Chattisgarh me Dewari Tihar : छत्तीसगढ़ में दीपावली मतलब सुरहुत्ती, गौरी-गौरा पूजा और मातर... सुआ नाच से पर्व का स्वागत और राउत नाचा से मिलता है आशीर्वाद
Diwali in Chhattisgarh : दीपावली को गौरी-गौरा पूजा, मातर और सुरहुत्ती जैसे नाम से मनाई जाती है. यहाँ दीपावली पर्व के साथ-साथ गौरी-गौरा पूजा और भाईदूज के दिन मातर का भी उतना ही महत्व है
Dipawali IN Chattisgarh : दीपावली त्यौहार को लेकर हर राज्य में अलग-अलग परम्परा है. छत्तीसगढ़ में दीपावली की अपनी एक अलग ही परम्परा है. यहाँ दीपावली को गौरी-गौरा पूजा, मातर और सुरहुत्ती जैसे नाम और परम्पराओं से मनाई जाती है. यहाँ दीपावली पर्व में लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ गौरी-गौरा पूजा और भाईदूज के दिन मातर का भी उतना ही महत्व है. दीपावली पर्व के कुछ दिन पहले से ही ग्रामीण महिलाओं और युवतियों द्वारा सुआ नाच किया जाता है. साथ ही यादव समाज द्वारा दीपाव्ली पर्व में गोवर्धन पूजा और मातर के दिन राउत नाच किया जाता है.
दीपावली पर्व पर छत्तीसगढ़ में मनाई जाने वाली भगवान गौरा-गौरी की पूजा विधिवत की जाती है। इस बीच दीपावली के एक सप्ताह पहले ही मटिया स्थित गौरा चौरा में भगवान गौरी-गौरा की स्थापना के लिए फूल कूटने की परंपरा से शुरुआत की गई।
गोड़ जाति की महिलाएं गौरा चौरा में एकत्रित होकर गाजे बाजे व गीत के साथ फूल कूटने की परंपरा से शुरुआत करती है। इस दिन के बाद से दिवाली तक प्रतिदिन शाम को पूजा की जाती है, जिसमें पूरा मोहल्ले और गांवों का सहयोग रहता हैं।
भगवान गौरी-गौरा की स्थापना के लिए एक सप्ताह पहले फूल कूटने की परंपरा से इसकी शुरुआत होती है। इसके लिए भगवान के स्थल से मिट्टी लेने के लिए बाजे गाजे के साथ मंदिर जाते हैं। वहां से मिट्टी और फूल लेकर आते हैं। मिट्टी और फूल को कूटकर भगवान गौरी-गौरा की मूर्ति बनाई जाती है।
इस दिन रात में परघाते हैं करसा
दीपावली की रात को लक्ष्मी पूजा के बाद गौरा-गौरी की मूर्ति बनाई जाती है। इसे कुंवारी लड़कियां सिर पर कलश सहित रखकर मोहल्ले-गांव का भ्रमण करती हैं। टोकरीनुमा कलश में दूध में उबाले गए चावल के आटा से बना प्रसाद रखा जाता है। जिसे दूधफरा कहा जाता है।इसमें घी-तेल का उपयोग नहीं किया जाता है। यही पकवान गौरा-गौरी को भोग लगाया जाता है। जिसे दूसरे दिन सभी लोग ग्रहण करते हैं। सबसे खास बात यह है कि लक्ष्मी पूजा के दिन दोपहर में गांव के तालाब से मिट्टी लाया जाता हैं, उक्त मिट्टी से अलग-अलग स्थानों में गौरा गौरी की मूर्ति बनाई जाती हैं, जिसके बाद विवाह की तैयारी की जाती हैं।
गौरा की ओर से गौरी के घर बारात लेकर आते हैं
गौरा की ओर से ग्रामीण गौरी के घर बारात लेकर आते हैं, वही गौरी के तरफ से ग्रामीण बारात का स्वागत करते हैं जिसके बाद शादी की पूरी रस्में इसी रात में पूरी की जाती है और गौरा गौरी को गौरा चौरा में रखा जाता हैं। जिसका गोवर्धन पूजा के दिन सुबह विधि विधान के साथ तालाब में विसर्जित किया जाता है। यह छत्तीसगढ़ के बैगा आदिवासी जनजातियों गोड़ जाति के लिए सबसे प्रमुख है।
गौरी-गौरा को चौरा पर लाकर स्थापना
विधिवत गौरी गौरा के चौरा पर लाकर उसकी स्थापना की जाती है। भगवान शंकर और माता पार्वती के विवाह के साथ रात भर इसकी सेवा की जाती है। सुबह पारंपरिक रूप से इसे गांव में घुमाया जाता है। जहां पर लोग जगह-जगह भगवान की पूजा अर्चना करते हैं। इसके अलावा शोटा भी लिया जाता है तत्पश्चात इसे तालाब में ले जाकर विसर्जन किया जाता है।
हाथों पर सोंटा खाने की मान्यता
गौरा-गौरी पूजा मनाने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। गोवर्धन पूजा और गौरा-गौरी पूजा के अवसर पर अपने हाथों पर सोटा खाने की मान्यता है। ऐसी मान्यता है कि सोंटा से मार खाने के बाद सभी तरह के दुख और परेशानियां दूर हो जाती है।
दिवाली के दिन मनती है देवारी
दिवाली के दिन छत्तीसगढ़ में देवारी मनाया जाता है. प्रदेश में लोग अपने घरों आंगन में धनतेरस के दिन से दिवाली पर्व मनाने की शुरूआत करते हैं. उसके बाद से दिवाली का आगमन हो जाता है. नरक चौदस यानि की छोटी दिवाली मनाई जाती है. उसके बाद दिवाली का पर्व मनाया जाता है. दीपावली के दिन देवारी यानि की दियारी नाम का पर्व मनाया जाता है. इस गांव में नई फसलों की पूजा होती है. इसके साथ ही मवेशियों की भी पूजा की जाती है. छत्तीसगढ़ के रीति रिवाजों के जानकारों के मुताबिक इस दिन फसलों की शादी भी कराई जाती है.
