Ground Report of Bastar : क्या है बस्तर की सियासी बिसात? मतदान से 3 दिन पहले बस्तर की 12 सीटों से NPG की ग्राउंड रिपोर्ट

Ground Report of Bastar : पहले चरण के चुनाव के प्रचार का शोर 5 नवंबर की शाम पांच बजे थम जाएगा। इससे ठीक पहले क्या है बस्तर के 12 सीटों के जमीनी हालात इसे जानने के लिए न्यू पावरगेम चुनाव ने इन सभी 12 सीटों की ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की।

Update: 2023-11-04 13:57 GMT

अनिल तिवारी 

Ground Report of Bastar: रायपुर। छत्तीसगढ़ का सियासी इतिहास इस कहावत को सच साबित करता है कि बस्तर इस राज्य में सत्ता की चाबी बनता है। यानी जिसने बस्तर साध लिया, सत्ता का सिंहासन उसके ही नाम होता है। यही वजह है कि भाजपा, कांग्रेस ही नहीं दूसरे सभी दलों ने भी बस्तर में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है।

बस्तर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह से लेकर राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान तक सभाएं कर चुके हैं। हर किसी को बस्तर में वोट चाहिए। हालांकि मुख्य मुकाबला तो भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है। लेकिन कहीं-कहीं सर्व आदिवासी समाज, हमर राज पार्टी, सीपीआई, जोगी कांग्रेस, आप और निर्दलीय प्रत्याशी सारा समीकरण बिगाड़ सकते हैं।

सर्व आदिवासी समाज ने हमर राज पार्टी का गठन कर बस्तर संभाग के 7 सीटों में अपने प्रत्याशी उतार दिया है। जिसका कांग्रेस को सीधे तौर पर नुकसान हो सकता है। भाजपा और दूसरे दलों को मिलने वाली वोट भी हमर राज पार्टी के लिए कन्वर्ट हो सकती है।

छत्तीसगढ़ विधानसभा के पहले चरण का चुनाव 7 नवंबर को होना है। पहले चरण में 20 विधानसभा सीटों पर चुनाव होंगे। जिनमें सबसे महत्वपूर्ण संभाग बस्तर है। यहां कुल 90 सीटों में से 12 सीटें आती हैं। इनमें बस्तर, कांकेर, चित्रकोट, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कोंटा, केशकाल, कोंडागांव, नारायणपुर, अंतागढ़, भानुप्रतापपुर की सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं। वहीं जगदलपुर विधानसभा सीट सामान्य है। वर्तमान में बस्तर की सभी 12 की 12 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है।

पहले चरण के चुनाव के प्रचार का शोर 5 नवंबर की शाम पांच बजे थम जाएगा। इससे ठीक पहले क्या है बस्तर के 12 सीटों के जमीनी हालात इसे जानने के लिए न्यू पावरगेम चुनाव ने इन सभी 12 सीटों की ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की।

