75 days Bastar Dussehra festival : दुनिया का एक ऐसा दहशरा उत्‍सव जो चलता है पूरे 75 दिन तक, लेकिन नहीं होता रावण का पुतला दहन

75 days Bastar Dussehra festival इस 75 दिवसीय दशहरा उत्‍सव का आयोजन भगवान श्रीराम के निनहाल कहे जाने वाले छत्‍तीसगढ़ के बस्‍तर संभाग में होता है। बस्‍तर संभाग का एक नाम दंडकारण्‍य है। माना जाता है कि रामायण में वर्णित दंडकारण्‍य यही है।

Update: 2023-07-31 12:54 GMT

एनपीजी न्‍यूज डेस्‍क

75 days Bastar Dussehra festival दशहरा का आयोजन देश के लगभग हर हिस्‍से में होता है। अधिकांश क्षेत्रों में दशहरा एक ही दिन विजयदशमी के दिन मनाया जाता है। कुछ लोग नौरात्र के पहले दिन से दशहरा मनाते हैं। यानी अधिकतम 10 दिन, लेकिन क्‍या आप जानते हैं देश में एक स्‍थान ऐसा है जहां दशहरा का उत्‍सव पूरे 75 दिनों तक चलता है, लेकिन इसमें रावण का पुतला दहशन नहीं होता।

इस 75 दिवसीय दशहरा उत्‍सव का आयोजन भगवान श्रीराम के निनहाल कहे जाने वाले छत्‍तीसगढ़ के बस्‍तर संभाग में होता है। बस्‍तर संभाग का एक नाम दंडकारण्‍य है। माना जाता है कि रामायण में वर्णित दंडकारण्‍य यही है। बस्‍तर में भगवान राम से जुड़े कई स्‍थान है। इनमें एक रामाराम भी शामिल है। यह सुकमा जिला में स्थित है। माना जाता है कि भगवान राम ने वनवास के दौरान वहां रुके थे। इस पर चर्चा अगली बार करेगे...। 75 दिन तक चलने वाले दशहरा उत्‍सव पर लौटते हैं।

75 days Bastar Dussehra festival बस्‍तर के 75 दिनी दशहरा उत्‍सव के दौरान माता दंतेश्‍वरी सहित कई देवी- देवताओं की 13 दिनों तक लगातार पूजा अर्चना चलती है। इस दशहरा उत्‍सव की शुरुआत छत्‍तीसगढ़ के नववर्ष के पहले त्‍योहार कहे जाने वाले हरेली से होती है। हरेली के दिन माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी करने के साथ होती है। इसके बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करते हैं।


इसके बाद विशाल रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी लाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के ग्रामीणों को रथ निर्माण की जिम्मेदारी निभाते हुए दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करना होता है। इसमें कहीं भी मशीनों का प्रयोग नहीं किया जाता है। पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं। इस रस्सी को लाने की जिम्मेदारी पोटानार क्षेत्र के ग्रामीणों पर होती है।

75 days Bastar Dussehra festival इस पर्व में काछनगादी की पूजा का विशेष प्रावधान है। रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी की पूजा की जाती है। इस पूजा में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है। ये बालिका बेल के कांटों से तैयार झूले पर बैठकर रथ परिचालन व पर्व को सुचारु रूप से शुरू करने की अनुमति देती है। इसके अलगे दिन आमाबाल गांव के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की निराहार योग साधना में बैठ जाता है। ये पर्व को निर्विघ्न रूप से होने और लोक कल्याण की कमाना करता है। इस दौरान हर रोज शाम को दंतेश्वरी मां के छत्र को विराजित कर दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते रथ की परिक्रमा की जाती है।

भले ही वक्‍त बदल गया है, लेकिन आज भी पूरी परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है। रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है। इस पर्व के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व कबूतर की बलि दी जाती है। वहीं अश्विन अष्टमी को निशाजात्रा रस्म में कम से कम 6 बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्यों की मौजूदगी होती है।

75 days Bastar Dussehra festival रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है। निशाजात्रा का दशहरा के दौरान विशेष महत्व है। इस परंपरा को कैमरे में कैद करने विदेशी पर्यटकों में भी उत्साह होता है।

