TN Seshan Reforms: जब डर का दूसरा नाम बन गया था ‘चुनाव आयोग’... बिहार में टी.एन. शेषन ने कैसे दिखाई थी ताकत? कांप उठे थे लालू और मुलायम, जानिए कैसे उनके फैसलों ने चुनावी राजनीति को बदल दिया?
TN Seshan Bihar election: टी.एन. शेषन ने 1991 में पटना सहित कई सीटों का मतदान रद्द कराकर चुनाव आयोग की ताकत दिखा दी थी। जानिए कैसे उनके फैसलों ने बिहार समेत पूरे देश की चुनावी राजनीति को बदल दिया।
TN Seshan Story: पहले चरण में शांतिपूर्ण और रिकॉर्ड मतदान ने बिहार के राजनीतिक इतिहास में नई मिसाल पेश की है। यह वही बिहार है जहां कभी बूथ कैप्चरिंग, हिंसा और धांधली की खबरें आम थीं। लेकिन इस बदलाव की नींव तीन दशक पहले एक सख्त और निडर अफसर टी.एन. शेषन ने रखी थी। उन्होंने पहली बार देश को चुनाव आयोग की असली ताकत का अहसास कराया था।
1. जब ‘चुनाव आयोग’ का नाम डर का पर्याय बना
1991 में, देशभर में लोकसभा चुनाव चल रहे थे। उसी दौरान टी.एन. शेषन ने पटना, पूर्णिया, इटावा, बुलंदशहर और मेरठ सहित कई जगहों पर मतदान को पूरी तरह रद्द कर दिया। कारण था हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और धांधली। यह वह दौर था जब चुनाव आयोग को महज एक औपचारिक संस्था माना जाता था। लेकिन शेषन ने यह धारणा तोड़ दी। उन्होंने कहा, “डर शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं है।”
2. पद स्वीकारने में हिचक, पर नियति ने ठाना था बदलाव
शेषन पहले इस जिम्मेदारी को लेने से हिचक रहे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार ने जब उन्हें मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने का प्रस्ताव दिया तो उन्होंने सलाह के लिए राजीव गांधी से बात की। तब राजीव ने कहा था यह पद तुम्हारे लिए मुश्किल भरा होगा। लेकिन जब राष्ट्रपति आर.वी. वेंकटरमन और ज्योतिष कृष्णामूर्ति शास्त्री दोनों ने कहा कि यह जिम्मेदारी तुम्हारे लिए ही है तब उन्होंने पद स्वीकार किया। 10 दिसंबर 1990 को वे मुख्य निर्वाचन आयुक्त बने और भारतीय लोकतंत्र की दिशा बदल दी।
3. सुधारों की लकीर: चुनाव आयोग की ताकत को जीवित किया
शेषन ने छह वर्षों (1990–96) के कार्यकाल में चुनाव आयोग को ऐसी ताकत दी, जिसका प्रभाव आने वाले दशकों तक रहा। उन्होंने धांधली और हिंसा के खिलाफ सख्त रुख अपनाया, कई मतदान रद्द किए, और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक मशीनरी को सीधे आयोग के अधीन किया। उनके फैसलों से सरकारें असहज हो गईं, महाभियोग की मांगें उठीं, पर शेषन अडिग रहे। उन्होंने साफ कहा निर्वाचन आयोग सरकार का विभाग नहीं है, यह लोकतंत्र का प्रहरी है।
4. जब लालू और मुलायम से टकराव हुआ
1991 के चुनाव में पटना का मतदान रद्द करने के फैसले ने बिहार में भूचाल ला दिया। उस वक्त मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने शेषन पर कांग्रेस, भाजपा और सजपा से मिलीभगत का आरोप लगाया और कहा कि यह जनता दल को रोकने की साजिश है।
इसी तरह इटावा सीट पर मुलायम सिंह यादव से भी उनका टकराव हुआ। 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में जब शेषन ने दो चरणों के बजाय तीन चरणों में मतदान कराया, तो एक बार फिर लालू से उनका विवाद बढ़ा।
5. केंद्र और राज्यों से लगातार संघर्ष
शेषन ने कई मौकों पर केंद्र सरकार से सीधे टकराव किया। तत्कालीन विधि मंत्री विजय भास्कर रेड्डी से लेकर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव तक को उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा मैं कोई विभागीय अधिकारी नहीं, निर्वाचन आयोग का प्रतिनिधि हूं।
जब विधि एवं न्याय मंत्रालय (Ministry of Law and Justice) ने इटावा उपचुनाव रोकने की कोशिश की तो उन्होंने प्रधानमंत्री को फोन कर कहा अगर यह समझा गया कि मैं घोड़ा हूं और सरकार घुड़सवार तो मैं यह स्वीकार नहीं करूंगा।
6. निष्पक्षता की कीमत: अदालतों तक पहुँचा विवाद
शेषन के कई फैसलों पर अदालतों में चुनौती दी गई। जब उन्होंने 1993 में देशभर में मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण और चुनाव प्रक्रिया रोकने का आदेश दिया तो संवैधानिक संकट खड़ा हो गया। लेकिन इस संघर्ष के बाद निर्वाचन आयोग एक मजबूत, स्वतंत्र और प्रभावशाली संस्था के रूप में उभरा।
7. एक व्यक्ति जिसने लोकतंत्र को नई रीढ़ दी
टी.एन. शेषन ने साबित किया कि एक सच्चा प्रशासक कानून की सीमा में रहकर भी सिस्टम को हिला सकता है। 1996 में उनका कार्यकाल समाप्त हुआ 2019 में उनका निधन हो गया लेकिन हर चुनाव में उनका नाम आज भी गूंजता है।
उन्होंने देश को यह सिखाया कि लोकतंत्र केवल वोट डालने का अधिकार नहीं बल्कि उसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी भी है।