Dosti Ki Amar Kahani: दोस्ती निभाना तो इनकी तरह, युगों-युगों तक जानी जाएगी इनकी सच्ची दोस्ती की अमर कहानी...

Update: 2023-08-02 10:17 GMT

Dosti Ki Amar Kahani: दोस्ती में जात-पात अमीरी गरीबी नहीं देखी जाती है,सच्ची दोस्ती सिर्फ सच्ची होती है, दोस्त ही हमारे जीवन में एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसके साथ हम अपने सुख दुःख को बांट सकते हैं जीवन में कितनी ही कठोर परिस्थिति हो, मित्र (Friend) हमेशा साथ देते हैं। हिन्दू सभ्यताओं में दोस्त को लेकर कई सारी कहानियां प्रचलित है और इन्हीं कहानियों में से एक है हनुमान- सुग्रीव, कृष्ण-सुदामा और कृष्ण- अर्जुन ।जब कभी मित्रता की बात होती है तो इनकी मिसाल दी जाती है।जानते हैं क्यों हनुमान- सुग्रीव, कृष्ण-सुदामा और कृष्ण- अर्जुन की दोस्ती को मिसाल की तरह पेश किया जाता है, और क्यों युगों बाद आज भी श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती के चर्चे हैं।

हनुमान- सुग्रीव

दोस्ती की बात हो बजरंगबली हनुमान का जिक्र ना हो तो सब अधूरा है। इनकी दोस्ती सुग्रीव से थी,जिन्होंने पूरी तरह हर परिस्थिति में हनुमान जी का साथ दिया था और सीता जी को रावण के कैद से छुड़ाने में भी मदद की थी।

ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव ने वानरराज केसरी और उनके पुत्र हनुमान का हार्दिक स्वागत किया । केसरी ने अपने पुत्र हनुमान को उसकी सेवा में छोड़ने के लिए कहा तो सुग्रीव हर्षित हो उठा और उसने सहर्ष हनुमान को अपने साथ मित्र रूप में रखने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । बल्कि उसे अपना मंत्री बना दिया ।

वानरराज केसरी ने सुग्रीव से पूछा, ”सुग्रीव! तुमने तो सदैव अपने भाई बाली का बड़ा सम्मान किया है । फिर क्या कारण है कि बाली ने तुम्हें अपने राज्य से निकाल दिया ?” सुग्रीव ने कहा, ”वानरराज! मेरे भाई ने मुझे ही घर से नहीं निकाला है, मेरी पत्नी को भी यलपूर्वक मुझसे छीन लिया है ।”

”क्या ?” वानरराज केसरी ने चौंककर सुग्रीव की ओर देखा । उसके चेहरे पर अवसाद के बादल छाए थे । वह बहुत दुखी दिखाई दे रहा था । वानरराज केसरी ने उससे पूछा, ”ऐसा कैसे हुआ ? मुझे पूरी बात बताओ सुग्रीव ?”


तब सुग्रीव ने उन्हें बताया, ”वानरराज! एक दिन मय दानव का पुत्र मायावी अपने बल के अहंकार में भरकर किष्किंधा नगरी में आया और बाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा । बाली से यह सहन नहीं हुआ । वह क्रोध में भरकर उससे युद्ध करने के लिए महल से बाहर आया ।

लेकिन बाली के क्रोध से भरे भयानक चेहरे को देखकर वह दुष्ट मायावी वहां से उल्टे पैरों भाग खड़ा हुआ । बाली का क्रोध कम नहीं हुआ था । वह उसे दण्ड देने उसके पीछे भागा । मैं भी अपने भाई के साथ हो लिया ।

वह मायावी भागकर पर्वत की एक दुर्गम गुफा में जाकर छिप गया । बाली जब उस गुफा में प्रवेश करने लगा तो मैंने उसे रोका । पर वह नहीं रुका और मुझसे बोला कि अगर वह एक वर्ष तक गुफा के भीतर से बाहर न आए तो वह उसे मरा समझकर वापस लौट जाए ।”

”फिर क्या हुआ ?” वानरराज ने पूछा ।

”वानरराज! फिर मैं एक वर्ष तक उस गुफा के बाहर खड़े रहकर बाली की प्रतीक्षा करता रहा । लेकिन बाली बाहर नहीं आया । मैं सोच में पड़ा था कि अब क्या करूं ? तभी गुफा के भीतर से रक्त की एक धार बहती हुई आई ।

मायावी राक्षस ने बाली को मार दिया है और अब वह वाहर आकर मुझे भी मार डालेगा । मैंने भयभीत होकर एक बड़ी शिला को गुफा के द्वार पर लगा दिया और वहां से वापस लौट आया । मंत्रियों और परिवार वालों ने सुना तो उन्हें बहुत दुख हुआ । फिर कुछ दिन बाद उन्होंने मेरा राजतिलक करके मुझे राजगद्दी पर बैठा दिया ।”