75 days Bastar Dussehra festival 13वीं शताब्‍दी से चली आ रही है परंपरा

इस 75 दिवसीय दशहरा उत्‍सव की शुरुआत13वीं शताब्दी में बस्तर के चौथे राजा राजा पुरुषोत्तम देव के शासनकाल में हुई थी। प्रचलित कथा के अनुसार बस्तर के चौथे काकतिया (चालुक्य) नरेश पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पैदल तीर्थयात्रा कर मंदिर में स्वर्ण मुद्राएं और स्वर्ण भूषण आदि सामग्री अर्पित की थी। वहां के पुजारी ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति की उपाधि से विभूषित किया। जब राजा पुरुषोत्तम देव पुरी धाम से बस्तर लौटे तब उन्होंने धूम-धाम से दशहरा उत्सव मनाने की परंपरा की शुरुआत की।


ज‍ानिए कौन हैं काछनदेवी 75 days Bastar Dussehra festival

काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समुदाय के लोग रहते थे। तब तात्कालिक नरेश दलपत से कबीले के मुखिया ने जंगली पशुओं से अभयदान मांगा। राजा इस इलाके में पहुंचे और लोगों को राहत दी। नरेश यहां की आबोहवा से प्रभावित होकर बस्तर की बजाए जगतुगुड़ा को राजधानी बनाया। राजा ने कबीले की ईष्टदेवी काछनदेवी से अश्विन अमावस्या पर आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया। तब से यह प्रथा चली आ रही है। काछिनगादी ( काछिन देवी को गद्दी ) पूजा बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है। काछिनगादी बेल कांटों से तैयार झूला होता है। पितृमोक्ष अमावस्या के दिने काछनगादी पूजा विधान होती है। काछिनगादी में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी आती है जो काछिनगादी पर बैठकर रथ परिचालन व पर्व की अनुमति देती है।

75 days Bastar Dussehra festival क्‍या है जोगी बिठाई की रस्‍म

नवरात्र के पहले दिन सिरासार प्राचीन टाउन हॉल में जोगी बिठाई की प्रथा की जाती है। जोगी बिठाने के लिए सिरासार के बीच में एक गड्ढा खोदा जाता है जिसके अंदर हलबा जाति का एक व्यक्ति लगातार 9 दिन योगासन में बैठा रहता है। इस रस्‍म के दूसरे दिन रथ चलना शुरू हो जाता है। रथ प्रतिदिन शाम को एक निश्चित मार्ग को परिक्रम करता और राजमहलों के सिंहद्वार के सामने खड़ा कर दिया जाता है।


मावली पर घाव यानी देवी की स्थापना। मावली देवी को दंतेश्वरी का ही एक रूप मानते हैं। इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है और उस मूर्ति को पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है। विजयादशमी के दिन भीतर रैनी और एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं। दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है।

निशाजात्रा रस्म में दर्जनों बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इस रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ ( कांवर ) भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है। इस पर्व के अंतिम पड़ाव में मुरिया दरबार लगता है। जहां मांझी-मुखिया और ग्रामीणों की समस्याओ का निराकरण किया जाता है। मुरिया दरबार में पहले समस्याओं का निराकरण राजपरिवार करता था। अब यह जिम्मेदारी प्रशासनिक अधिकारी निभाते हैं।

75 days Bastar Dussehra festival रथ चोरी की परंपरा

आयोजन के दौरान रथ चोरी की भी एक रस्‍म होती है। रथ चुराने के लिए किलेपाल, गढ़िया और करेकोट परगना के 55 गांवों से 4 हजार से अधिक ग्रामीण आते हैं। रातोरात ग्रामीणों ने इस रथ को खींचकर करीब पांच किमी दूर कुम्हड़ाकोट के जंगलों में ले जाते हैं और रथ को पेड़ों के बीच में छिपा देते हैं। रथ चोरी होने के बाद बस्‍तर महाराजा और राजगुरू सहित अन्य लोगों के साथ कुम्हडाकोट जाते है। यहां पहले नए फसल के अनाज को ग्रामीणों के साथ पकाने के बाद इसका भोग राजपरिवार के सदस्य करता हैं। इसके बाद चोरी हुए रथ को वापस लाने के लिए ग्रामीणों को मनाया जाता है। देर शाम रथ को बस्तर महाराज अपनी अगुवाई में लेकर वापस दंतेश्वरी मंदिर पहुंचते है।

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