Do you know, how different is "Diwali" of chhattisgarh:कार्तिक अमावस्या को यहां होता है शिव-पार्वती विवाहोत्सव, शेष भारत के दीपोत्सव के अगले दिन छत्तीसगढ़ के गांवों में होता है "देवारी तिहार"

Update: 2022-10-25 09:23 GMT

Do you know, how different is "Diwali" of chhattisgarh रायपुर। छत्तीसगढ़ खास है और एकदम निराले हैं इसके पर्व-त्योहार। कार्तिक मास की अमावस्या को, जब सारा देश माँ लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा कर दीपावली का त्योहार मनाता है, उस दिन छत्तीसगढ़ में होता है मुख्य रूप से शिव-पार्वती का विवाहोत्सव...और इसे कहते हैं सुरहुत्ती। लक्ष्मीपूजन के साथ इस दिन छत्तीसगढ़ के लगभग हर गांव में गौरा-गौरी (शिव-पार्वती) की बारात निकलती है। यह छत्तीसगढ़ लोक की विशिष्टता है।और दूसरे दिन जब शेष भारत गोवर्धन पूजा करता है उस दिन यहां का सबसे बड़ा त्योहार मनता है जिसे कहते हैं देवारी तिहार। यहां इस त्योहार को मनाने का तरीका थोड़ा अलग है। तो आइए जानते हैं कि छत्तीसगढ़ का दीपोत्सव कैसा है।

गौरा-गौरी विवाहोत्सव की तैयारी लक्ष्मीपूजन के 9 दिन पहले ही शुरू हो जाती है। कहीं-कहीं पर इसकी शुरुआत 3 या 4 दिन पहले भी होती है। खासकर छत्तीसगढ़ के मैदान में गोंड एवं कंवर जनजाति द्वारा। वैसे गांव में इन दोनों जनजातियों के अलावा भी जितने समुदाय होते हैं वे सब इसी तरीके से यानि शिव-पार्वती विवाह के रूप में ही त्योहार मनाते हैं। त्योहार की शुरुआत होती है "फूल कूट" या "फूल कुचरना" से।

फूल कूट- 'फूलकूट' यह प्रथम दिवस का विधान होता है। हर गांव में गौरा चौरा के पास महिलाएं (मुख्य रूप से आदिवासी) एकत्रित होकर गड्ढे में तांबे का टुकड़ा, मुर्गी का अंडा और पांच प्रकार के फूल को कूटकर अर्पित करती हैं।तत्पश्चात बोरझरी के कांटे गौरा चौरा को समर्पित किये जाते हैं।महिलाएं टोकरी में फूल लेकर लोकगीत गाती हुई लोकनृत्य करती हैं।इसमें गौरा और गौरी का आह्वान किया जाता है।इस प्रक्रिया को 'फूल कुचरना' कहा जाता है।

चूलमाटी-फूल कूटने की रस्म के बाद लक्ष्मीपूजन के दिन सभी स्त्री-पुरुष गौरा-गौरी की प्रतिमा निर्माण के लिए मिट्टी लाने जाते हैं।गढ़वा बाजा छत्तीसगढ़ की विशेष पहचान है।जब गौरा-गौरी के लिए ग्रामीणजन तालाब या नदी के किनारे समूह में जाते हैं उस समय गढ़वा बाजा की लोकधुन नई स्वरलहरियां बिखेरती है। इस अवसर के लिए छत्तीसगढ़ के वाद्य कलाकारों ने विशेष रूप से गौरा -गौरी पार (लोकधुन) का निर्माण किया है।जिसमें विशेष प्रकार की गति और उत्सवधर्मिता का बोध होता है।गौरी-गौरा निर्माण के लिए डिलवा (ऊंचे स्थान) से मिट्टी लाने का रिवाज है।यह ऊंचा स्थान शिव के निवास कैलाश पर्वत का प्रतीक है। मिट्टी निकालने या कोड़ने के दौरान विभिन्न लोकरस्म अदा की जाती है।कोड़ी गई मिट्टी को कुंवारी मिट्टी कहा जाता है।कुंवारी मिट्टी के गौरा वाले भाग को नई डलिया में डालकर कुंवारा लड़का उठाता है और गौरी वाले भाग को कुंवारी लड़की।

गौरी-गौरा की प्रतिमा को मूल रूप से लाई गई कुंवारी मिट्टी से बनाया जाता है। सजावट के लिए इस समय खेतों में मौजूद धान की बालियां, मेमरी, सिलयारी आदि प्राकृतिक वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है।साथ ही अब गौरी-गौरा को रंगबिरंगे कागजों (सनपना) और अन्य साधनों से भी सजाया जाता है। फिर गौरी को कछुएं पर और गौरा को बैल (नन्दी बैल) की सवारी में बैठाया जाता है।इस प्रकार धूमधाम से गौरा-गौरी को विवाह के लिए तैयार किया जाता है।

इस दौरान "सुआ गीत" गाने का भी प्रचलन है। महिलाओं इस दौरान इस सुआ गीत गाकर सुवा नृत्य करती हैं। कुछ जगहों पर मिट्टी के सुआ (तोते ) बनाकर यह गीत गाया जाता है और उसके चारों ओर गोल घूमते हुए सुआ नृत्य किया जाता है। यह दिपाली के कुछ दिन पूर्व शुऱू होकर देव उठनी एकादशी तक भी होता रहता है। यह श्रंगार प्रधान गीत है। जिसके माध्यम से महिलाएं अपने दिल की बात कहती हैं।