कोंटा विधानसभा सीट

सुकमा जिले में इकलौती विधानसभा सीट कोंटा है। छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर के आखिरी सीमा पर मौजूद कोंटा विधानसभा तेलंगाना और ओडिशा की सीमा से सटा है। कोंटा विधानसभा को हमेशा से ही कांग्रेस का गढ़ रहा है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस सीट पर पिछले चार बार के चुनावों में यानी लगभग 20 सालों से कांग्रेस के कवासी लखमा का एकाधिकार रहा है। 1998 से लेकर 2018 के चुनाव तक पांच बार से लगातार चुनाव जीतने वाले कवासी लखमा को कांग्रेस की सरकार बनने पर आबकारी मंत्री बनाया गया। लेकिन साल 2023 का चुनावी माहौल बदला हुआ है। कई इलाकों में कवासी लखमा को लेकर लोगों के बीच नाराजगी भी दिखाई दे रही है। दरभागुड़ा, गोरली, रेड्डीपाल, गादीरास समेत अन्य इलाकों में आदिवासी विरोध कर रहे हैं। पांच बार इसी सीट से चुनाव जीत चुके कवासी लखमा छठवीं बार चुनाव मैदान में हैं। उनके सामने भाजपा ने सोयम मुका को मैदान में उतारा है। कांग्रेस के इस किले को ढहाने के लिए इस बार बीजेपी भी एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। वहीं सीपीआई के मनीष कुंजाम एसी चुनाव चिन्ह के साथ ताल ठोंक रहे हैं। कोंटा विधानसभा सीट पर 80 फीसदी आदिवासी और 20 फीसदी अनुसूचित जाति, पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के लोग हैं। यहां के माड़िया, हल्बा, दोरला, मुरिया चारों ही क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत आते हैं। नक्सल प्रभावित इस विधानसभा क्षेत्र के शहरी इलाकों की थोड़ी बहुत तस्वीर बदली हैगांव-गांव में मूलभूत सुविधाओं की कमी है। सड़क, पुल, पुलिया, बिजली,पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य लगातार इस क्षेत्र की समस्या बनी हुई है। हमेशा से ही इस विधानसभा में कांग्रेस, बीजेपी और सीपीआई के बीच लड़ाई होती रही है। जिसमें जीत हर बार कांग्रेस की हुई है। लेकिन इस बार इस हाईप्रोफाइल सीट पर समीकरण कुछ अलग हैं। हर बार प्रत्याशी बदलकर जीत की संभावना तलाशने वाली भाजपा को हर बार यहां से हार का मुंह देखना पड़ा है। कवासी लखमा की अपने इस इलाके में काफी अच्छी पकड़ है। लेकिन इस बार लोगों में कवासी लखमा के प्रति थोड़ी नाराजगी और मनीष कुंजाम के चुनाव चिन्ह बदल जाने से भाजपा कुछ प्लस में नजर आ रही है। लिहाजा कोंटा विधानसभा पर सभी की निगाहें टिकी हुई हैं।

दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र की जनता ने हर चुनाव में अपना नेता बदला। यहां पिछले 4 विधानसभा चुनावों में तीन बार कांग्रेस की जीत हुई, जबकि एक बार बीजेपी की जीत हुई है। यह सीट वर्तमान में कांग्रेस के कब्जे में है। इस सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने जहां चैतराम अटामी को टिकट दी है, वहीं कांग्रेस ने कर्मा परिवार के सदस्य छविंद्र कर्मा को इस बार चुनावी दंगल में उतारा है। बीजेपी ने दंतेवाड़ा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए चैतराम अटामी को अपना उम्मीदवार बनाया है। अटामी पहली बार विधायक पद के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। इसके पहले वे उप सरपंच, जनपद और जिला पंचायत सदस्य रह चुके हैं। वर्तमान में वे भाजपा के दंतेवाड़ा जिला अध्यक्ष पद पर हैं। दंतेवाड़ा विधानसभा में कांग्रेस के बागी अमूलकर नाग ने कांग्रेस में एक ही परिवार के लोगों को टिकट मिलने का आरोप लगाते हुए निर्दलीय पर्चा भरा है। ऐसे में वे कांग्रेस के ही वोटों पर सेंध लगाएंगे। इसके अलावा भाकपा का अलग वोटबैंक है। भाजपा के चैतराम अटामी को लेकर शुरूआत में भीमा मंडावी की पत्नी और बेटी ने नाराजगी जताई थी। लेकिन अब उन्होंने पार्टी के लिए काम करने की बात कही है। कांग्रेसी प्रत्याशी छविंद्र के साथ उनकी मां पूर्व विधायक देवती व बहन तूलिका भी चुनाव प्रचार कर रही हैं। इधर भाजपा में भी पूरी पार्टी जीत हासिल करने जद्दोजहद कर रही है। बदलाव की लहर दंतेवाड़ा में उसी तरह नजर आ रही है, जैसा अन्य विधानसभा क्षेत्रों में देखने को मिल रही है।

