Dev Dussehra in Gariaband : यहाँ लंकेश्वरी देवी की परिक्रमा के बाद होता है रावण दहन, जानिए कौन है लंकेश्वरी देवी और उनके रहस्य और पौराणिकता

करीब 200 से ज्यादा सालों से ये इस परंपरा का पालन होता चला आ रहा है.

Update: 2025-10-02 08:30 GMT

Dev Dussehra in Gariaband : छत्तीसगढ़ में एक इलाके में विजयादशमी को देव दशहरा के नाम से जाना जाता है. यहाँ विजयादशमी का त्यौहार सबसे अलग अंदाज में मनाया जाता है. यहां विजयादशमी पर अनूठी परंपरा निभाई जाती है. स्थानीय निवासियों के अनुसार परंपरा के मुताबिक मां लंकेश्वरी देवी रावण के पुतले की परिक्रमा करती हैं. लंकेश्वरी देवी की परिक्रमा जब पूरी हो जाती है, तब रावण के पुतले को दहन किया जाता है. इस पूरी परम्परा को देव दशहरा के नाम से जाना जाता है.    


स्थानीय लोगों की मानें तो उनके पूर्वजों के समय से इस तरह की अनोखी परंपरा निभाई जा रही है.  करीब 200 से ज्यादा सालों से ये इस परंपरा का पालन होता चला आ रहा है. गरियाबंद निवासी प्रतिमा तिवारी के अनुसार मां लंकेश्वरी देवी का मंदिर देवभोग के कडाडोंगर नाम की जगह पर है. यह पहाड़ों पर स्थित है. इस मंदिर का रास्ता काफी दुर्गम है. यहाँ सीढ़िया नहीं होने के करना पहाड़ों से होकर जाना होता है.  यहां पर देवी दुर्गा और मां काली के ही रुप में स्थित हैं. इनको लंकेश्वरी के रुप में भी पूजा जाता है. यहाँ साल में दशहरा में ही खास पूजा होती है. 




 84 गांवों के ग्राम देवता शामिल 


ऐसी मान्यता है कि लंकेश्वरी देवी की पहली मूर्ति करीब 16वीं शताब्दी में कलिंग के राजा द्वारा भारत लाई गई. इस मूर्ति को मां दुर्गा और मां काली के रुप में भी पूजा जाता है. ऐसा माना जाता है कि तत्कालीन जमींदार नागेंद्र शाह के पूर्वजों ने इस परंपरा की शुरुआत गरियाबंद जिले में की. पहले इस आयोजन में 84 गांवों के ग्राम देवता शामिल होते थे. कहा जाता है कि तब केवल जमींदारों द्वारा पूजित देवी देवता ही इसमें शामिल किए जाते थे.

देवी के आशीर्वाद से इलाके में सुख और समृद्धि

स्थानीय निवासी वेदराम साहू के अनुसार लंकेश्वरी देवी से जुड़ी यह पुरातन परंपरा है जिसे वर्तमान में भी आदिवासी समाज और देवभोग क्षेत्र के लोग मानते आ रहे हैं. इस परंपरा को देखने के लिए हर साल हजारों लोग पहुंचते हैं. मान्यता है कि देवी के आशीर्वाद से इलाके में सुख और समृद्धि बनी रहती है. परंपरा के दौरान बरही स्थित मंदिर से देवी मां को निकालर उनकी परिक्रमा कराई जाती है. परिक्रमा पूरी होने के बाद ही रावण का दहन होता है.

परिक्रमा के बाद ईष्ट देव 'कंचना ध्रुवा' अपनी पताका से पुतले को मारते हैं




एक स्थानीय निवासी पंकज निषाद के अनुसार विजयादशमी के दिन आसपास के गांवों के ग्राम देवता अपनी पताका के साथ देवभोग के गांधी चौक पहुंचते हैं. मां लंकेश्वरी देवी के नेतृत्व में रावण के विशालकाय पुतले की परिक्रमा होती है. परिक्रमा के बाद, जमींदारों के ईष्ट देव 'कंचना ध्रुवा' अपनी पताका से पुतले को मारते हैं, फिर रावण दहन किया जाता है. रावण दहन को देखने के लिए न सिर्फ जिले के लोग आते हैं बल्कि दूसरे जिले से भी लोग बड़ी संख्या में इस अनोखी परंपरा के साक्षी बनने के लिए पहुंचते हैं.


देव दशहरा वीडियो यहाँ देखें 




क्या है मंदिर का इतिहास


कहा जाता है कि 1914 में जमींदारों द्वारा बरही में लंकेश्वरी देवी की मूर्ति स्थापित की गई. इस मंदिर में बलि की प्रथा थी और आम लोगों का प्रवेश वर्जित था.

विजयादशमी के दिन खुलता है देवभोग मंदिर


1987 में गांधी चौक पर मंदिर बनाया गया. यह मंदिर केवल विजयादशमी के दिन खुलता है, हालांकि हर मंगलवार को बंद पट के बाहर पूजा होती है.

कहां है जूनागढ़ मंदिर


गरियाबंद देवभोग से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर जूनागढ़ मंदिर है. यहां भी लंकेश्वरी देवी का मंदिर स्थापित है.

देवभोग मंदिर की स्थापना 


ऐसा माना जाता है कि 1955 में नारायण अवस्थी द्वारा खरीदी गई जमीन पर मंदिर निर्माण की प्रेरणा भगवती देवी अवस्थी को सपने से मिली. 1987 में नींव खोदने पर पहले से बना ढांचा मिला, जिस पर मंदिर आगे चलकर बनाया गया.

देव दशहरा के रहस्य 



  • रावण वध की सूचना पर आसपास के गांवों की ग्राम देवियां पताका लेकर पहुंचती हैं.
  • गांधी चौक पर बने लंकेश्वरी देवी के मंदिर को लेकर लोगों में बड़ी आस्था है.
  • यहां निभाई जाने वाली परंपरा मध्यकालीन कलिंग क्षेत्र, नागवंशी राजाओं, और ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव को दर्शाती है.


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