Kamakhya Devi Temple : माँ के इस अंग की होती है यहाँ पूजा, उन तीन दिनों में पुरुषों का जाना वर्जित, नदी का पानी हो जाता है लाल, जानें 'अंबुवाची' मेले का रहस्य

Kamakhya Temple : पुराणों के अनुसार विष्णु भगवान ने अपने चक्र से माता सती के 52 भाग किए थे, जहां-जहां उनके अंग के भाग गिरे वहां पर माता का एक शक्तिपीठ बनाया गया.

Update: 2025-09-22 09:32 GMT

Kamakhya Devi :  कामाख्या देवी का मंदिर असम के कामरूप जिले के गुवाहाटी शहर की नीलांचल पहाड़ी यानी की कामागिरी पहाड़ी पर स्थित है. यह मंदिर देवी सती का है. यह देवी के 51 शक्तिपीठों में से एक है, जिसे सबसे शक्तिशाली माना जाता है. मान्यता है इस जगह पर ही देवी सती का योनि का भाग गिरा था, जिसके कारण यहां पर योनि की पूजा की जाती है. इस मंदिर में तांत्रिक अपनी सिद्धियों को सिद्ध करने आते हैं।


पौराणिक कथा के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया तो उन्होंने भगवान शिव को छोड़ सभी को आमंत्रित किया। तब देवी सती ने कहा कि पिता ने यज्ञ में नहीं बुलाया तो क्या हुआ। वे अपने पिता के घर बिना बुलाए जा सकती हैं। तब शिवजी ने कहा कि बिना बुलाए कहीं नहीं जाना चाहिए, लेकिन देवी सती हठ कर अपने पिता के घर चली जाती हैं। जहां दक्ष द्वारा शिवजी का अपमान किया जाता है। पति का अपमान सहन न होने पर देवी सती यज्ञ कुंड में कूदकर अपना शरीर त्याग देती हैं। जब यह बात महादेव को पता चलती है तो वे अपने गणों के साथ जाकर यज्ञ का विध्वंस कर देते हैं।


महादेव उनके पार्थिव शरीर को कंधे पर रखकर तांडव करने लगे थे, जिससे संसार में प्रलय की स्थिति बन गई थी। तब संसार को प्रलय से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को कई हिस्सों में काट दिया, जिस जगह भी ये टुकड़े गिरे, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। माता सती के कुल 52 शक्तिपीठ हैं, लेकिन एक शक्तिपीठ पाकिस्तान में स्थित है। भारत में कुल 51 शक्तिपीठ हैं। इन्हीं शक्तिपीठों में एक है कामाख्या देवी. 



कुंड की होती है पूजा,  कुंड देवी सती की योनि का भाग  


51 शक्तिपीठ में से सिर्फ कामाख्या मंदिर को महापीठ का दर्जा हासिल है, लेकिन इस मंदिर में मां दुर्गा और मां जगदंबा का कोई चित्र और मूर्ति नहीं है। भक्त मंदिर में बने एक कुंड पर फूल अर्पित कर पूजा करते हैं। इस कुंड को फूलों से ढककर रखा जाता है क्योंकि कुंड देवी सती की योनि का भाग है, जिसकी पूजा-अर्चना भक्त करते हैं। इस कुंड से हमेशा का पानी का रिसाव होता है। इसी वजह से इसे फूलों से ढ़ककर रखा जाता है।




 नदी का पानी हो जाता है लाल

मान्यता के अनुसार, ब्रह्मपुत्र नदी का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। इसका कारण कामाख्या देवी मां के रजस्वला होने को बताया जाता है। ऐसा हर साल अम्बुवाची मेले के समय ही होता है। इन तीन दिनों में भक्तों का बड़ा सैलाब इस मंदिर में उमड़ता है। भक्तों को प्रसाद के रूप में लाल रंग का सूती कपड़ा भेंट किया जाता है।


3 दिन के लिए पुरुषों का जाना है वर्जित

यहां पर साल में तीन दिन मंदिर बंद रहता है (22 से 25 जून). क्योंकि इन 3 दिनों में माता सती रजस्वला रहती हैं. यही कारण है इस दौरान पुरुषों का मंदिर में जाना वर्जित होता है. ऐसे में तीन दिन के लिए मंदिर में माता के दरबार में सफेद रंग का कपड़ा रखा जाता है, जो 3 दिन में लाल हो जाता है. इस कपड़े को 'अंबुवाची' कहते हैं.