छत्तीसगढ़ साल 2000 में मध्य प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आए दंतेवाड़ा विधानसभा में 2003 के चुनाव में बस्तर टाइगर के नाम से मशहूर कांग्रेस के महेंद्र कर्मा को जीत मिली। इसके बाद 2008 के चुनाव में बीजेपी के प्रत्याशी भीमा मंडावी ने जीत हासिल की थी। 2013 में कांग्रेस ने नक्सली हमले में शहीद हुए महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को टिकट दिया। जिन्होंने बीजेपी के भीमा मंडावी को 5 हजार 881 वोटों से हराया। 2018 के चुनाव में एक बार फिर बीजेपी के भीमा मंडावी ने कांग्रेस की देवती कर्मा को हरा दिया। लेकिन एक साल बाद 2019 में नक्सली हमले में भीमा मंडावी की मौत हो गई, जिसके बाद उपचुनाव में फिर से ये सीट कांग्रेस के खाते में चली गई। 2018 विधानसभा चुनाव में प्रदेश में सबसे ज्यादा नोटा का प्रयोग दंतेवाड़ा विधानसभा सीट पर किया गया। यहां की जनता ने 9 हजार 929 वोट नोटा को दिया था, जबकि हार जीत का अंतर महज 2 हजार 172 वोटों का था। पहाड़ी और जंगली क्षेत्र होने के कारण दंतेवाड़ा का अधिकांश इलाका पहुंच विहीन है। भौगौलिक परिस्थितियों के कारण समुचित विकास का अभाव है। सड़क नहीं होने से आज भी यहां के कई गांव बरसात में टापू में तब्दील हो जाते हैं। अब भी यहां नक्सलवाद की जड़ें काफी मजबूत है। मूलभूत सुविधाएं, नक्सलवाद और बेरोजगारी यहां की मुख्य समस्या है। वनोपज और मानसून आधारित कृषि पर आश्रित इस पूरे इलाके में एनएमडीसी के अलावा कोई बड़ा उद्योग नहीं है।

कोंडागांव विधानसभा क्षेत्र

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कोंडागांव विधानसभा सीट पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष मोहन मरकाम और भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष लता उसेंडी के बीच मुकाबला है। मोहन मरकाम और लता उसेंडी चौथी बार इस सीट से आमने-सामने हैं। भाजपा ने लता उसेंडी को लगातार पांचवीं बार इस सीट से चुनावी मैदान में उतारा है। 2008 के चुनाव में लता उसेंडी ने मोहन मरकाम को हरा दिया था। इसके बाद के दो विधानसभा चुनावों 2013 और 2018 में मरकाम ने उसेंडी को हरा दिया। इस बार भी दोनों उम्मीदवारों के बीच कड़ा मुकाबला है। दो बार के विधायक रहे मोहन से इस बार उनके समर्थक और कार्यकर्ता कटे हुए नजर आ रहे हैं। पीसीसी चीफ के रूप में काम करते हुए उनकी कार्यकर्ताओं से दूरियां बढ़ती चली गईं। जिसकी वजह से अब कार्यकर्ता उन पर अनदेखी करने का आरोप भी लगा रहे है। कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता अब तक पार्टी के प्रचार के लिए कोंडागांव विधानसभा में नहीं पहुंचा है। कोंडागांव सीट पर जातीय समीकरण भी कांग्रेस के लिए खासा बिगड़ा हुआ है। र्इसाई समुदाय से जुड़े लोगों ने इस बार आम आदमी पार्टी के साथ जाने की बात कही है। भाजपा लगातार धर्मांतरण के खिलाफ बोलती रही है और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर ईसाई समुदाय पर साथ नहीं दिया। इन हालातों में ये समुदाय दोनों ही दलों से नाराज चल रहा है। भाजपा इन सभी बातों का भरपूर फायदा उठाने की कोशिश कर रही है। भाजपा के कार्यकर्ता भी इसके लिए लगातार जुटे हुए हैं। हालांकि बहुजन समाज पार्टी से गिरधर नेताम, जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ जोगी से शंकर नेताम, राष्ट्रीय जनसभा पार्टी से कंवलसिंह बघेल, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जयप्रकाश नेताम, सर्व आदि दल से ज्ञानप्रकाश कोर्राम और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में बुधसिंह नेताम चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने उतरे हैं। लेकिन कोंडागांव में परंपरागत प्रतिद्वंदी मोहन मरकाम और लता उसेंडी के बीच ही मुख्य मुकाबला है। जिसमें इस बार की लड़ाई में दोबारा उलटफेर की स्थिति बनती दिख रही है। कोंडागांव विधानसभा सीट पर भी चुनावी रंग दिखने लगा है। राजनीतिक दलों की जोर-आजमाइश हो रही है, चुनाव प्रचार हो रहे हैं और हर उम्मीदवार अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहा है।

