muharram 2024: क्या है मुहर्रम और कर्बला की जंग, जानें क्यों आशूरा के दिन लोग मनाते हैं मातम, ताजिए का महत्व और इतिहास भी जान लें ?

2024 में 17 जुलाई के दिन मुहर्रम का त्योहार मनाया जाएगा। इस मौके पर हम आज हम आपको बताएंगे कि मुहर्रम और कर्बला की जंग में क्या हुआ था ? साथ ही जानेंगे कि आशूरा को मुस्लिम समुदाय के लोग मातम के रूप में क्यों मनाते हैं?

Update: 2024-07-16 12:40 GMT

रायपुर, एनपीजी न्यूज। मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना माना जाता है। इसी महीने से इस्‍लाम धर्म के नए साल की शुरुआत होती है। मोहर्रम की 10 तारीख को हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मातम मनाया जाता है। इस दिन हजरत इमाम हुसैन के अनुयायी खुद को तकलीफ देकर इमाम हुसैन की याद में मातम मनाते हैं।

इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की शहादत की याद में दुनियाभर में शिया मुस्लिम मुहर्रम मनाते हैं। इमाम हुसैन पैगंबर मोहम्मद के नाती थे, जो कर्बला की जंग में शहीद हुए थे। इस महीने का 10वां दिन बहुत ही खास माना जाता है। इस दिन को आशूरा के रूप में मनाया जाता हैं। आशूरा को मुस्लिम समुदाय के लोग मातम के रूप में मनाते हैं। इस दिन लोग रोजा भी रखते हैं।


17 जुलाई 2024 को आशूरा

7 जुलाई 2024 को मुहर्रम के पवित्र महीने की शुरुआत हुई थी। ऐसे में 17 जुलाई 2024 को आशूरा मनाया जाएगा। आज हम आपको बताएंगे कि आशूरा के दिन लोग मातम क्यों मनाते हैं। दरअसल इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, आज से करीब 1400 साल पहले बादशाह यजीद ने हजरत इमाम हुसैन को कर्बला के मैदान में कैद कर लिया था। हजरत इमाम हुसैन इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे थे। उनकी शहादत की याद में मुहर्रम के महीने के दसवें दिन को लोग मातम के तौर पर मनाते हैं, जिसे आशूरा भी कहा जाता है।

मुहर्रम और कर्बला की जंग में क्या है कनेक्शन?

2024 में 17 जुलाई के दिन मुहर्रम का त्योहार मनाया जाएगा। इस मौके पर हम आज हम आपको बताएंगे कि मुहर्रम और कर्बला की जंग में क्या हुआ था ?


मुहर्रम पर याद की जाती है कुर्बानी

इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत मुहर्रम महीने के पहले दिन के साथ होती है, इसे हिजरी कैलेंडर के रूप में जाना जाता है। मुहर्रम के दिन अल्लाह के नेक बंदे की कुर्बानी के लिए याद रखा जाता है। मुहर्रम को पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत हुई थी, इसलिए मुहर्रम पर मातम मनाया जाता है। मुहर्रम पर कर्बला की जंग को भी याद किया जाता है। मुहर्रम का महीना त्याग और बलिदान की याद दिलाता है। मुहर्रम बकरीद के 20 दिन बाद मनाया जाता है। मुहर्रम पर हुसैन की याद में ताजिया उठाया जाता है और मुस्लिम समुदाय के लोग मातम मनाते हुए रोते हैं।


कर्बला के जंग की कहानी को जानिए

हजरत इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ मोहर्रम माह के 10वें दिन कर्बला के मैदान में शहीद हो गए थे। उन दिनों इराक में यजीद नाम का अत्याचारी बादशाह राज करता था। उसे अल्लाह पर विश्वास नहीं था। वो चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन भी उनके समर्थन में आ जाएं। हालांकि इमाम साहब इस बात के खिलाफ थे। उन्होंने बादशाह यजीद के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया।