जब गौरी-गौरा की प्रतिमा बनकर तैयार हो जाती है तब गढ़वा बाजा में गौरी-गौरा पार (धुन) बजाते हुए गौरा-गौरा के स्वागत के लिए कलश निकालने हेतु पूरे गांव के लोगों और देवी देवताओं को निमंत्रण दिया जाता है। देवताओं को आमंत्रित करते समय महिलाएं एक गीत गाती हैं, जिसकी प्रथम पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं-

जोहार जोहार मोर ठाकुर देवता हो

सेवा रे लागौं मॅंय तोर…

ठाकुर देवता के मड़वा छवइले हो

झुले ओ परेवना के हंसा…

आमंत्रण के बाद समस्त ग्रामवासी शिव (गौरा) जी की बारात में शामिल होने हेतु प्रतिमा निर्माण स्थल में आते हैं। कुंवारी लड़की गौरी को सिर में उठाती है और कुंवारा लड़का गौरा को।और फिर बारात निकल पड़ती है। शिव-पार्वती की बारात का स्वागत छत्तीसगढ़ के लोकजन अनूठे रूप में करते हैं।सर्वप्रथम गौरा गौरी धुन में सब मग्न होकर नाचते हैं। कुछ महिलाओं पर "भाव" आता है जिसे 'देवी चढ़ना' या काछन चढ़ना कहते हैं। बैगा अपने हाथ में सांट लेकर चलते हैं। जिनपर देवता का भाव 'काछन' चढ़ता है उन्हें मनाने के लिये उनके हाथ पर बैगा सांट से मारते हैं। जिन महिलाओं पर देवी आती है उन्हें शाँत करने या मनाने के लिये उनके हाथों से देवी पूजन कराया जाता है जिसके पश्चात् ही वे महिलाएँ शाँत होती हैं।

महिलाएं इस मौके पर गौरा गीत गाती हैं तथा पुरुष मांदर, दफड़ा, गुदुम, झांझ, मंजीरा आदि पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हुए उनका साथ देते हैं तथा ब्याह के निश्चित स्थान पर जाकर उन प्रतिमाओं को स्थापित कर देते हैं और विवाह की रस्में निभाते हैं। अगले दिन पूजा-हवन इत्यादि के पश्चात् गाते-बजाते ग्रामवासी स्थानीय तालाब या नदी में इन मूर्तियों का विसर्जन कर देवताओं से गाँव और अपने परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं।इस दौरान देवालय, अपने घर पर, पड़ोस के तुलसी चौरा और जानवरों के रहने के स्थान पर भी दीप जलाए जाते हैं।

* देवारी तिहार- कार्तिक अमावस्या के दूसरे दिन यानि गोवर्धन पूजा के दिन गौरा-गौरी की विदाई के पश्चात् गोवर्धन पूजा की तैयारी की जाती है। इसे 'देवारी तिहार' कहा जाता है। गोवर्धन पूजा में गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत तथा गोवर्धन भगवान की स्थापना की जाती है। जिसे विभिन्न प्रकार के फूल और पत्तियों से सजाया जाता है। भगवान के साथ सभी अपने गायों और अन्य जानवरो की पूजा भी करते हैं तथा विशेष पकवान और कई प्रकार की सब्जियों से बना भोग जो एक तरह की "खिचड़ी" है, भगवान और गायों को खिलाया जाता है। लोग स्वयं भी इसे खाते हैं। खिचड़ी में नए चावल का भात, सोहारी रोटी (नए चावल की), उड़द का बड़ा, कोचई (अरबी) और मखना (कद्दू) की सब्जी और उड़द की दाल अनिवार्य हैं। एक तरह से यह ईश्वर के साथ पशुधन के प्रति सम्मान प्रदर्शन का दिन है। यह पूजा गोधन की समृद्धि की कामना में की जाती है। इस दिन गौमाता को "सोहाई" बांधने की परंपरा छत्तीसगढ़ में पुरातन काल से चली आ रही है। साल भर पंचगव्य प्रदान करने वाली गौमाता को सम्मान स्वरूप सोहाई बांधा जाता है। जिस प्रकार किसी का सम्मान हार पहनाकर किया जाता है वही भावना सोहाई बांधने की परंपरा में भी निहित है। इस दिन पालतू पशु अपने पैरों से गोबर से बने पहाड़ को रोंदते या खुंदाई करते हैं। और जिस तरह से उनके पैर चलते हैं यानि दाएं-बाएं, ऊपर - नीचे, उसे देख गांव के सयाने लोग अनुमान लगाते हैं कि अगले साल फसल कैसी होगी और बारिश कैसी होगी।

* मातर लोकपर्व- गोवर्द्धन पूजा के बाद का दिन छत्तीसगढ़ में मातर लोकपर्व के रूप में मनाया जाता है। यह लोक पर्व यहां के मूल गोपालक समुदाय राउत जाति की अगुवाई में होता है।

रंग-बिरंगे परिधान में सजे राऊत के इस पर्व में पूरा गांव शामिल होता है। मातर लोक उत्सव के कार्यक्रम स्थल पर पूरा गांव एकत्रित होता है।इस कार्यक्रम स्थल पर लोक देव के रूप में 'खुड़हर' स्थापित किया जाता है।'खुड़हर' लकड़ी से बनाया जाता है जिसपर हल्की नक्काशी होती है। यह 'खुड़हर' लोक देव का प्रतीक है. इस लोकदेव में ही मातर का भाव समाहित है। मातर का अर्थ होता है लोकमाता के प्रति समर्पण।

तो ऐसी होती है छत्तीसगढ़ की दीवाली। छत्तीसगढ़ के आदिवासी सामान्यतः शिवजी को अपना आदिदेव मानते हैं। उनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं। इसके अलावा लोकमाता, पशुधन, गोबर धन जो उनकी जीविका का आधार हैं, सबके प्रति सम्मान वे अपने इस त्योहार के दौरान प्रदर्शित करते हैं।

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