केशकाल विधानसभा क्षेत्र

छत्तीसगढ़ में केशकाल घाटी को बस्तर का प्रवेश द्वार कहा जाता है। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से ही अस्तित्व में रही केशकाल विधानसभा राजनीतिक दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण सीट है। अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा है और कांग्रेस के संतराम नेताम विधायक हैं। उन्हें विधानसभा उपाध्यक्ष बनाया गया है। केशकाल विधानसभा में पिछले चार चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही टक्कर होते आ रही है। तीसरी पार्टी के तौर पर कोई भी राजनीतिक दल यहां बीजेपी और कांग्रेस को नुकसान नहीं पहुंचा पाई है। हालांकि निर्दलीय प्रत्याशियों ने जरूर बीजेपी और कांग्रेस के वोट काटे हैं, लेकिन पिछले दो चुनावों में कांग्रेस के प्रत्याशी ही इस विधानसभा सीट से चुनाव जीतते आ रहे हैं। कांग्रेस ने एक बार फिर संतराम नेताम को टिकट दिया है। वे कांग्रेस सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए मैदान में उतर गए हैं। उनका दावा है कि हमने पांच साल अच्छा काम किया और जनता फिर से हमें मौका देने जा रही है। इधर बीजेपी ने सरकारी नौकरी छोड़कर भाजपा की सदस्यता लेने वाले नए उम्मीदवार पूर्व आईएएस नीलकंठ टेकाम को मौका दिया है। नीलकंठ टेकाम पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं। कोंडागांव कलेक्टर के अलावा दंतेवाड़ा, बिलासपुर, दुर्ग और बस्तर में कई पदों पर काम कर चुके नीलकंठ टेकाम की जीत पर भाजपा को पूरा भरोसा है। पिछले तीन विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो 2008 में इस सीट पर बीजेपी के प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। इसके बाद 2013 और 2018 में कांग्रेस के प्रत्याशी ने ही इस सीट पर विजय हासिल की है। छत्तीसगढ़ गठन के बाद दो बार बीजेपी और दो बार कांग्रेस इस सीट से जीत हासिल कर चुकी है। फिलहाल इस सीट पर कांग्रेस की पकड़ काफी मजबूत दिख रही है। लेकिन केशकाल में अपनी साख खो चुकी बीजेपी दोबारा जीत दर्ज के लिए जी तोड़ मेहनत कर रही है। केशकाल में विकास सबसे बड़ा मुद्दा है। तीन-चार दशकों से नक्सलवाद का दंश झेल रहे केशकाल विधानसभा क्षेत्र के कई गांव आज भी सड़क, पानी, बिजली के लिए भी तरस रहे हैं। आदिवासियों के लिए आरक्षित इस इलाके में गोंडवाना समाज 60, ओबीसी 30, एससी और सामान्य पांच फीसदी हैं। हालांकि केशकाल आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। लेकिन यहां ओबीसी वर्ग किंग मेकर की भूमिका निभाता है। ओबीसी वर्ग में यादव, साहू और कलार समाज में लोगों की संख्या अधिक है। इसके अलावा पटेल समाज, देवांगन समाज के लोग भी चुनावी समीकरण बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं।

