CG Mayor Election: मेयर इलेक्शन: राजनीतिक महत्वाकांक्षा और प्रतिष्ठा की लड़ाई में करोड़ों फूंक देते हैं प्रत्याशी, खर्च की लिमिट तो बस यूं ही

CG Mayor Election: छत्तीसगढ़ के दो प्रमुख नगर निगम रायपुर और बिलासपुर के मेयर इलेक्शन में कितना खर्च होगा। राज्य सरकार ने तो 25 लाख की लिमिट तय कर दी है। ये दो शहर ऐसे हैं जहां वार्ड पार्षद का चुनाव लड़ने वाला उम्मीदवार का चुनावी बजट इससे ज्यादा होता है। इन दो नगर निगमों में मेयर का चुनाव मतलब 20-25 करोड़। इन दोनों निगम में 25 ऐसे वार्ड हैं जहां उम्मीदवार दो से तीन करोड़ यूं ही फूंक देते हैं। यह सब नेता प्रतिपक्ष या फिर सभापति की कुर्सी की लड़ाई के लिए करते हैं।

Update: 2024-12-25 13:44 GMT

CG Mayor इलेक्शन बिलासपुर। महापौर का चुनाव इस बार डायरेक्ट होगा। मसलन शहरी मतदाताओं को अपना मेयर चुनने का सीधेतौर पर अधिकार मिल गया है। पार्षदों के भरोसे मेयर चुनाव की बातें पुरानी हो चुकी है। राज्य शासन ने चुनावी कैंपेनिंग के लिए खर्च की लिमिट तय कर दी है। 15 से 25 लाख तक उम्मीदवार खर्च कर सकेंगे। यह सरकारी लिमिट है। छत्तीसगढ़ के रायपुर और बिलासपुर मेयर चुनाव में इस खर्च में चुनाव लड़ना तो बेमानी ही होगी। दोनों शहर में मेयर चुनाव मतलब जिसकी जेब में 20 से 25 करोड़ रुपये, वहीं दिखा पाएंगे दम। दोनों शहरों में 15 से 20 ऐसे वार्ड हैं जहां चुनाव में उम्मीदवार करोड़ों फूंक देते हैं। सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते। चाहत किस बात की, नेता प्रतिपक्ष या फिर सभापति की कुर्सी हासिल करना। खास बात ये कि कुछ वार्ड ऐसे भी हैं जहां राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के साथ ही प्रतिष्ठा की टकराहट भी नजर आती है।

राज्य सरकार ने वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर महापौर, नगरपालिका व नगर पंचायत अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए खर्च की सीमा तय कर दी है। चुनाव कैंपेनिंग के दौरान खर्च का हिसाब रखना होगा। अलग बैंक अकाउंट खोलना होगा। यहां तक कैंपेनिंग पर नजर रखने पर्यवेक्षक भी तैनात रहेंगे। जैसा कि होते आया है और हर बार चुनाव के दौरान ऐसा दिखाई भी देता है। तमाम बंदिशों के बाद भी राजनीतिक दल के उम्मीदवारों, रणनीतिकारों और चुनाव संचालकों को चुनावी माहौल के बीच जो खेला करना होता है वह करते ही रहते हैं। पर्यवेक्षकों से लेकर तमाम सरकारी एजेंसी की आंखों में धूल झोंकने का काम ही तो करते हैं। सब-कुछ आइने की तरह साफ होने के बाद भी हिसाब-किताब में चालाकी कर नियमों और बंदिशों को धता बताने में कामयाब हो ही जाते हैं। नगर निगम चुनाव की बात करें तो इस बार महापौर का चुनाव डायरेक्ट होगा। मतदाता अपने मेयर का चुनाव खुद करेंगे। डायरेक्ट चुनाव मतलब सीधेतौर पर प्रतिष्ठा और राजनीतिक महत्वाकांक्षा की लड़ाई।

