Bilaspur High Court: हाई कोर्ट की नसीहत: न्यायिक पक्षपात का आरोप लगाने वाली स्थानांतरण याचिकाओं में अदालतों को सावधानी बरतने की जरुरत
Bilaspur High Court: बिलासपुर हाई कोर्ट में एक ऐसी याचिका दायर की थी जिसे लेकर ज्यूडिसरी में चर्चा का विषय बना हुआ है। याचिकाकर्ता ने विशेष न्यायाधीश, अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के समक्ष लंबित अपने मामले को किसी अन्य सक्षम न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग हाई कोर्ट से की थी। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में बताया है कि विशेष न्यायाधीश व्यक्तिगत पक्षपाती थे और उनके निर्देश पर उसे मामले में झूठा फंसाया गया था। हाई कोर्ट ने जरुरी नसीहत के साथ याचिका को खारिज कर दिया है।

बिलासपुर। न्यायिक पक्षपात का आरोप लगाने वाली स्थानांतरण याचिका पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि इस तरह की याचिकाओं में अदालतों को सावधानी बरतने की जरुरत है। बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि पीठासीन अधिकारी के खिलाफ आरोप लगाकर मामले के स्थानांतरण की मांग करना गंभीर मामला है। किसी पक्ष को इससे न्याय नहीं मिलेगा जैसे संदेह के आधार पर स्थानांतरण की अनुमति नहीं दी जा सकती। बेंच ने टिप्पणी के साथ याचिका को खारिज कर दिया है।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि किसी न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को मामले के स्थानांतरण का आधार नहीं बनाया जा सकता। संभावित आशंका के चलते मामले भी को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में स्थानांतरित करने का आधार नहीं बन सकता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। कोर्ट ने कहा कि इस व्यवस्था की नींव न्याय प्रदान करने की ज़िम्मेदारी रखने वाले व्यक्तियों, मसलन न्यायिक अधिकारियों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर आधारित है। यदि उनका विश्वास, निष्पक्षता और प्रतिष्ठा डगमगाती है, तो इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर ही असर पड़ना तय है।
कोर्ट ने यह भी कहा
सिंगल बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि यदि पीठासीन अधिकारी के पक्षपात के आरोपों को केस के स्थानांतरण का आधार बनाया जाता है, तो BNS की धारा 447 के तहत दी गई शक्ति का प्रयोग करने से पहले अदालत को यह विश्वास होना चाहिए कि पक्षपात या पूर्वाग्रह की आशंका वास्तविक और उचित है। इसके दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी शिकायकर्ता की होगी, जिससे आरोपों की पुष्टि हो।
याचिकाकर्ता ने ये लगाया था आरोप
याचिकाकर्ता ने विशेष न्यायाधीश, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, रायपुर के समक्ष लंबित अपने मामले को किसी अन्य सक्षम न्यायालय में इस आधार पर स्थानांतरित करने की मांग की थी, कि विशेष न्यायाधीश व्यक्तिगत पक्षपाती थे और उनके निर्देश पर, याचिकाकर्ता को मामले में झूठा फंसाया गया था।
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में बताया कि उसे एक ऐसे अपराध में सह-अभियुक्त बनाया गया था जिसमें मुख्य अभियुक्त ने अनुसूचित जाति की एक लड़की को शादी का झांसा देकर शारीरिक संबंध बनाने के लिए फुसलाया और उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए जिससे वह गर्भवती हो गई। जबकि उसकी विशिष्ट भूमिका की जांच लंबित थी। विशेष न्यायाधीश ने उसकी अग्रिम ज़मानत और नियमित ज़मानत की याचिका खारिज कर दी, जबकि अन्य सह-अभियुक्तों को अग्रिम ज़मानत दे दी गई। विशेष न्यायाधीश पर व्यक्तिगत पक्षपात का आरोप लगाते हुए, याचिकाकर्ता ने अपने मामले को किसी अन्य सक्षम न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग की थी।
कोर्ट ने कहा है कि यदि आरोप स्पष्ट रूप से झूठे हैं, तो कठोर दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है ताकि न केवल न्यायालयों में अनुशासन बनाए रखा जा सके, बल्कि न्यायिक अधिकारियों की रक्षा भी की जा सके। उनके आत्मसम्मान, विश्वास और सबसे बढ़कर न्याय संस्था की गरिमा को भी बनाए रखा जा सके।
कोर्ट ने कहा कि जब किसी जिला न्यायालय के न्यायिक अधिकारी को बदनाम करने का जानबूझकर प्रयास किया जाता है, तो इससे न केवल संबंधित न्यायाधीश को, बल्कि न्यायपालिका के सम्मान को भी ठेस पहुंचती है। कोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे न्यायिक अधिकारी अपनी निष्पक्षता का दिखावा कर सके।
कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए अपने फैसले में लिखा है कि केवल एक प्रतिकूल आदेश के आधार पर पक्षपात का आरोप स्थानांतरण को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक कि इसकी पुष्टि प्रासंगिक दस्तावेजों से न हो, जो कि वर्तमान मामले में नहीं है।
