, जिसमें वह खुद को बांग्लादेश की संप्रभुता के रक्षक के रूप में पेश करती थीं, जिसके कारण कई बार भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ताएं ठंडे बस्ते में चली जाती थीं।

विशेषज्ञों का मानना है कि खालिदा जिया के नेतृत्व में बांग्लादेश ने चीन और पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को अधिक प्राथमिकता दी, जिससे दक्षिण एशिया में भारत के रणनीतिक हितों पर असर पड़ा। हालांकि, समय-समय पर व्यापारिक समझौतों के जरिए रिश्तों को सुधारने की कोशिश भी हुई, लेकिन अविश्वास की खाई हमेशा बनी रही। अब उनके निधन के बाद, भारत के लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उनकी पार्टी (BNP) उनके बेटे तारीक रहमान के नेतृत्व में पुरानी कड़वाहट को भुलाकर भारत के साथ एक नए और सकारात्मक सहयोग की शुरुआत करेगी? खालिदा का जाना न केवल बांग्लादेश की अंदरूनी राजनीति के लिए बड़ा मोड़ है, बल्कि यह दिल्ली और ढाका के बीच भविष्य के कूटनीतिक रिश्तों की नई इबारत भी लिख सकता है।

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