CG में दल'ब'दल : छत्तीसगढ़ में दलबदल का इतिहास पुराना पर भविष्य खराब, कुछ नेता पार्टी में लौटे तो कुछ राजनीति से ही गायब

कद्दावर आदिवासी नेता नंदकुमार साय के कांग्रेस प्रवेश के बाद एक बार फिर दलबदल के इतिहास-भूगोल पर बहस होने लगी है.

Update: 2023-05-04 12:46 GMT

रायपुर. राजनीति की पढ़ाई में दो शब्द आते हैं – राजनीति शास्त्र और राजनीति विज्ञान. फिलहाल हम इन दोनों की पढ़ाई या परिभाषा में नहीं जा रहे. हम तो राजनीति के मौसम विज्ञान की बात कर रहे हैं. मौसम में बदलाव तो आप देख ही रहे हैं. उसी तरह राजनीति के मौसम में भी एक बदलाव हुआ है, जिसकी चर्चा छत्तीसगढ़ में जोरों पर है. यह चर्चा है नंदकुमार साय के भाजपा छोड़कर कांग्रेस जाने की. छत्तीसगढ़ की राजनीति में साय कद्दावर नेता हैं. तीन बार विधायक, तीन बार सांसद, दो बार राज्यसभा के सांसद और अनुसूचित जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं. अविभाजित मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ बनने के बाद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं. इसके अलावा कई और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं.

साय लंबे समय से भाजपा में उपेक्षित थे, यह उनका आरोप है. हालांकि भाजपा का कहना है कि कौन सी ऐसी जिम्मेदारी है, जो उन्हें पार्टी ने नहीं दी. इसके बाद उपेक्षा का आरोप गलत है. यहां मौसम विज्ञान की बात करें तो साय 77 साल के हो चुके हैं. भाजपा नए चेहरों को मौका देने पर गंभीरता से विचार कर रही है. इसमें 70 प्लस को चुनाव नहीं लड़ाने की भी बात शामिल है. ऐसे में भाजपा में उन्हें और मौका मिलने की उम्मीद कम ही थी, इसलिए वे कांग्रेस चले गए. वे खुद भी चुनाव लड़ना चाहते हैं. वैसे, लोगों में इस बात की भी चर्चा है कि वे अपने बेटे के लिए टिकट मांग सकते हैं. खैर, साय के कांग्रेस जॉइन करने के बहाने एक बार फिर छत्तीसगढ़ में दलबदल करने वाले नेताओं के भविष्य को लेकर बहस छिड़ गई है. विद्याचरण शुक्ल से लेकर अरविंद नेताम और दर्जनभर वे विधायक भी जो जोगी शासन में भाजपा से कांग्रेस में गए थे. पहले शुरुआत शुक्ल से...

सबसे ज्यादा दलबदल करने वाले विद्याचरण शुक्ल

विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के ऐसे नेता हैं, जो राजनीति के शिखर पर भी रहे और दलबदल के कारण किनारे भी कर दिए गए. इंदिरा गांधी के शासन काल में उन्हें नंबर-2 माना जाता था. उनके रहन-सहन और शैली को लेकर कई किस्से हैं, लेकिन आज बात करेंगे दल बदलने पर. विद्याचरण शुक्ल, जिन्हें उनके समर्थक विद्या भैया कहकर बुलाते थे, सबसे पहले कांग्रेस छोड़कर जन मोर्चा में गए. जनमोर्चा से जनता दल, फिर कांग्रेस में वापसी की. इसके बाद जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब सीएम नहीं बनाए जाने से दुखी होकर एनसीपी का गठन किया. इसके बाद भाजपा में गए और अंत में कांग्रेस लौट आए. 2 अगस्त 1929 को उनका जन्म हुआ था. 11 जून 2013 को उनका निधन हो गया. झीरम घाटी कांड में उन्हें गोली लगी थी.

इंदिरा गांधी से भी लड़-भिड़ जाते थे अरविंद नेताम

आदिवासी नेताओं में अरविंद नेताम भी कद्दावर रहे. इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में मंत्री रहे. ऐसे मंत्री जो इंदिरा जी से भी बस्तर के मुद्दों पर लड़-भिड़ जाते थे. इंदिरा गांधी उन्हें सुनती भी थीं और उनकी बातों को मानती भी थीं. इतना होने के बाद भी नेताम कभी खुद पार्टी छोड़कर गए तो कभी उन्हें निकाल दिया गया. हाल ही में कांग्रेस के राष्ट्रीय महाधिवेशन के दौरान उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था. नेताम ने 1998 में कांग्रेस छोड़कर बसपा जॉइन किया. फिर 2002 में एनसीपी चले गए. इसके बाद 2007 में लौटे, लेकिन पहले जैसा मान सम्मान नहीं रहा. राष्ट्रपति चुनाव में पीए संगमा का समर्थन किया, जिसके कारण पार्टी से निकाले गए. 2012 में संगमा की पार्टी एनपीपी में गए. इसके बाद कांग्रेस में वापसी की.  इस बीच में कुछ दिन भाजपा में ही रहे. हालांकि उनकी राजनीति हाशिये पर ही रही, जबकि सामाजिक स्तर पर उनका प्रभाव है.