लेकिन एक दिन बाली वापस लौट आया । उसने मुझे राजगद्दी पर बैठे देखा तो वह क्रोध में भर गया और मुझे भला-बुरा कहने लगा । मैंने उसकी बहुत अनुनय-विनय की और उसे राजगद्दी वापस देनी चाही, पर उसने मेरी एक नहीं सुनी ।

उसने मुझे धक्के मारकर घर से निकाल दिया और मेरी पत्नी को भी मेरे साथ नहीं आने दिया । तभी से मैं यहां अपने कुछ खास मित्रों के साथ रहता हूं । इस पर्वत पर बाली पैर नहीं रख सकता । क्योंकि उसे मतंग ऋषि का शाप मिला हुआ है । इसलिए मैं यहां सुरक्षित हूं । परंतु मुझे अपनी पत्नी के छीने जाने का बहुत दुख है ।

”तुम चिंता मत करो सुग्रीव!” वानरराज केसरी ने कहा, ”जो व्यक्ति अपने छोटे भाई की पत्नी पर बुरी दृष्टि रखता है, उसका शीघ्र ही सर्वनाश हो जाता है । परमात्मा उसे जरूर दण्ड देंगे ।” इस प्रकार वानरराज केसरी सुग्रीव को आश्वासन देकर और अपने पुत्र हनुमान को उसकी सेवा में छोड़कर वापस लौट गए ।

कृष्ण-सुदामा

कृष्ण-सुदामा की दोस्ती के बिना सबकुछ अधूरा है। दोस्त वो है, जो बिना कहे अपने दोस्त की हर मुश्किल आसान कर दें। कुछ ऐसा ही भगवान कृष्ण ने किया था। वो अपने गरीब मित्र की मित्रता का भी मान रखा और उनकी गरीबी को भी हर लिया था।

भगवान श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता आज भी एक मिसाल के रूप में देखी जाती है। बाल्यकाल में जब श्री कृष्ण, ऋषि संदीपन के यहां आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने आये तो उनकी मित्रता सुदामा से हुई। श्री कृष्ण एक राज परिवार के राजकुमार थे और सुदामा गरीब ब्राम्हण परिवार में पैदा हुए थे, लेकिन फिर भी श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता आज भी प्रसिद्द है। शिक्षा दीक्षा समाप्त होने के बाद श्री कृष्ण राजा बन गए और सुदामा का विवाह हो गया और वे गांव में ही धर्म कर्म के कार्य करके अपना जीवन यापन करने लगे।


विवाह के पश्चात्य उनके जीवन में कई सारी परेशानियां आने लगीं। जब सुदामा की पत्नी को पता चला की राजा कृष्ण सुदामा के मित्र है तो उन्होंने श्री कृष्ण से उनकी आर्थिक स्तिथि ठीक करने के लिए मदद मांगने को कहा और सुदामा को श्री कृष्ण से मिलने भेजा। अपनी पत्नी की जिद्द के आगे सुदामा की एक न चली और वे श्री कृष्ण से मिलने द्वारिका पहुंच गए। द्वारिका को देख वे हैरान रह गए वह सभी लोग सुखी और संपन्न थे। सुदामा किसी तरह कृष के बारे में पूछते हुए उन्हें महल तक पहुंच गए, और जब वहां के पहरेदारों ने उनसे पूछा कि श्री कृष्ण से क्या काम है तो उन्होंने बताया कि कृष्ण मेरे मित्र हैं। ये जानकारी द्वारपालों ने जब श्री कृष्ण को दी कि कोई सुदामा नामक ब्राम्हण उनसे मिलने आया है. तब राजा कृष्ण अपने मित्र के आने की खबर पाकर स्वयं ही नंगे पैर उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़े।


कृष्ण- अर्जुन

कृष्ण-अर्जुन के एक अच्छे मित्र और मार्गदर्शक रहे हैं। उन्होंने अर्जुन को उस वक्त संभाला जब वो परिस्थितियों के भंवर में फंसकर युद्ध छोड़कर जा रहे थे। तब कृष्ण ने अर्जुन को मार्ग दिखाया और अर्जुन ने भी मित्र की बातों का मान रखा। इतिहास और धर्मशास्त्र गवाह है कि भारत मित्रता के क्षेत्र में सबसे आगे रहा है। यहां की मित्रता जन्म-जनमांतर की होती है। अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों एक-दूसरे के प्रति सच्ची भावना रखते थे। गोवर्धन लीला के दौरान देवराज इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि वह अर्जुन के मित्र बनकर सदैव उनकी सहायता करेंगे। इस वचन को श्रीकृष्ण ने सदैव निभाया। जुए में सबकुछ हारकर पांडव दीन-हीन दशा में जी रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण जो स्वयं दुनिया का संचालन करते हैं वह महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथी बन गए और युद्ध में पांडवों को जीत दिलाकर दीन से अखंड भारत का सम्राट बना दिया।

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