दिवाली पर सुरहुत्ती पर्व मनाने की परंपरा
छत्तीसगढ़ में दिवाली पर सुरहुत्ती यानि की लक्ष्मी पूजा मनाई जाती है. इस दिन दीयों को पानी से धोया जाता है और उसके बाद दीपोत्सव की तैयारी की जाती है. दीपावली की शाम सबसे पहले तुलसी चौरा से दीये जलाने की परंपरा की शुरुआत होती है. उसके बाद पूरे घर में दिया जलाया जाता है. गांवों में दीप जलाने के बाद सुरहुत्ती यानि की लक्ष्मी पूजा की जाती है. इसके बाद घर में धूमधाम से दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है. परिवार के सभी लोग लक्ष्मी जी की मूर्ति के सामने आरती करते हैं. पशुधन और अन्न की भी पूजा इस दौरान की जाती है.
छत्तीसगढ़ में मातर
छत्तीसगढ़ में मातर मनाने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है. गोवर्धन पूजा के बाद के दिन मातर का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इस पर्व में गाय की पूजा की जाती है. छत्तीसगढ़ में यह पर्व मुख्य रूप से यदुवंशी (राउत, ठेठवार, पहटिया) समाज के लोगों की ओर से यह पर्व बड़े मनाया जाता है.
राउत नाचा यादव समुदाय का नृत्य है. यह दीपावली के अवसर पर किया जाने वाला एक परंपरागत नृत्य है. इस नृत्य में लोग विशेष वेशभूषा पहनकर हाथ में सजी हुई लकड़ी लेकर टोली में गाते और नाचते हुए निकलते हैं. गांव में प्रत्येक घरों में जाकर दोहा लगाकर सुख-समृद्धि की आशीर्वाद देते हैं.
राउत नाच के कपड़े, आभूषण बहुत ही आकर्षक होते हैं. एक-एक चीज का अपना अलग-अलग महत्व होता है. इस नृत्य में रेशमी सूती कारीगरी से युक्त रंगीन कुर्ता व जैकेट तथा घुटनों तक कसी हुई धोती धारण करते हैं. राउत नर्तक घासीराम यादव बताते हैं कि हाथ जो धारण किए हुए हैं उसे फुलैता कहते हैं. शरीर में जो लगाए हैं उसे साजु कहते हैं.
इसके साथ ही मोर लगाने की परंपरा को भगवान श्रीकृष्ण के मुकुट से जोड़कर देखते हैं. उनका मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण यदुवंशी कुल में जन्म लिए हैं, ऐसे में राउत नृत्य के दौरान हर नर्तक के सिर पर मोर पंख लगाने की परंपरा है. वहीं, जूता के साथ ही मोजा पहनने की भी परम्परा है. बिना मोजों के जूते का वेशभूषा (Costumes) अधूरा माना जाता है.
इस नृत्य में नरता पैरों में जूते कमर में करधन गले में तिलरी सुतरी, मुंह पीले रंग से पुता हुआ, आंखों में रंगीन चश्मा, सिर पर कागज से बना हुआ गजरा, दाएं हाथ में लाठी, बाएं हाथ में ढाल संभाले हुए हैं. वहीं, पैर पर घुंगरू पहने होते हैं. इसके साथ ही उनके जैकेट के ऊपर कौड़ियों की माला गले से कमर तक धारण किए होते हैं. जिसकी वजह से अत्यधिक आकर्षण का केंद्र (center of attraction) होते हैं.