चित्रकोट विधानसभा क्षेत्र

कांग्रेस के सबसे बड़े आदिवासी चेहरे, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और बस्तर के युवा सांसद दीपक बैज को कांग्रेस ने यहां मैदान में उतारा है। दीपक बैज 2018 में भी यहां से विधायक चुने गए थे। लेकिन 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने बस्तर से चुनाव लड़ा और जीते भी। जिसके बाद 2019 में हुए विधानसभा उपचुनाव में कुल 7 प्रत्याशी चुनावी मैदान में थे, कांग्रेस से ग्रामीण जिला अध्यक्ष रहे राजमन बेंजाम को टिकट मिला। बीजेपी से लच्छूराम कश्यप को टिकट दिया गया, लेकिन उपचुनाव में भी बीजेपी को हार मिली है और राजमन बेंजाम 17 हजार वोटों के अंतर से चुनाव जीत गए और चित्रकोट विधानसभा से विधायक बने। भाजपा ने पूर्व जिला पंचायत सदस्य और मंडल अध्यक्ष विनायक गोयल पर दांव खेला है। दीपक बैज और विनायक गोयल आमने-सामने हैं। लेकिन भीतरघात की आशंका से दोनों दलों के प्रत्याशी डरे हुए हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों में ही नाराज नेताओं की संख्या है और वे चुनावी समीकरण को बना या बिगाड़ सकने की क्षमता रखते हैं। भाजपा जहां कांग्रेस के जनाधार के लगातार कम होने का आरोप लगा रही है, वहीं कांग्रेस ने इसे अपनी रणनीति बता रही है। इस सीट से कांग्रेस के विधायक रहे राजमन बेंजाम की टिकट इस चुनाव में काट दी गई। लिहाजा शुरू में वो बगावत के मूड में दिख रहे थे। उनके समर्थकों ने उनसे निर्दलीय चुनाव लड़ने की मांग भी की थी। वे भीतरघात करते हुए प्रत्याशी को कमजोर कर सकते हैं। वहीं कांग्रेस के ग्रामीण जिलाध्यक्ष बलराम मौर्य भी टिकट नहीं मिलने से पार्टी से नाराज चल रहे हैं। लिहाजा कहा जा रहा है कि कांग्रेस प्रत्याशी के लिए इस बार जीत उतनी आसान नहीं है, जितनी ऊपर से दिख रही है। कुछ इसी तरह भाजपा प्रत्याशी विनायक गोयल की राह में भी रोड़े हैं। पूर्व विधायक बैदूराम कश्यप और लच्छूराम कश्यप ने टिकट मांगी थी। लेकिन पार्टी ने नए चेहरे पर भरोसा किया। जिससे इलाके में काफी सक्रियता से काम कर रहे दोनों नेता निराश और नाराज हैं। हालांकि पार्टी ने बैदूराम कश्यप को ही चुनाव संचालन की जिम्मेदारी दे दी है और लच्छूराम कश्यप को भी चुनाव संचालन समिति में शामिल किया है। लेकिन पार्टी आलाकमान की डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश कितनी कामयाब होगी, 3 दिसंबर को पता चलेगा।

बस्तर जिले का चित्रकोट विधानसभा 2003 में केशलूर विधानसभा के नाम से जाना जाता था। लेकिन 2008 में इसे चित्रकोट विधानसभा किया गया। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र होने की वजह से यहां के लोग वनोपज और खेती किसानी पर आश्रित हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से चित्रकोट विधानसभा कांग्रेसियों का गढ़ रहा है, जहां दीपक बैज की पकड़ काफी मजबूत है। 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की प्रतिभा शाह को बीजेपी के लछुराम कश्यप ने हरा दिया। 2008 में बीजेपी से बैदूराम कश्यप ने प्रतिभा शाह को फिर से मात दी। 2013 में कांग्रेस से युवा नेता दीपक बैज को मौका मिला और बीजेपी ने बैदूराम कश्यप को दोबारा टिकट दिया। लेकिन बैदूराम कश्यप हार गए। इसके बाद दीपक बैज ने 2018 के चुनाव में लच्छूराम कश्यप को हराया। 2019 में दीपक बैज बस्तर के सांसद चुने गए और यहां हुए उपचुनाव में कांग्रेस के राजमन बेंजाम जीत गए। 2008 में ये तत्कालीन बीजेपी सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण विधानसभा सीट बन गया, क्योंकि यहां सैकड़ों किसानों से उनकी जमीन अधिग्रहित कर टाटा ने स्टील प्लांट की नींव रखी थी। लेकिन प्लांट स्थापित नहीं हुआ। जमीन अधिग्रहण होने की वजह से किसानों के जमीन में खेती किसानी करना भी मुश्किल हो गया। 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने किसानों की जमीन वापसी का मुद्दा उठाया और कांग्रेस की सरकार बनने पर सभी प्रभावित किसानों की जमीन टाटा से वापस दिलाने का वादा किया और नतीजे बदल गए।

