घोटाला Exclusive : अफसरों ने भ्रष्टाचार और दुःसाहस की पराकाष्ठा कर डाली….सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के वाहन के पेट्रोल के नाम पर 31 लाख रुपए सरकारी खाते से निकाल लिया, सीएस ने जांच रिपोर्ट में माना, 200 करोड़ की गड़बड़ी हुई….

Update: 2020-01-31 16:10 GMT

NPG.NEWS

बिलासपुर, 31 जनवरी 2020। हाईकोर्ट के जिस फैसले पर महानदी और इंद्रावती भवन याने राज्य का प्रशासनिक मुख्यालय हिल गया है, वह दुस्साहस के साथ गड़बड़ी का ऐसा मामला है कि, नज़दीकी बरसों में शायद ही इसकी कोई मिसाल मिलेगी। समाज कल्याण विभाग के खटराल अफसरों ने सरकारी पैसों पर डाका डालने में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस अल्तमश कबीर को भी नहीं बख्शा। उनके वाहन के व्यय के नाम पर 31 लाख रुपए सरकारी खाते से निकाल लिया। संजीव रेड्डी नाम के एक गुमनाम डाक्टर को एकमुश्त 24 लाख का भुगतान कर डाला। संजीव रेड्डी कौन है, जांच में अफसरों ने चुप्पी साध ली।
तत्कालीन चीफ सिकरेट्री अजय सिंह ने पिछले साल हाईकोर्ट में 500 पन्नों की रिट सौंपी थी। उसमें चीफ सिकरेट्री ने स्वीकार किया है इस मामले में लगभग 200 करोड़ रुपए की गड़बड़ी हुई है। जांच रिपोर्ट में उन्होंने हाईकोर्ट को बताया कि संस्थान में 21 लोगों को अधिकारी, कर्मचारी बताया गया। जबकि, वास्तव में वहां एक कर्मचारी काम करता पाया गया। चीफ सिकरेट्री ने यह भी कहा है कि चार करोड़ रुपए समाज कल्याण के अफसरों ने बिना अनुमोदन लिए प्रायवेट लोगों के खातों में ट्रांसफर कर दिया।
चीफ सिकरेट्री कोर्ट कैसे पहुंचे, इसे भी जरा समझिए। याचिकाकर्ता कुंदन सिंह ने हाईकोर्ट में जस्टिस मनिंद्र मोहन श्रीवास्तव की कोर्ट में रिट लगाई। केस की गंभीरता को देखते जस्टिस श्रीवास्तव ने उसे तत्कालीन चीफ जस्टिस अजय त्रिपाठी को भेज दिया। चीफ जस्टिस और जस्टिस प्रशांत मिश्रा के डबल बेंच ने रिट को पीआईएल में बदलकर चीफ सिकरेट्री से जांच कर रिपोर्ट मांगी। सरकार ने प्रकरण की जांच करने के लिए जीएडी सिकरेट्री डा0 कमलप्रीत सिंह को जांच अधिकारी बनाया। लेकिन, याचिकाकर्ता ने सीएस की बजाए सचिव से जांच करने पर आपत्ति कर दी। इसके बाद हाईकोर्ट सख्त होते हुए कहा कि सीएस जांच करके रिपोर्ट सौंपे। फिर, तत्कालीन सीएस पिछले साल विधानसभा चुनाव के दौरान अक्टूबर में कोर्ट पहुंचे। उन्होंन कोर्ट को बताया कि इस नाम की संस्था का वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है।
ज्ञातव्य है, राज्य श्रोत निःशक्त जन संस्थान दिव्यांगों के कल्याण के लिए बनाया गया एक एनजीओ था। पर दस्तावेज बताते हैं कि, यह काग़ज़ी था, जिसे केंद्र सरकार से सीधे अनुदान मिला। इस पैसे को लूटने में समाज कल्याण विभाग के अफसरों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। कागजों में हर साल एक ही मशीन को हर साल खरीदी गई और इसके एवज में 30 से 35 लाख रुपए निकाले गए। वे कौन सी मशीनें खरीदी गई और कहाँ उपयोग की गई, इसका उल्लेख नहीं मिलता।

याचिकाकर्ता के अधिवक्ता देवर्षी ठाकुर सवाल करते हैं

चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के ट्रेवल चार्ज का भुगतान कोई एनजीओ क्यों करेगा…वह भी ध्यान रखिए यह भुगतान चेक से करना बताया गया.. और यह भी सवाल है कि पेट्रोल ख़र्चा 31 लाख कभी हो सकता है क्या” सीधे तौर पर कहा जा सकता है, अफसरों ने चीफ जस्टिस के नाम पर फ्रॉड किया।
सबसे अहम अभिलेख भी इस फाईल में दिखता है….सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट के निर्देश पर जिन अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर कर जाँच के लिए कहा गया, उनमें समाज कल्याण के एडिशनल डायरेक्टर पंकज वर्मा नाम शामिल है। पिछली सरकार ने पराकाष्ठा करते हुए आरोपी पंकज को ही इस केस का ओएसडी बना दिया। ओएसडी के नाते पंकज वर्मा ने हलफनामा देते हुए जवाब देने के लिए कोर्ट से समय मांगा था। अधिवक्ता देवर्षी ठाकुर का कहना है,
“यह लडाई अभी अंजाम पर नहीं आई है, इस तथ्य के बावजूद कि हमें नसीहत के अंदाज में धमकियाँ मिली हैं, हम डटे हुए हैं और लड़ेंगे।”

कर्मचारी को ही नहीं मालूम था उनकी नियुक्ति हुई है

घोटाले के लिए अफसरों ने अजब-अनूठे तरकीब अपनाये। कमाल की बात ये रही कि जिन्हें संस्था में कार्यरत दिखाया गया और जिनके नाम पर वेतन मद में पैसे का आहरण किया गया, उन्हें खुद भी नहीं पता था कि वो कहां काम कर रहे हैं और उनके नाम पर प्रतिमाह कितने रूपये वेतन का भूगतान लिया रहा है। घोटाले को छुपाने के लिए कर्मचारियों का नकद भुगतान दिखाया गया, जबकि नियम के मुताबिक चेक के जरिये भुगतान किया जाना था।

कर्मचारी ने ही खोली इस घोटाले की पोल

मामले में याचिकाकर्ता कुंदन कुमार ठाकुर का नाम राज्य स्त्रोत निशक्तजन संस्थान के कर्मचारी के रूप में था और महीने उसके नाम से नकद भुगतान होता रहा। कमाल की बात तो ये रही कि खुद कुंदन को ही नहीं मालूम था कि उसकी नियुक्ति किसने की और उसका वेतन कौन निकाल रहा है।

 

संस्था गठन से लेकर कर्मचारी नियुक्ति तक सब था फर्जी

इस संस्था में सब कुछ फर्जी था। ना संस्था था, ना उसका दफ्तर था और ना ही कर्मचारी। जिस संस्था के नाम करोड़ों डकारे गये, वो संस्था थी ही नहीं…कर्मचारी की नियुक्ति के लिए आवेदन भी नहीं मंगाये गये थे, सब कुछ मनमर्जी चल रहा था। वेतन भी मनमाने तरीके से लिख दिये गये, किसी को 40 हजार, तो किसी को 50 हजार।

 

 

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