Ancient History of Bihar: वैदिक युग से लेकर गुप्त काल तक- जानिए बिहार की हजारों वर्षों पुरानी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत
Ancient history of Bihar: बिहार का प्राचीन इतिहास, भारत के पूर्वी हिस्से में स्थित बिहार न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, बल्कि यह राज्य भारतीय सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान परंपरा का केंद्र भी रहा है।
Ancient history of Bihar: बिहार का प्राचीन इतिहास, भारत के पूर्वी हिस्से में स्थित बिहार न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, बल्कि यह राज्य भारतीय सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान परंपरा का केंद्र भी रहा है। बिहार का इतिहास (History of Bihar) एक ऐसी गाथा है जो हजारों वर्षों की यात्रा को समेटे हुए है, जिसमें वैदिक काल, बौद्ध युग, महाजनपद, मौर्य और गुप्त साम्राज्य, और अनेक धार्मिक व दार्शनिक आंदोलनों की गूंज सुनाई देती है। यह राज्य प्राचीन भारत के बौद्ध और जैन धर्म के उद्गम स्थल के रूप में विख्यात है, जहाँ से ज्ञान, धर्म और संस्कृति की रोशनी पूरे एशिया में फैली।
भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
बिहार पूर्वी भारत का एक प्रमुख राज्य है जो अक्षांश 24°20’10″N से 27°31’15″N और देशांतर 83°19’50″E से 88°17’40″E के बीच स्थित है। यह उत्तर में नेपाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश, पूर्व में पश्चिम बंगाल और दक्षिण में झारखंड से घिरा हुआ है। गंगा नदी राज्य को दो मुख्य भागों – उत्तर बिहार का मैदान और दक्षिण बिहार का मैदान – में विभाजित करती है। यहाँ बहने वाली प्रमुख नदियाँ घाघरा, गंडक, बागमती, कोसी और महानंदा हैं, जो हिमालय से निकलकर बिहार को उपजाऊ भूमि प्रदान करती हैं।
बिहार की सांस्कृतिक विरासत सदियों से इसकी आत्मा में बसी हुई है। यह राज्य बौद्ध धर्म और जैन धर्म की जन्मस्थली के रूप में, साथ ही मौर्य और गुप्त जैसे शक्तिशाली साम्राज्यों के केंद्र के रूप में इतिहास में अपना विशेष स्थान रखता है।
प्राचीन सभ्यताओं की शुरुआत
बिहार का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से शुरू होता है जब यहाँ मानव सभ्यता का आरंभ हुआ। इतिहासकारों के अनुसार, बिहार में मानव जीवन के प्रमाण पूर्व प्रस्तर युग (100,000 ई.पू.) से ही मिलने लगते हैं। इस काल में फाल, कुल्हाड़ी जैसे औजारों के प्रमाण रजरप्पा, संजय घाटी, गया और नालंदा से मिले हैं। इसके बाद मध्य प्रस्तर युग (100,000 ई.पू. – 40,000 ई.पू.) और नव प्रस्तर युग (2500 ई.पू. – 1500 ई.पू.) में यहाँ के लोगों ने कृषि करना शुरू किया और स्थायी बस्तियाँ बसाईं। चिरांद (सारण), चेचर (वैशाली) जैसे स्थलों से इन कालों के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं।
ताम्र प्रस्तर युग (1000 ई.पू. – 900 ई.पू.) में बिहार की संस्कृति और अधिक विकसित हुई। इस काल के दौरान काले और लाल मृद्भांड, हड्डियों के औजार, तथा प्रारंभिक कृषि समाज की झलकियाँ विभिन्न खुदाई स्थलों से प्राप्त हुईं, जो हड़प्पा सभ्यता से संबंध रखती हैं।
वैदिक काल में बिहार
वैदिक साहित्य में बिहार को ‘कीकट प्रदेश’ और मगध क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और शतपथ ब्राह्मण में मगध और विदेह जैसे क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है। विदेह का उल्लेख विशेष रूप से गौतम राहुगण और जनक के प्रसंग में आता है, जो शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है। विदेह, वैशाली और मिथिला क्षेत्र वैदिक ज्ञान, यज्ञ, और ब्रह्मणवाद के केंद्र थे।
बिहार और उपनिषद काल की संकल्पनाएँ जैसे “सर्वे भवन्तु सुखिनः” (वृहदारण्यक उपनिषद) और “तमसो मा ज्योतिर्गमय” (बृहदारण्यक उपनिषद) आज भी भारतीय चिंतन का आधार हैं। यह क्षेत्र वैदिक संस्कृति, दर्शन, भाषा और धार्मिक रीतियों का गढ़ रहा है।
महाजनपद युग में बिहार