जगदलपुर विधानसभा क्षेत्र

बस्तर की 12 विधानसभा सीटों में से एकमात्र सामान्य और हाई प्रोफाइल सीट जगदलपुर विधानसभा में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी घमासान है। शहरी मतदाताओं की संख्या यहां ज्यादा है, जिससे भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों के बीच ही कांटे की टक्कर होती है। इस सीट से दो पूर्व मेयर बीजेपी के प्रत्याशी किरण सिंह देव और कांग्रेस प्रत्याशी जतिन जायसवाल के बीच आमने-सामने की लड़ाई है। इस सीट पर मुकाबला काफी रोमांचक हो गया है। दोनों ही अपने-अपने कार्यकाल के दौरान किए गए काम गिना रहे हैं। क्योंकि जगदलपुर का एक बड़ा हिस्सा इस विधानसभा में आता है, और वोटर वही होंगे, जिन्होंने उन्हें कभी मेयर बनाया था। अब देखना होगा कि पूर्व मेयर Vs पूर्व मेयर की लड़ाई में जनता कौन से पूर्व मेयर पर अपना भरोसा जताती है। 2008 के विधानसभा चुनाव से पहले तक जगदलपुर विधानसभा आदिवासियों के लिए आरक्षित रही। यहां की 65 फीसदी आबादी सामान्य वर्ग और आदिवासियो की जनसंख्या 35 फीसदी है। लिहाजा 2008 के चुनाव में जगदलपुर विधानसभा क्षेत्र को सामान्य सीट किया गया। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद और 2003 के चुनाव के बाद करीब तीन कार्यकाल तक यहां बीजेपी का ही दबदबा रहा। 2003 से लेकर 2018 तक तीन चुनाव में इस सीट में बीजेपी काबिज हुई। जबकि कांग्रेस का एक ही विधायक यहां से चुना गया। साल 2003 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के विधायक डॉ. सुभाउ राम कश्यप चुने गए। पहली बार सामान्य घोषित होने के बाद इस सीट से 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से रेखचंद जैन और बीजेपी के संतोष बाफना के बीच मुकाबला हुआ। संतोष बाफना करीब 17 हजार वोटों से चुनाव जीते। 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने फिर संतोष बाफना को मैदान में उतारा, जबकि कांग्रेस ने जमावड़ा गांव के श्यामू कश्यप को टिकट दे दिया। संतोष बाफना ने उन्हें आसानी से हरा दिया। इसके बाद 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी की टिकट पर संतोष बाफना मैदान में उतरे। लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी रेखचंद जैन ने बाजी पलटते हुए संतोष बाफना को भारी मतों के अंतर से हरा दिया। जगदलपुर विधानसभा सीट पर सबसे अधिक सामान्य लोगों की जनसंख्या है। इसमें मारवाड़ी समाज निर्णायक भूमिका निभाता है। इसके अलावा माहरा समाज सहित अन्य समाज भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही प्रत्याशी मारवाड़ी समाज से थे। चुनाव के बाद सड़क, बिजली, पानी नाली सब की स्थिति जस की तस बनी हुई है। बाजार में पार्किंग की सुविधा, शेड नहीं है। जगदलपुर विधानसभा में करीब 1 लाख 93 हजार 167 मतदाता हैं। विधानसभा क्षेत्र में कुल 245 मतदान केंद्र हैं, जिनमें जगदलपुर निगम क्षेत्र में मतदान केंद्रों की संख्या 98 और ग्रामीण क्षेत्र में कुल 147 मतदान केंद्र हैं। यहां 43548 पुरुष मतदाता हैं। महिला मतदाताओं की संख्या 47546 और थर्ड जेंडर हैं। ग्रामीण क्षेत्र में महिला मतदाताओं की संख्या 52450 है, जबकि पुरुष मतदाताओं की संख्या 49595 है। इस विधानसभा सीट में साक्षरता का प्रतिशत भी सबसे ज्यादा है।