 देवी सती के मासिक धर्म पर विशाल मेला  'अंबुवाची' 

 

आपको बता दें कि जब देवी सती मासिक धर्म में होती हैं, तो यहां पर एक विशाल मेला भी लगता है, जिसे 'अंबुवाची' के नाम से ही जाना जाता है. इस दौरान किसी को भी मंदिर में प्रवेश करने नहीं दिया जाता है.


जानवरों की दी जाती है बलि

यहां पर जानवरों की बलि दी जाती है, लेकिन मादा जानवर की नहीं. दुर्गा पूजा, परोहना बिया, दुर्गा देऊल, बसंती पूजा, मदान देऊल, अम्बुवासी और मनासा पूजा पर इस मंदिर की रौनक और बढ़ जाती है.

क्यों होती है योनि की पूजा

पुराणों के अनुसार विष्णु भगवान ने अपने चक्र से माता सती के 51 भाग किए थे, जहां-जहां उनके अंग के भाग गिरे वहां पर माता का एक शक्तिपीठ बनाया गया. कामाख्या में माता की योनी गिरी थी, इसलिए यहां उनकी कोई मूर्ति नहीं बल्कि योनी की पूजा होती है.

माँ 64 योगनियों और दस महाविद्याओं के साथ विराजित

 

इस शक्तिपीठ में देवी माँ 64 योगनियों और दस महाविद्याओं के साथ विराजित है। भुवनेश्वरी, बगला, छिन्न मस्तिका, काली, तारा, मातंगी, कमला, सरस्वती, धूमावती और भैरवी एक ही स्थान पर विराजमान हैं। यूं तो सभी शक्तिपीठों का अपना महत्व है, पर अन्य सभी में कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वोत्तम माना जाता है। कलिका पुराण के अनुसार इसी स्थान पर कामदेव शिव के त्रिनेत्र से भस्म हुए तथा अपने पूर्व रूप की प्राप्ति का वरदान पाया था। यहां कामनारुपी फल की प्राप्ति होती है।


 




इसलिए जरूरी है भैरव दर्शन

कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है। उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं। यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में टापू पर स्थित है। मान्यता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदा शिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि जाग्रत होने पर शिव ने अपने तीसरे नेत्र से उन्हें भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुनः जीवनदान मिला था, इसलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।


कुछ ऐसा है मंदिर का इतिहास

कामाख्या के बारे में पौराणिक कथा है कि अहंकारी असुर नरकासुर एक दिन माँ भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं एक विश्राम गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छा अनुसार पत्नी बन जाऊंगी और यदि तुम ऐसा न कर पाए तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान सुबह होने से पूर्व पूर्ण कर दिए और विश्राम गृह का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट(मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गई, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा।

मंदिर के बारे में कहा जाता है कि नरकासुर के अत्याचारों से कामाख्या के दर्शन में विघ्न आने लगे। इस बात से क्रोधित होकर महर्षि वशिष्ठ ने इस जगह को श्राप दे दिया, जिससे कामाख्या पीठ लुप्त हो गया। कहा जाता है कि 16 वीं शताब्दी के प्रथमांश में कामरूप प्रदेश के राज्यों में युद्ध होने लगे, जिसमें कूचविहार रियासत के राजा विश्वसिंह जीत गए। युद्ध में विश्वसिंह के भाई खो गए थे और अपने भाई को ढूंढ़ने के लिए वे घूमते-घूमते नीलांचल पर्वत पर पहुंच गए। वहां उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी, उस महिला ने राजा को इस जगह के महत्व के बारे में बताया। यहां राजा द्वारा खुदाई करवाने पर कामदेव द्वारा बनबाया हुआ मूलमंदिर निकला। राजा ने उस मंदिर के ऊपर नया मंदिर बनवाया। कालांतर में विश्वसिंह के पुत्र नर नारायण ने अपने छोटे भाई शुक्ल ध्वज द्वारा 1565 ईo में मंदिर का पुनर्निमाण कराया। इस शक्तिपीठ के दर्शन एवं उपासना से भय, भूत आदि नष्ट हो जाते हैं एवं असीम शक्ति की प्राप्ति होती है।

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