संत और कवि पवन दीवान की दलबदल से बिगड़ी छवि

छत्तीसगढ़ के नामी संत और कवि पवन दीवान भी ऐसे नाम हैं, जो अपने ज्ञान के साथ-साथ दलबदल के लिए भी चर्चित रहे. वे 1977 में जनता पार्टी से विधायक बने और मंत्री भी बनाए गए. 1980 में वे जनता पार्टी से अलग हो गए और खुद की छत्तीसगढ़ पार्टी का गठन किया. मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार थी, तब वे कांग्रेस में चले गए थे. बाद में सांसद भी बने. 2008 के विधानसभा चुनाव से पहले वे भाजपा में चले गए. 2012 में कांग्रेस में लौटे, लेकिन बाद में फिर भाजपा में चले गए.

भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के बाद प्रदेश उपाध्यक्ष बनी करुणा

दलबदल करने वालों में एक और नाम उल्लेखनीय है. भारत रत्न अटलबिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला भाजपा से दो बार विधायक और एक बार सांसद रहीं. भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष और भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बनीं. 2013 में कांग्रेस जॉइन कर लिया था. इसके बाद 2014 में कांग्रेस ने उन्हें बिलासपुर से लोकसभा की टिकट दी. वहां हार हुई. इसके बाद 2018 में राजनांदगांव से डॉ. रमन सिंह के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ीं. इस बार भी हार का मुंह देखना पड़ा था. करुणा शुक्ला से जुड़े भाजपा के नेता याद करते हैं कि कभी उन्होंने अपनी करीबी हेमलता चंद्राकर के लिए एक फोन किया था और उन्हें समाज कल्याण बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया गया था. हालांकि वे खुद उस कुर्सी पर नहीं बैठ पाईं.

सीपीआई से लौटे कर्मा सीएम नहीं बने पर टाइगर कहलाए

छत्तीसगढ़ की राजनीति में दलबदल करने के बाद सफल नेताओं में जो नाम आता है, वह महेंद्र कर्मा का है. कर्मा सीपीआई में रहे. विधायक बने. बाद में कांग्रेस में आ गए. मंत्री भी बनाए गए. अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सीएम को लेकर उनका नाम भी चर्चा में रहा, लेकिन सीपीआई से लौटने के कारण आगे बात नहीं बनी. हालांकि 2003 में जब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनी, तब वे नेता प्रतिपक्ष बनाए गए थे. 2013 में झीरम घाटी कांड में वे शहीद हो गए. इसके बाद उनकी पत्नी देवती कर्मा दो बार विधायक चुनी गई हैं.

चर्चित 12 विधायक जिन्होंने जोगी शासन में दल बदला

तरुण चटर्जी : 1980 में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार रायपुर ग्रामीण से जीत दर्ज की थी. 1999 तक वे इस सीट से लगातार विधायक रहे. 90 के दशक के सबसे मजबूत नेता माने जाते थे. कांग्रेस छोड़कर वे जनता दल और फिर भाजपा में शामिल हुए थे. जोगी शासन में दलबदल किया. मंत्री बनाए गए. 2003 में हार गए. फिर राजनीति से ही किनारे हो गए.

श्यामा ध्रुव : कांकेर से भाजपा के टिकट पर 1998 में चुनाव जीती. 2003 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव हार गई.

मदन डहरिया : 1998 में मस्तूरी से भाजपा विधायक चुने गए थे. दलबदल किया. 2003 और 2008 में वे कांग्रेस के टिकट से लड़े, लेकिन हार गए.

गंगूराम बघेल : आरंग से 1993, 1998 में भाजपा के टिकट से जीते थे. दलबदल कर जोगी शासन में मंत्री बने. 2003 में कांग्रेस के टिकट से लड़े तो चुनाव हार गए.

प्रेम सिंह सिदार : लैलूंगा से 1993 और 1998 में भाजपा के टिकट से जीते थे. दलबदल करने के बाद 2003 में कांग्रेस से लड़े और हार गए.

लोकेन्द्र यादव : 1998 में भाजपा से बालोद में चुनाव जीते थे. कांग्रेस में आने के बाद 2003 में हार का सामना करना पड़ा. 2008 में फिर दल बदला और सपा के टिकट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए थे.