बीजापुर विधानसभा क्षेत्र

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित बीजापुर विधानसभा सीट में 8 प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतरे हैं। इनमें दो निर्दलीय प्रत्याशी भी शामिल हैं। कांग्रेस से विक्रम मंडावी और भाजपा से महेश गागड़ा के बीच जबरदस्त टक्कर है। अन्य 6 प्रत्याशी भी इस विधानसभा चुनाव में अपना भाग्य आजमाने उतरे हैं। आजादी के बाद से बीजापुर विधानसभा क्षेत्र में 9 बार कांग्रेस और 4 बार भाजपा और एक बार निर्दलीय ने जीत दर्ज की है। ज्यादा जीत के आंकड़े कांग्रेस के पक्ष में है, लेकिन भाजपा भी जोर आजमाइश कर रही है। विक्रम के खिलाफ जो बगावती तेवर उभर रहे हैं वे उनकी जीत की दौड़ में बाधा बन रहे हैं। कांग्रेस से निकाले जाने के बाद से अजय सिंह पिछले दो वर्षों से विक्रम के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। 2018 में पराजय के बाद विपक्ष की भूमिका बांधने के बजाए महेश गागड़ा बीजापुर से दूर रहे। जिसकी वजह से इलाके में उनकी पकड़ कमजोर हो गई है। इस बीच गागड़ा के विकल्प में डॉ बीआर पुजारी का नाम सामने आया। लेकिन पार्टी ने महेश गागड़ा को ही मैदान में उतार दिया। इस बार बीजापुर विधानसभा सीट के परिणाम किस पार्टी के पक्ष में होंगे, यह जनता को तय करना है।

छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और तेलंगाना की सरहद पर बसा बीजापुर जिला साल 2007 में अस्तित्व में आया। तब प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। लेकिन विधायक कांग्रेस पार्टी के थे। बीजापुर विधानसभा 2003 से 2018 के चुनाव तक दो बार कांग्रेस के विधायक तो दो बार भाजपा के प्रत्याशी ने इस सीट से जीत दर्ज की। साल 2003 से 2008 तक कांग्रेस के राजेन्द्र पामभोई विधायक रहे। लेकिन 2008 के चुनाव में समीकरण बदल गया। साल 2008 से 2018 तक भाजपा के महेश गागड़ा यहां से विधायक रहे। 2013 में वे भाजपा सरकार में वनमंत्री भी बने। लेकिन 2018 में एक बार फिर बाजी पलट गई। बीजापुर में कांग्रेस प्रत्याशी विधायक बना। 2018 के चुनाव में कांग्रेस के विक्रम मंडावी ने 56 फीसदी वोट के साथ जीत दर्ज की थी। महेश गागड़ा को हार का सामना करना पड़ा और कांग्रेस के विक्रम मंडावी को चुनाव जीतने के बाद बस्तर प्राधिकरण का उपाध्यक्ष भी बनाया गया। घोर नक्सल प्रभवित क्षेत्रों में से एक बीजापुर में सबसे ज्यादा पुलिस कैम्प और अर्ध सैनिक बल तैनात हैं। इसी जिले में नक्सलियों ने सबसे ज्यादा आईईडी ब्लास्ट किए हैं। यहां के लोगों के आय का मुख्य साधन वनोपज है। जहां सबसे ज्यादा तेंदूपत्ता की खरीदी होती है। जिले के अंदरूनी गांवो मूलभूत सुविधाओ की कमी से जूझ रहे हैं।

