President Draupadi Murmu Visit in Ratanpur Mahamaya Mandir Bilaspur: PHOTO राजसी श्रृंगार: राष्ट्रपति के लिए मां महामाया का हुआ राजसी श्रृंगार, मंदिर के 1000 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार
बिलासपुर/रतनपुर। छत्तीसगढ़ के दो दिन के दौरे पर आईं राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू आज प्रसिद्ध शक्तिपीठ मां महामाया का दर्शन करने रतनपुर जाएंगी।
मां महामाया का दर्शन करने पहली बार कोई राष्ट्रपति रतनपुर आ रहीं हैं। लिहाजा, महामाया माई का आज राजसी श्रृंगार किया गया है। मां का यह श्रृंगार साल में सिर्फ तीन बार किया जाता है। शरद नवरात्रि, क्वांर नवरात्रि और दिवाली में। सन् 1042 में निर्मित इस मंदिर में इससे पहले आम दिनों में कभी भी राजसी श्रृंगार नहीं हुआ। यह पहला मौका होगा, जब साल में चौथी बार राजसी श्रृंगार किया गया है।
राजसी श्रृंगार से पहले हर बार बैंक के लॉकर से मां के आभूषण लाए जाते हैं और फिर अगले दिन लॉकर में जमा करा दिए जाते हैं। इस बार भी सुरक्षा के साथ कल मां के आभूषण लॉकर से लाए गए।
मंदिर के प्रबंधक पंडित संतोष शर्मा ने एनपीजी न्यूज को बताया कि मंदिर में पूजा पाठ आम दिनों की तरह हो रही है। सिर्फ आज आठ बजे से लेकर राष्ट्रपति के लौटने तक आम लोगों के लिए दर्शन बंद रहेगा। बहरहाल, श्रृंगार की फोटो...
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महामाया मंदिर छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर से करीब 26 किलोमीटर दूर रतनपुर में है। इस मंदिर का निर्माण कल्चुरी वंश के राजा रत्नदेव प्रथम ने कराया था। बताया जाता है कि तुम्मान खोल के राजा रत्नदेव प्रथम शिकार पर निकले थे। शिकार खेलते-खेलते वे रतनपुर पहुंच गए। यह बात सन 1045 के आसपास की बताई जाती है। शिकार की तलाश में निकले राजा को समय का पता ही नहीं चला और रात में उन्हें अभी जहां मंदिर हैं वहीं रुकना पड़ा। वन्यजीवों के भय से राजा वहां एक वट वृक्ष पर चढ़ कर सो गए। रात में अचाकन उनकी आंख खुली तो उसी वट वृक्ष के नीचे तेज प्रकाश देखा। वहां आदि शक्ति महामाया देवी की सभा लगी हुई थी। यह देखकर राजा अपना होश खो बैठे। सुबह पर राजा को होश आया तो राजा अपनी राजधानी लौट गए और वहां जाकर रतनपुर को अपनी नई राजधानी बनाने का फैसला किया।
बताया जाता है कि 1050 के आसपास राजा रत्नदेव ने रतनपुर को अपनी राजधानी बना लिया। वर्तमान में मंदिर परिसर में एक वट का वृक्ष मौजूद है। वहां पर एक कुंड भी है। जनश्रुतियों के अनुसार राजा रत्नदेव ने दूसरा मंदिर बनाकर महामाया माता से वहां चलने की विनती की। उसी रात राजा को एक स्वप्न आया, जिसमें देवी ने उनसे कहा कि मैं तुम्हारे बनवाए मंदिर में अवश्य जाउंगी, लेकिन पहले बलि का प्रबंध करो। बताया जाता है कि देवी ने कहा कि मैं एक पग बढ़ाउंगी तो 1008 बलि देनी होगी। राजा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस प्रकार नए मंदिर में मां महामाया की स्थापना हुई। इसके पहले तक मंदिर में नरबलि होता था। जिसे राजा बहारसाय ने बंद करा दिया। तब से पशु की बलि दी जाने लगी। अब वह भी बंद हो चुका है।
आदिशक्ति मां महामाया देवी मंदिर का निर्माण मंडप नगार शैली में हुआ है। मंदिर 16 स्तंभों पर टिका है। मंदिर के गर्भगृह में मां महामाया की साढ़े 3 फीट ऊंची प्रतिमा है। मां महामाया के पीछे (पृष्ठ भाग) में माता सरस्वती की प्रतिमा होने की बात कही जाती है, लेकिन वह विलुप्त है।जन मान्यताओं के अनुसार यहां माता सती का दाहिना स्कंध गिरा था। हिंदु मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव जब माता सती के मृत शरीर को लेकर तांडव कर करते हुए ब्रम्हांड में भटक रहे थे तब भगवान विष्णु ने शिव को इस वियोग से मुक्त कराने के लिए सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर पर चला दिया था। इससे माता सती के शरीर के अलग-अलग हिस्से विभिन्न स्थानों पर गिरा जिसे अब शिक्त पीठ के रुप में पूजा जाता है।