विक्रम भगत : 1984 में भाजपा के टिकट से जशपुर के विधायक बने. वे यहां के लगातार चार बार विधायक रहे. जोगी शासनकाल में कांग्रेस में शामिल हुए. इसके बाद 2003 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और हार गए.

डॉ. शक्राजीत नायक : 1998 में भाजपा के टिकट से सरिया सीट से जीते. जोगी शासनकाल में सिंचाई मंत्री बने. 2003 और 2008 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीते. 2013 में हार गए. 2018 में उनके बेटे प्रकाश नायक विधायक बने.

डाॅ. हरिदास भारद्वाज : 1998 से भटगांव से भाजपा के टिकट से जीते. 2008 में कांग्रेस से सरायपाली से जीते. 2013 में कांग्रेस के टिकट से लड़े और हार गए.

रानी रत्नमाला : चंद्रपुर से 1998 में भाजपा से जीतीं. कांग्रेस में चली गईं, फिर चुनाव ही नहीं लड़ी.

डाॅ. सोहनलाल : सामरी सीट से 1998 में भाजपा के टिकट से चुनाव जीते. इसके बाद इन्हें टिकट ही नहीं मिला.

परेश बागबाहरा : 1999 उपचुनाव में भाजपा के टिकट से विधायक चुने गए थे. दलबदल के आठ साल बाद यानी 2008 में कांग्रेस ने इन्हें खल्लारी से चुनाव लड़ाया और इन्होंने पार्टी को जीत दिलाई, लेकिन अगला चुनाव नहीं जीत पाए. इसके बाद बागबाहरा जनता कांग्रेस से जुड़े और वहां से भाजपा में शामिल हो गए.

छत्तीसगढ़ बनने के बाद बोहनी करने वाले विधायक

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद दलबदल की बोहनी करने वाले विधायक रामदयाल उइके थे. 1998 में वे मरवाही से भाजपा के विधायक थे. अजीत जोगी जब सीएम चुने गए, तब वे विधायक नहीं थे. उइके ने जोगी के लिए अपनी सीट छोड़ दी थी और कांग्रेस में शामिल हो गए थे. इसके बाद 2003, 2008 और 2013 में पाली तानाखार सीट से कांग्रेस के विधायक रहे. 2018 में विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए थे. भाजपा के टिकट से चुनाव लड़े और तीसरे नंबर पर रहे.

पार्टी छोड़कर अपनी पार्टी बनाने वाले भी नेता

छत्तीसगढ़ में ताराचंद साहू और अजीत जोगी जैसे नेता भी हैं. भाजपा के सांसद रहे साहू ने अपनी पार्टी छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच का गठन किया था. हालांकि वे सफल नहीं हुए. छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपनी पार्टी बनाई. पांच विधायक भी जीते, लेकिन 2023 का चुनाव आते-आते अब पांच में दो ही बचे. मरवाही में खुद जोगी की सीट हाथ से निकल गई. इसके बाद खैरागढ़ में देवव्रत सिंह के निधन के बाद उपचुनाव में यह सीट भी चली गई. लोरमी के विधायक धर्मजीत सिंह को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. अब डॉ. रेणु जोगी और प्रमोद शर्मा ही पार्टी में हैं. जोगी के निधन के बाद पार्टी की स्थिति भी पहले से कमजोर हो चुकी है.

वैसे दल बदलने वालों में वर्तमान में भाजपा के विधायक सौरभ सिंह भी हैं. उनका परिवार कांग्रेस से जुड़ा था. वे कांग्रेस से बसपा में गए और विधायक बने. इसके बाद भाजपा में आ गए. बसपा की विधायक रहीं कामदा जोल्हे अब भाजपा में हैं. धर्मजीत सिंह कांग्रेस से जोगी कांग्रेस में गए. उनके भाजपा और कांग्रेस दोनों में शामिल होने की चर्चा होती रहती है. इसी तरह बलौदाबाजार विधायक प्रमोद शर्मा को लेकर भी चर्चाएं होती हैं.

इस पूरे मसले पर पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर डॉ. अजय चंद्राकर का कहना है कि छत्तीसगढ़ में दलबदल के मिश्रित प्रभाव देखने को मिले हैं. विद्याचरण शुक्ल या अरविंद नेताम दलबदल के बाद बड़े कैनवास पर नहीं उभर पाए लेकिन महेंद्र कर्मा ऐसे नेता थे, जो नेता प्रतिपक्ष बने. कांग्रेस में उन्होंने अपनी जगह बनाई. तरुण चटर्जी जैसे नेताओं का प्रभाव घट गया. हालांकि डॉ. शक्राजीत नायक अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे. जहां तक नंदकुमार साय की बात है तो उनकी छवि बड़ी है. पार्टी में उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा था, इसलिए वे कांग्रेस में आए. भाजपा के लिए यह क्षति है.

Full View

Tags:    

Similar News