Chaitra Navratri 2024 : धमतरी जिले में विराजी है बिलई माता व माँ अंगारमोती, आइये जानें इनकी महिमा
हम आज आपको लेकर चलते हैं धमतरी जिले में विराजित माँ बिलई व अंगारमोती के दर्शन को. आइये जानें तो फिर क्या है इनकी महत्ता, प्राचीनता और किवदंतिया.
चैत्र नवरात्रि पर्व का आज दूसरा दिन है. आज का दिन माँ ब्रम्ह्चारिणी को समर्पित होता है. हम नवरात्रि के पावन अवसर पर आपको छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध शक्तिपीठों से रुबरु करा रहे हैं.
इसी कड़ी में हम आज आपको लेकर चलते हैं धमतरी जिले में विराजित माँ बिलई व अंगारमोती के दर्शन को. आइये जानें तो फिर क्या है इनकी महत्ता, प्राचीनता और किवदंतिया.
काली बिल्लियाँ देखी गई तथा मूर्ति भी काली इसलिए कहलाई बिलई माता
धमतरी में बिलई माता मंदिर छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में नए बस स्टैंड से 2 किलोमीटर दूर माता विंध्यवासिनी देवी को समर्पित एक मंदिर है। इसे स्वयं-भू विंध्यवासिनी माता कहते हैं स्थानीय लोगों की मान्यता है की मंदिर में स्थित मूर्ति धरती चीरकर निकली है जो अभी भी लगातार ऊपर की ओर आ रही है। इस मंदिर को राज्य के पाँच शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मंदिर की दीवारों पर की गई नक्काशी पहले के समय की स्थापत्य कला को दर्शाती है. बिलई माता (विंध्यवासिनी मंदिर) में 70 साल पूर्व तक नवरात्र पर पूर्णाहुति के बाद 108 बकरों की बलि दी जाती थी। यह बलि राजा नरहर देव के समय से दी जा रही थी। 400 वर्ष पूर्व यहां उत्तरप्रदेश के पुजारी खिलौना महाराज, डोमार महाराज को पूजा की जिम्मेदारी दी गई। समय बीतने के साथ-साथ कई बार लोगों ने इस प्रथा का विरोध किया।
अंतत: 1938 के आसपास पुजारी परिवार ने श्रद्धालुओं के सहयोग से इस प्रथा को बंद कराया। अब माता को बकरे की जगह एक जोड़ी रखिया ( कच्चा कद्दू) अर्पित किया जाता है। प्रथा को लेकर भ्रांतियां भी थीं कि बली प्रथा बंद होगी, तो कुछ विघ्न बाधा न आ जाए, पर ऐसा नहीं हुआ।
इनकी उत्पत्ति के संबंध में मार्कण्डेय पुराण देवीमाहा 11/42 में उल्लेख है। मंदिर के संदर्भ में दो जनश्रुति प्रचलित है। पहली जनश्रुति के अनुसार मूर्ति की उत्पत्ति या तो धमतरी के गोड़ नरेश धुरूवा के काल की है। या तो कांकेर नरेश के शासनकाल में उनके मांडलिक के समय की है। आज जहां देवी का मंदिर है, वहां कभी घना जंगल था। जंगल भ्रमण के दौरान एक स्थान के आगे राजा के घा़ेडों ने बढ़ना छोड़ दिया। खोजबीन करने पर राजा को एक छोटे पत्थर के दोनों तरफ जंगली बिल्लियां बैठी हुई दिखाई पड़ी, जो अत्यंत डरावनी थीं।
राजा के आदेश पर तत्काल बिल्लियों को भगाकर पत्थर को निकालने का प्रयास किया गया, लेकिन पत्थर के बाहर आने की बजाय वहां से जल धारा फूट पड़ी। राजा को स्वप्न में देवी ने कहा किउन्हें वहां से निकालने का प्रयास व्यर्थ है। अतः उसी स्थान पर पूजा अर्चना की जाए। राजा ने दूसरे दिन ही वहीं पर देवी की स्थापना करवा दी।
कालांतर में इसे मंदिर का स्वरूप प्रदान कर दरवाजा बनाया गया। प्रतिष्ठा के बाद देवी की मूर्ति स्वयं ऊपर उठी और आज की स्थिति में आई। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी देखने को मिलता है। पहले निर्मित द्वार से सीधे देवी के दर्शन होते थे। उस समय मूर्ति पूर्ण रूप से बाहर नहीं आई थी, किंतु जब पूर्ण रूप से मूर्ति बाहर आई तो चेहरा द्वार के बिल्कुल सामने नहीं आ पाया, थोड़ा तिरछा रह गया। मूर्ति का पाषाण एकदम काला था।
माता आज भी खुले स्थान पर विराजित हैं
अंगारमोती माता Angarmoti Mata Mandir को महानदी के निकट विशाल चबूतरे में प्राण-प्रतिष्ठा किया गया हैं। राजधानी रायपुर से धमतरी शहर 80 किमी की दूरी में स्थित हैं। तत्पश्चात 12 किमी की खूबसूरत सफर करते हुए आप आसानी से यहाँ पहुँच सकते हैं। दंडकारण्य का प्रवेश द्वार एवं वन देवी होने के कारण माता जी का मंदिर निर्माण नहीं कराया गया हैं, माता आज भी खुले स्थान पर विराजित हैं। 400 वर्षों से कश्यप वंश के नेताम परिवार के लोग ही माताजी की पूजा-अर्चना करते आये हैं।
कहा जाता हैं अंगारमोती माता और विन्ध्यासिनी माता (बिलई माता) दोनों सगी बहनें हैं। वे दोनों ऋषि अंगिरा की पुत्री हैं। जिनका आश्रम सिहावा के पास घठुला में स्थित हैं। महानदी के उत्तर दिशा में धमतरी शहर की ओर माता विंध्यासिनी एवं महानदी के दक्षिण दिशा की ओर अंगारमोती माता मंदिर स्थित हैं।
यहाँ देवी माँ को बलि देने की प्रथा हैं, जो आज भी प्रचलित हैं। जिससे की श्रद्धालुओं की सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती हैं। सप्ताह के प्रत्येक शुक्रवार को बलि देने वालों का ताँता लगा रहता हैं।