सत्ता और विपक्ष के बीच सीधी टकराहट। निश्चित मानिए उम्मीदवार भी उसी अंदाज में चुनावी मैदान में नजर आएंगे। या तो उम्मीदवार या फिर पर्दे के पीछे सुपर केंडिडेट की पंसद हो तो फिर मामला कुछ ज्यादा ही दिलचस्प और देखने लायक हो ही जाता है। इस बार भी कमोबेश कुछ ऐसा ही होनो वाला है। पांच साल बाद हो रहे सीधे चुनाव को लेकर सरगर्मी भी देखी जा रही है। सरगर्मी, सियासत,महत्वाकांक्षा और प्रतिष्ठा के बीच रोचक सियासी नजारे भी दिखाई देंगे। यह सब होगा तब खर्च की सीमाएं कहां तक जाएंगी और चुनाव आयोग की लक्ष्मण रेखा को कौन कितने बार लांघेंगे यह भी देखने और समझने वाली बात होगी।

0 यहां तो वार्ड चुनाव होते हैं करोड़ों के, मेयर को तो छोड़िए

छत्तीसगढ़ राज्य की दो प्रमुख निगम कहें या फिर शहर। पहले नंबर पर राजधानी और दूसरे नंबर पर न्यायधानी। रायपुर और बिलासपुर नगर निगम के मेयर चुनाव पर तो रायपुर से लेकर दिल्ली तक नजरें रहेंगी। मेयर नहीं मानो विधानसभा का चुनाव हो रहा हो। प्रतिष्ठा सब की बराबर लगी रहेगी। या यूं कहें कि बड़ों की प्रतिष्ठा दांव पर रहेगी। प्रतिष्ठा की बात जब आ जाती है तब धन किस अंदाज में लुटाते हैं यह भी सबको पता है। बीते निकाय चुनाव में हमने यह सब देखा था। बिलासपुर और रायपुर नगर चुनाव की बात करें तो 70 वार्ड में 20 से 25 ऐसे वार्ड हैं जहां का चुनाव के दौरान पैसा पानी की तरह बहता है। उम्मीदवारों का बजट सेल्युलर कंपनियों की तरह अनलिमिटेड। ये ऐसे वार्ड हैं जहां का चुनावी माहौल,बैनर,पोस्टर,फ्लैक्स और केंपेनिंग को देखकर लगता ही नहीं कि वार्ड पार्षद का चुनाव हो रहा है। बानिगी ऐसा कि मेयर इलेक्शन से कम नहीं। चुनाव संचालक से लेकर कार्यकर्ताओं की बात ही छोड़ दें। इन वार्डों के मतदाताओं की तो सोचिए। इन्हें भाग्यशाली कहा जाए तो अचरज नहीं होना चाहिए।

0 इसलिए भी बेहिसाब करते हैं धन खर्च

कुछ वार्ड ऐसे हैं जहां उम्मीदवार पर्चा भरने के साथ ही अपना गोल तय कर लेते हैं। पार्षद से सीधे नेता प्रतिपक्ष या फिर सभापति की कुर्सी। शहर सरकार की राजनीति में मेयर के बाद दो ऐसी कुर्सी है जिसकी चमक निगम की राजनीति में पूरे पांच साल बनी रहती है। सत्ता के गलियारों में धमक तो बनी रहती है अफसरों और कर्मचारियों के बीच उतनी ही राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव। एक इशारे पर वार्डों में छोटे से लेकर बड़े कम लग जाते हैं। कार्यकर्ताओं को उपकृत करने का काम भी इशारों ही इशारों में हो जाता है। कल्पना कीजिए, इस तरह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को लेकर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार चुनाव जीतेन के लिए क्या कुछ नहीं करते। चुनावी खर्च और लिमिट की बात सिवाय मजाक के लिए इनके लिए और कुछ नहीं।

0 बसंत शर्मा ने दिखाया था, नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी का धमक

नगर निगम की राजनीति में कांग्रेस नेता बसंत शर्मा की ना केवल भीतर तक दखल ही था वरन जब वे नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर काबिज थे तब कुर्सी का महत्व और पावर दोनों का अपने अंदाज में पूरे पांच साल जमकर प्रदर्शन किया था। यह वह दौर था जब महापौर से ज्यादा वे निगम की राजनीति में और सामान्य सभा के दौरान टाउन हाल के भीतर प्रभावी नजर आते थे। यह वही दौर था जब उन्होंने लीडर अपाेजिशन को एक ब्रांड बना दिया था।

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