रायपुर में यहां रहते थे स्वामी विवेकानंद : 14 साल की उम्र में रायपुर आए थे विवेकानंद, पहली भाव समाधि का अनुभव यहीं

सीएम भूपेश बघेल ने स्वामी विवेकानंद स्मारक के रूप में डे भवन के संरक्षण कार्य का शुभारंभ किया।

Update: 2023-01-12 11:41 GMT

NPG.News @ रायपुर। आज 12 जनवरी है। आज की तारीख में स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था। इसलिए 12 जनवरी का युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वामी विवेकानंद की यादें रायपुर से भी जुड़ी हुई हैं। यहां उन्होंने दो साल का समय बिताया। जब वे 14 साल के थे, तब यहां आए थे। यहां जिस भवन में रहते थे, उस 'डे भवन' को विवेकानंद स्मारक के रूप में संरक्षित किया जाएगा। सीएम भूपेश बघेल ने गुरुवार को इन कार्यों का शुभारंभ किया। सीएम बघेल डे भवन भी गए। इसे चार करोड़ खर्च कर संवारा जाएगा। आपको बता दें कि स्वामी विवेकानंद की स्मृतियों को सुरक्षित रखने के लिए ही रायपुर में रामकृष्ण आश्रम की स्थापना की गई थी।


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यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि जिन स्वामी विवेकानन्द ने अपनी प्रखर तेजिस्वता और प्रतिभा से केवल भारतवर्ष को ही नहीं, अपितु सारे विश्व को प्रभावित किया, उनकी किशोरावस्था के दो महत्त्वपूर्ण वर्ष छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर में बीते। यहां पर उन्होंने जो स्मृतियां संचित कीं, वे उनके जीवन-काल तक अमिट और प्रभावी बनी रहीं। हम उनकी ऐसी ही कतिपय स्मृतियों को, जो रायपुर से संबंध रखती हैं, यहां पर लिपिबद्ध करने की चेष्टा करेंगे।

स्वामी विवेकानंद का पूर्व नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। वे सन् 1877 में रायपुर आए थे। तब उनकी आयु 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने कार्यवश रायपुर में रह रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उन्हें रायपुर में काफी समय रहना पड़ेगा, तब उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी रायपुर बुला लिया। नरेंद्र अपने छोटे भाई महेंद्र, बहन जोगेंद्र बाला और माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए। तब रायपुर कलकत्ता से रेल-लाइन से नहीं जुड़ा था। उस समय रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुए बंबई जाती थी। उधर नागपुर भुसावल से जुड़ा हुआ था, तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जाने वाली रेल-लाइन भी नहीं बनी थी। अत: बहुत संभव है, नरेंद्र अपने परिवार के सदस्यों के साथ जबलपुर उतरे हों और वहां से रायपुर आने के लिए बैलगाड़ी की हो।


उनके कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेंद्र और उनके घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर आए। नरेंद्र को इस यात्रा में जो एक अलौकिक अनुभव हुआ, वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मंडला, कवर्धा होकर रायपुर गए हों। उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पंद्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। इस समय पथ की शोभा अत्यंत मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे-हरे सघन वन वृक्ष थे। भले ही नरेंद्र नाथ को इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि उनके ही शब्दों में, 'वनस्थली का अपूर्व सौंदर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश हीं नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा द्वारा सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनंत प्रेम का पहले-पहल साक्षात् परिचय पाकर मंत्रमुग्ध हो गया था ।'

वे कहा करते थे, 'वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया वह स्मृति-पटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है। विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत-शिखर विंध्य पर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थीं। तरह-तरह की वृक्ष-लताएं, फल और फूलों के भार से लदी हुईं, पर्वत-पृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं। अपने मधुर कलरव से समस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी कुंज-कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे।


इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शांति का अनुभव कर रहा था। धीर-मन्थर गति से चलती हुई बैलगाड़ियां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पास वाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्ख्यिों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाण-स्वरूप एक प्रकाण्ड मधुमक्खी का छत्ता लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिका-राज्य के आदि और अंत की बात सोचते-सोचते मन तीनों जगत् के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्य-ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुन: होश में आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ आया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात और कोई न जान सका ।' नरेंद्र नाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में ही उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था।

रायपुर में तब अच्छा विद्यालय नहीं था, इसलिए नरेंद्र नाथ पिता से ही पढ़ा करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी नहीं थी। पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिता अनेक विषयों की चर्चा करते। यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते और क्षेत्र-विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुंठित न होते। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों और बुद्धिमानों का समागम हुआ करता और विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेंद्र बड़े ध्यान से सब सुना करते और अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मंतव्य भी देते। उनकी बुद्धिमत्ता और ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते थे, इसलिये कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था। एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेंद्र ने बंग्ला के एक ख्यात नाम लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े, 'बेटा, किसी-न-किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'

नरेंद्र बालक होते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर अवहेलना करना चाहता, तो वे सह नहीं सकते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे, वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे और दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे, तो नरेंद्र सोचने लगे, 'यह कैसा आश्चर्य है! मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मुझे ऐसा कैसे समझते हैं।' अतएव आहत मणिधर सांप के समान सीधा होकर उन्होंने दृढ़ स्वरों में कहा, 'आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितांत गलत है।' जब आगंतुक सज्जन ने देखा कि नरेंद्र अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं और वे उनके साथ बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिये बाध्य होना पड़ा।

नरेंद्र में पहले से ही पाक विद्या के प्रति स्वाभाविक रुचि थी। रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण और इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने व उनका अनुकरण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गए। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया और अच्छे-अच्छे खिलाड़ियों के साथ वे बाजी लगा सकते थे। रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेंद्र की अभिरुचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ-स्वर बड़ा ही सुरीला था। वे आगे चलकर एक सिद्ध गायक बने थे, पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ।


रायपुर में घटी दो और घटनाएँ नरेन्द्रनाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी। एक समय नरेन्द्रनाथ पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे, 'आपने मेरे लिए क्या किया है?' तुरन्त उत्तर मिला, 'जाओ, दर्पण में अपना चेहरा देखो! पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं।

एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा कि संसार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का मापदण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था, 'कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना।' क्या यह वही सूत्र था, जिसने नरेन्द्रनाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रसाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था।

डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कलकत्ता लौट आए। तब नरेन्द्रनाथ का शरीर स्वस्थ, सबल व हृष्ट-पुष्ट हो गया था और मन उन्नत। उनमें आत्म विश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गए थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढ़ने के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में प्रवेश नहीं देना चाहते थे। बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में दाखिल हुए और अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में ठीक कर उन्होंने 1879 में परीक्षा दी । यथासमय परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे एकमात्र विद्यार्थी हैं। यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार-स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।

(कंटेट रामकृष्ण मिशन रायपुर की वेबसाइट से साभार)

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