High Court News: तलाक के केस में हाई कोर्ट का बड़ा फैसला, मानसिक रोग साबित करने के लिए मनोरोग विशेषज्ञ की पुष्टी जरूरी, डॉक्टर की पर्ची से नहीं चलेगा काम
High Court News: पत्नी के मानसिक रोगी होने का हवाला देकर पति द्वारा तलाक के लिए दायर याचिका को बिलासपुर हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया है। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि पति या पत्नी की मानसिक बीमारी को मनोरोग विशेषज्ञ को साबित करना होगा। डाक्टर की पर्ची पेश करना और इस आधार पर तलाक की अर्जी लगान पर्याप्त कारण नहीं है।
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High Court News: बिलासपुर। पति या पत्नी की मानसिक बीमारी के आधार पर पति या पत्नी द्वारा तलाक के लिए दायर की जाने वाली याचिका के संबंध में हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि मानसिक बीमारी के कारणों को लेकर दावा करने वाले याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि वह किस आधार पर इस तरह का गंभीर आरोप लगा रहा है। आरोप के संबंध में डाक्टर की पर्ची पेश करना ही पर्याप्त नहीं है। मनोरोग चिकित्सक को रोग के संबंध में पुष्टि करनी होगी।
पति ने अपनी पत्नी को मानसिक रोगी बताते हुए विवाह विच्छेद तलाक की मांग करते हुए याचिका दायर की थी। मामले की सुनवाई जस्टिस रजनी दुबे व जस्टिस एके प्रसाद की डिवीजन बेंच में हुई। डिवीजन बेंच ने फैमिली कोर्ट के फैसले को यथावत रखते हुए याचिका को खारिज कर दिया है। डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि मानसिक अक्षमता के आधार पर विवाह को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका में याचिकाकर्ता का यह दायित्व है कि वह स्पष्ट और ठोस सबूतों के माध्यम से यह स्थापित करे कि पत्नी मानसिक विकार से पीड़ित थी और संतानोपत्ति के लिए अयोग्य थी। इसके लिए मनोरोग चिकित्सा विशेषज्ञ की गवाही और पुष्टि आवश्यक है।
यह है मामला
याचिकाकर्ता पति और पत्नी के बीच 3 मार्च, 2008 को विवाह संपन्न हुआ था। उसकी दो बेटियां है। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाते हुए कहा कि विवाह से पहले ससुराल वालों ने पत्नी को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ्य बताया था। विवाह के बाद उसका व्यवहार असामन्य होने लगा। चिखना चिल्लाना और सामान को उठाकर फेंकना व बच्चों को बिना वजह मारपीट करने लगी। इसके बाद उसकी चिकित्सकीय जांच कराई, जिसमें पता चला कि वह एक गंभीर मानसिक बीमारी, सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित थी। पत्नी ने कोर्ट को बताया कि अक्टूबर, 2018 के आसपास ससुराल छोड़कर चली गई थी। जिसके बाद वह कभी वापस नहीं लौटी। इसलिए, पति ने धारा 12 (1) (बी) के तहत झूठे आरोप लगाते हुए शादी को रद्द करने के लिए याचिका दायर की।
फैमिली कोर्ट में भी साबित नहीं कर पाया था आरोप
पारिवारिक न्यायालय ने इस आधार पर तलाक के लिए याचिकाकर्ता पति की अर्जी खारिज कर दी थी कि याचिकाकर्ता यह साबित नहीं कर पाया था कि उसकी पत्नी जन्म से ही सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित थी।
डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में ये लिखा
जस्टिस रजनी दुबे व जस्टिस एके प्रसाद की डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में लिखा है, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12 के तहत कार्यवाही में विवाह को रद्द करने को उचित ठहराने वाले सबूतों व तथ्यों को साबित करने का दायित्व याचिकाकर्ता पर है।
कोर्ट ने माना, जब याचिकाकर्ता ने उपचार करने वाले डॉक्टरों की विशेषज्ञ गवाह के रूप में जांच नहीं की और यह साबित करने में विफल रहा कि पत्नी विवाह के समय से ही सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित थी। केवल नुस्खों को दाखिल करना पर्याप्त नहीं होगा। इस टिप्पणी के साथ परिवार न्यायालय के फैसले को सही ठहराते हुए याचिका को खारिज कर दिया है।