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जब भारत 16 महाजनपदों में विभाजित था, तब बिहार तीन प्रमुख महाजनपदों – अंग, मगध और वज्जि – का केंद्र था। अंग महाजनपद की राजधानी चम्पा (वर्तमान भागलपुर क्षेत्र) थी, जहाँ से राजा कर्ण ने शासन किया। मगध राज्य, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, आगे चलकर भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य बना।
वज्जि संघ, वैशाली में स्थित, दुनिया का पहला गणराज्य माना जाता है। यह लिच्छवियों द्वारा शासित एक शक्तिशाली संघ था जिसमें विदेह, ज्ञातृक, लिच्छवि आदि कुल शामिल थे। बुद्ध के समय में यह क्षेत्र धर्म, समाज और गणतंत्र की अनूठी मिसाल था। वैशाली में प्रसिद्ध नर्तकी आम्रपाली और राजवैद्य जीवक की कथाएँ बिहार की सांस्कृतिक संपन्नता का प्रमाण हैं।
बौद्ध और जैन धर्म का उत्थान
बिहार बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों का जन्मस्थल है। बोधगया में ही सिद्धार्थ गौतम को बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। नालंदा, राजगीर और विक्रमशिला जैसे स्थान बौद्ध शिक्षा और धर्म प्रचार के केंद्र बने। सम्राट अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म को पूरे एशिया में फैलाने का कार्य बिहार से ही प्रारंभ हुआ।
गौतम बुद्ध
गौतम बुद्ध का जीवन उन महान शख्सियतों में शामिल है जिनकी आत्मिक यात्रा ने मानवता को नई दिशा दी। वे न केवल बौद्ध धर्म के संस्थापक थे, बल्कि उनके विचार आज भी समग्र विश्व को आध्यात्मिक ज्ञान और शांति प्रदान करते हैं। बुद्ध का जीवन दर्शन, त्याग और बोध की उस गहराई को दर्शाता है जो हर मनुष्य को आत्ममंथन की ओर प्रेरित करता है।
गौतम बुद्ध का जन्म और परिवार
गौतम बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 563 में वर्तमान नेपाल स्थित लुंबिनी में हुआ था, जो उस समय शाक्य गणराज्य का हिस्सा था। उनके पिता राजा शुद्धोधन और माता रानी महामाया थीं। उनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था और वे गौतम गोत्र में जन्मे थे। जन्म के कुछ ही दिनों बाद, माता महामाया का देहांत हो गया। इसके पश्चात उनका पालन-पोषण उनकी मौसी और सौतेली माता महाप्रजापति गौतमी ने किया। यह भी उल्लेखनीय है कि उनके जन्म से लगभग बारह वर्ष पूर्व एक तपस्वी ऋषि ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो महान चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या फिर संन्यासी बनकर संसार को मोक्ष का मार्ग दिखाएगा।
राजसी जीवन और विवाह
सिद्धार्थ का पालन एक समृद्ध और भोग-विलासपूर्ण वातावरण में हुआ। उन्हें जीवन की कठोर सच्चाइयों से दूर रखने के लिए उनके पिता ने उन्हें राजमहल की सीमाओं तक ही सीमित रखा। वे संगीत, युद्धकला, शास्त्र, तीरंदाजी, तलवारबाज़ी, दौड़, कुश्ती और तैराकी जैसे अनेक राजसी गुणों में प्रशिक्षित हुए। युवा अवस्था में उनका विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी से हुआ। उनके एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसे उन्होंने राहुल नाम दिया।
चार महत्त्वपूर्ण दृश्य और वैराग्य
एक दिन जब वे 21 वर्ष के थे, उन्होंने नगर भ्रमण के दौरान चार अत्यंत गहन दृश्य देखे। पहला – एक वृद्ध व्यक्ति, जिसकी चाल थकी हुई और शरीर दुर्बल था। दूसरा – एक रोगग्रस्त व्यक्ति, जो वेदना में कराह रहा था। तीसरा – एक शव, जिसे श्मशान ले जाया जा रहा था। और चौथा – एक संन्यासी, जो संसारिक मोह से विरक्त होकर ध्यानस्थ था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ के भीतर गहरी हलचल पैदा कर दी। उन्होंने यह स्पष्ट रूप से अनुभव किया कि यह संसार क्षणभंगुर है और जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है। उन्होंने निश्चय किया कि वे इस रहस्य को जानने के लिए राजपाठ, पत्नी और पुत्र को त्याग देंगे।
संपूर्ण त्याग और आत्मबोध की तलाश