इमाम हुसैन और उनके परिवार के बच्चों को भी नहीं बख्शा था बादशाह ने

इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक, आज से 1400 साल पहले कर्बला की लड़ाई में मोहम्मद साहब के नवासे (नाती) हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हुए थे। ये लड़ाई इराक के कर्बला में हुई थी। लड़ाई में इमाम हुसैन और उनके परिवार के छोटे-छोटे बच्चों को भूखा-प्यासा शहीद कर दिया गया था। इसलिए मोहर्रम में सबीले लगाई जाती हैं, पानी पिलाया जाता है, भूखों को खाना खिलाया जाता है। कर्बला की लड़ाई में इमाम हुसैन ने इंसानियत को बचाया था, इसलिए मुहर्रम को इंसानियत का महीना माना जाता है।


ताजिया का महत्व

  • ताजिया आशूरा में बहुत खास महत्व रखता है। ताजिया को अलग-अलग चीजों से बनाया जा सकता है, जैसे- सोने, चांदी, लकड़ी, बांस, स्टील, कपड़े और रंग-बिरंगे कागज।
  • ताजिया को सोने, चांदी, लकड़ी, बांस, स्टील, कपड़े और रंग-बिरंगे कागज से मकबरे के आकार में बनाया जाता है।
  • आशूरा के दिन मुस्लिम समुदाय के लोग ताजिया और जुलूस निकलते हैं और शोक मनाते हैं। कुछ लोग अपने पीठ पर चाबुक से मरते हैं, कुछ अपने सर पर शीशे को फोड़ते हैं और भी कई तरह से लोग इस मातम में शामिल होते हैं।

मुहर्रम में देशभर में ताजिये का जुलूस निकाला जाता है। ताजिये का जुलूस इमामबारगाह से निकलता है और कर्बला में जाकर खत्म होता है। कहा जाता है ताजिये की शुरुआत मुस्लिम शासक तैमूर के दौर में हुई थी। इमाम हुसैन की कब्र के प्रतीक के रूप में बनाई जाने वाली बड़ी-बड़ी कलाकृतियों को ताजिया कहा जाता है।


तैमूर के समय से निकलने लगे ताजिये के जुलूस

तैमूर मूल रूप से कजाकिस्तान का था और शिया समुदाय से था। ईरान, अफगानिस्तान, इराक और रूस के कुछ हिस्सों को जीतने के बाद तैमूर 1398 ईस्वी के दौरान हिंदुस्तान पहुंचा था। फिर दिल्‍ली के शासक मुहम्मद बिन तुगलक को हराकर दिल्‍ली की गद्दी पर खुद काबिज हो गया। वैसे तो तैमूर हर साल मुहर्रम मनाने के लिए इराक जाता था, लेकिन एक साल युद्ध में जख्‍मी होने की वजह से हकीमों ने उसे सफर करने से मना किया और इस कारण वह उस साल मुहर्रम मनाने इराक नहीं जा पाया।

तैमूर को खुश करने के लिए दरबारियों ने बनवाए थे ताजिए

तब उसके दरबारियों ने अपने शहंशाह को खुश करने के लिए इराक के कर्बला में स्थित इमाम हुसैन की कब्र जैसी कृतियां बनाने का आदेश दिया। उस वक्त शिल्‍पकारों ने ताजिये तैयार किए। उस वक्‍त बांस की खपचियों पर कपड़ा लगाकर यह ढांचा तैयार किया गया और उसे ताजिया कहा गया। ताजियों को फूलों से सजाया गया और तैमूर के महल में रखा गया। इस तरह मुहर्रम पर हर साल ताजिया बनाने की परंपरा चल पड़ी। हैरानी की बात तो ये है कि तैमूर के अपने देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में ताजिए बनाए जाने का कोई जिक्र नहीं मिलता। तैमूर की मौत 19 फरवरी 1405 ईस्वी में हुई, लेकिन ताजिये बनाने का सिलसिला आज भी जारी है।

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