सिद्धार्थ ने एक रात गहन मौन में सब कुछ त्याग दिया और एक सामान्य संन्यासी के रूप में जीवन की सच्चाई जानने के लिए निकल पड़े। उन्होंने अनेक गुरुओं और आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की, परंतु अपने प्रश्नों के उत्तर उन्हें कहीं नहीं मिले। इसके बाद उन्होंने कठोर तपस्या प्रारंभ की और छह वर्षों तक अत्यंत कष्टदायक साधना की। उन्होंने अन्न-जल तक त्याग दिया और शरीर को हड्डियों का ढांचा बना डाला। लेकिन गहन तपस्या के बावजूद भी वे ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाए।
बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे साधना
सिद्धार्थ अंततः बिहार के बोधगया पहुंचे और वहां स्थित एक पीपल के पेड़ (बोधि वृक्ष) के नीचे ध्यानस्थ हो गए। उन्होंने यह संकल्प लिया कि जब तक उन्हें सत्य की प्राप्ति नहीं होगी, वे इस स्थान को नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने पूर्ण समर्पण के साथ ध्यान लगाया और आत्मनिरीक्षण करते रहे। संपूर्ण रात्रि ध्यान के बाद, प्रातःकाल उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। वे समस्त मोह, अज्ञान और भ्रम से मुक्त हो गए और उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई। उस क्षण वे ‘बुद्ध’ बन गए – अर्थात जाग्रत व्यक्ति।
पहला उपदेश और धर्मचक्र प्रवर्तन
गौतम बुद्ध ने अपने ज्ञान का पहला उपदेश वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया। उन्होंने अपने पांच पूर्व साथियों को ‘धम्मचक्कपवत्तन सूत्र’ के माध्यम से चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग की शिक्षा दी। यहीं से बौद्ध धर्म की विधिवत शुरुआत हुई। उन्होंने कहा कि जीवन में दुःख है, उसका कारण तृष्णा है, तृष्णा का अंत दुःख का अंत है, और इस मुक्ति का मार्ग अष्टांगिक मार्ग है। उन्होंने सभी वर्गों के लोगों को धर्म का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने 80 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म भी वैशाली जिले के कुंडग्राम में हुआ था। उनकी माता त्रिशला लिच्छवि वंश की थीं। भगवान महावीर ने बिहार की धरती पर ही जैन दर्शन को प्रचारित किया और अनेक अनुयायी बनाए।
महावीर स्वामी
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर है, जिन्हें साधारण संस्थापक नहीं, बल्कि उनके सिद्धांतों के नए परिवर्धन करने वाला ‘सुधारक’ माना जाता है। उन्होंने आत्मशोधन, अहिंसा और आत्मसंयम के मार्ग को सुव्यवस्थित किया, जिससे जैन धर्म का प्रचार-प्रसार और समाज में प्रभाव बढ़ा।
जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि
महावीर स्वामी का जन्म लगभग 599 ई.पू. (कुछ विद्वानों अनुसार 540 ई.पू.) बिहार के कुंडग्राम में ज्ञातृक क्षत्रिय कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था, जो लिच्छवी राजा चेटक की बहन थीं। बचपन में महावीर को वर्धमान कहा जाता था। वे मगध सम्राट बिंबिसार से कथित रूप से संबंध रखते थे। युवावस्था में उनका विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ और उनकी एक पुत्री प्रियदर्शना थी।
गृहत्याग और तप की अवधि
30 वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु के बाद वर्धमान ने बड़े भाई नंदिवर्धन की अनुमति से गृह त्याग किया और संन्यासी बन गए। शुरूआत में जब वे भिक्षु बन गए तो अपने वस्त्रों को त्याग दिया, जिससे वे पूर्ण नग्न अवस्था में तपस्या करने लगे। यह कठोर तपस्या करीब 12 वर्षों तक चली, जिसमें शरीर नाजुक हो गया, लेकिन उन्होंने धैर्य नहीं खोया।
ज्ञानोपलब्धि
13वें वर्ष वैशाख मास के दसवें दिन ऋजूपालिका नदी के तट पर उन्हें ‘कैवल्य’ यानी पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनकी उपाधि ‘केवलिन’ रखी गई, जिसका अर्थ था इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला और सभी बंधनों से मुक्त व्यक्तित्व। इसी क्षण वे ‘महावीर’ यानी ‘महाप्राक्रमी’ के नाम से प्रतिष्ठित हुए।
निर्वाण स्थल एवं काल
वर्षों की साधना और प्रचार के बाद, महावीर स्वामी ने लगभग 72 वर्ष की आयु में पावापुरी (पटना के निकट) में निर्वाण प्राप्त किया। कुछ इतिहासकार इसे 527 ई.पू., वहीं अन्य इसे 468 ई.पू. मानते हैं।
महावीर स्वामी की शिक्षाएं
महावीर स्वामी ने जैन धर्म को एक सुव्यवस्थित रूप में ढाला, जिसमें मुख्य अवधारणाएँ थीं:
- त्रिरत्न — सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चरित्र
- पंच महाव्रत — अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य
मौर्य साम्राज्य का उत्कर्ष
चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध से मौर्य साम्राज्य की नींव रखी और चाणक्य के मार्गदर्शन में पूरे भारतवर्ष पर अधिकार किया। उनकी राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) थी, जो एक विशाल और सुव्यवस्थित नगर था। सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त के पौत्र, ने बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाया और अपने शिलालेखों और स्तंभों के माध्यम से धर्म का प्रचार किया।
अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा जहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। महेन्द्र को विदा करने के लिए पाटलिपुत्र के घाट पर जो स्थल था, वह आज महेन्द्रू घाट के नाम से जाना जाता है।
गुप्त युग और भारत का स्वर्णकाल
गुप्त वंश का उद्भव भी बिहार की भूमि से हुआ और इसे भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और विक्रमादित्य जैसे शासकों के शासनकाल में कला, साहित्य, विज्ञान और गणित के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। कालिदास, आर्यभट, वराहमिहिर जैसे विद्वानों ने इस युग में अपने अद्भुत योगदान दिए।
इस काल में नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, जहाँ हजारों छात्र भारत और एशिया से अध्ययन हेतु आते थे। नालंदा विश्वविद्यालय न केवल शिक्षा का केंद्र था, बल्कि संस्कृति और दर्शन का भी समृद्ध स्थल था।
बिहार की कला और साहित्यिक धरोहर
बिहार की सांस्कृतिक विरासत में मधुबनी पेंटिंग और मिथिला कला का विशेष स्थान है। ये चित्रकला शैली अपने जीवंत रंगों और विशिष्ट डिज़ाइनों के लिए जानी जाती है। मैथिली, भोजपुरी, मगही जैसी भाषाओं में समृद्ध साहित्य रचा गया है। विद्यापति जैसे महान कवि मैथिली साहित्य के गौरव हैं।
बिहार की कला वास्तुकला में भी उन्नत रहा है। प्राचीन मंदिर, स्तूप और मठों की वास्तुकला में शिल्पकला की उत्कृष्टता देखी जा सकती है। पटना साहिब, शेरशाह सूरी का मकबरा, वैशाली के स्तूप जैसे स्थल आज भी बिहार की ऐतिहासिक पहचान बने हुए हैं।
बिहार के धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व
बिहार में अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व मनाए जाते हैं। इनमें सबसे प्रमुख है छठ पूजा, जो सूर्य देव को समर्पित है। यह पर्व विशेष रूप से गंगा, कोसी और अन्य नदियों के तट पर अर्घ्य देकर मनाया जाता है। इसके अलावा सरस्वती पूजा, मकर संक्रांति, रामनवमी और महावीर जयंती जैसे पर्व भी बड़ी श्रद्धा और उल्लास से मनाए जाते हैं।
बिहारी खानपान और परंपरा
बिहार का व्यंजन भी इसकी सांस्कृतिक विविधता को दर्शाता है। लिट्टी-चोखा, सत्तू, ठेकुआ, चना घुघनी, सिला की मिठाइयाँ जैसे व्यंजन न केवल स्वादिष्ट होते हैं, बल्कि पारंपरिक खाद्य संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। सत्तू का उपयोग गर्मियों में शीतल पेय के रूप में किया जाता है, जो बिहार की जलवायु से मेल खाता है।
प्राचीन बिहार की ऐतिहासिक स्रोत
बिहार के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए अनेक साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोत उपलब्ध हैं। इनमें बौद्ध ग्रंथ (विनयपिटक, अंगुत्तर निकाय), जैन ग्रंथ (भगवती सूत्र), वैदिक साहित्य, उपनिषद, पुराण (वायु, ब्राह्मण, मत्स्य), कालिदास का ‘मालविकाग्निमित्रम्’, पाणिनी की अष्टाध्यायी, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, पतंजलि का महाभाष्य, मनुस्मृति और विदेशी यात्रियों के विवरण जैसे ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत शामिल हैं।
इन सभी स्रोतों से बिहार के धर्म, शासन, संस्कृति, सामाजिक जीवन, अर्थव्यवस्था और शिक्षा प्रणाली की विस्तृत जानकारी मिलती है। इनसे यह भी ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक राजधानी के रूप में बिहार का कितना महत्वपूर्ण स्थान था।