अंतागढ़ विधानसभा क्षेत्र

कांकेर जिले की अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित अंतागढ़ विधानसभा में कुल 13 प्रत्याशी मैदान में है। भाजपा से पूर्व सांसद विक्रम उसेंडी और कांग्रेस से रूपसिंह पोटाई जोर आजमाइश कर रहे हैं। लेकिन यहां बागियों ने खेल बिगाड़ने की पूरी तैयारी कर ली है। कांग्रेस के वर्तमान विधायक अनूप नाग और पूर्व विधायक मंतुराम पवार ने कांग्रेस का सारा समीकरण बिगाड़ दिया है। टिकट कटने के बाद वर्तमान विधायक अनूप नाग निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। वे थानेदार के पद से सेवानिवृत्त होकर विधायक बने थे। पूर्व कांग्रेस विधायक मंतुराम टेप कांड से चर्चा में रहे। दोनों पूर्व विधायकों को कांग्रेस ने पार्टी से निष्कासित कर दिया है। इसके साथ ही आम आदमी पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और अंबेडराइट पार्टी ने भी यहां उम्मीदवार खड़ा किया है। जिससे यहां का मुकाबला रोचक हो गया है। आप आदमी पार्टी की टिकट पर संतराम सलाम चुनाव लड़ रहे हैं। वे पिछले चुनाव में पांच हजार मतों में ही सिमट गए थे। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने शिवप्रसाद गोटा को मौका दिया है। अंबेडकराइट पार्टी ने इस बार सुरेन्द्र कुमार दर्रो को टिकट दिया है। शिक्षक पद से त्यागपत्र देकर राजनीति में आए विक्रम उसेंडी 1993 में पहली बार विधायक बने। इसके बाद 2003 से 2013 तक वे तीन बार विधायक चुने गए। 2004 से 2008 तक वन मंत्री और 2003 से 2004 तक शिक्षा मंत्री भी रहे। उन्होंने छह बार विधानसभा चुनाव लड़ा जिसमें चार बार जीत दर्ज की।

आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र होने की वजह से इस सीट को अनुसूचित जनजाति के वर्ग के लिए आरक्षित है। जहां पूरे बस्तर संभाग में सबसे ज्यादा मतदाता हैं। 1951 में अस्तित्व में आए अंतागढ़ विधानसभा में 1993 तक सभी चुनाव कांग्रेस ने जीती। लेकिन 1993 में जीत के बाद 1998 में बीजेपी को फिर से हार का सामना करना पड़ा। लेकिन इसके बाद 2003 से लगातार 2018 तक के चुनाव में बीजेपी के ही प्रत्याशी ही चुनाव जीते। लेकिन 2018 में एक बार फिर से कांग्रेस ने अपनी इस पुरानी सीट पर कब्जा कर लिया। हमेशा से ही बीजेपी के इस गढ़ में 2018 के चुनाव में कांग्रेस के अनूप नाग जीत दर्ज की। खेती किसानी और वनोपज पर आश्रित इस इलाके के अधिकांश गांव आज भी मूलभूत समस्या से जूझ रहे हैं। अब यहां नक्सली बैकफुट पर हैं, लेकिन फिर भी विकास उस तेजी से नहीं हो सका है। पखांजूर इलाके में बसाए गए बंगीय समुदाय के बांग्लादेशी रिफ्यूजी की संख्या करीब 50 फीसदी है और वही प्रत्याशियों की जीत-हार तय करते हैं। इसके बाद गोंड समुदाय और ओबीसी वर्ग के लोग सबसे ज्यादा हैं।

कांकेर विधानसभा क्षेत्र

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कांकेर विधानसभा सीट से इस बार कुल 9 उम्मीदवार भाग्य आजमा रहे हैं। लेकिन मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों के बीच है। यहां से भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही अपने 2018 के प्रत्याशियों का चेहरा बदल दिया है। बीजेपी ने आशाराम नेताम को मैदान में उतारा है, तो कांग्रेस ने मौजूदा विधायक की टिकट काटते हुए शंकर ध्रुव पर भरोसा किया है। इसके अलावा गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की पार्वती टेटा, राष्ट्रीय जनसभा पार्टी के डायमंड नेताम और निर्दलीय प्रत्याशियों में जयप्रकाश सलाम, गोविंद कुमार डारो, अर्जुन सिंह अचल शामिल हैं। पिछले 2 चुनाव में लगातार कांग्रेस के प्रत्याशी भाजपा प्रत्याशियो को भारी मतों के अंतर से चुनाव हरा रहे हैं। इस वजह से इस सीट में कांग्रेस मजबूत दिखाई दे रही है यहां के भाजपा और कांग्रेस के नेता भी अपने-अपने पार्टी में अच्छी पकड़ रखते हैं और सरकार बनने के साथ ही उन्हें अच्छी पद भी दी जाती है। भाजपा ने यहां जीत के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। पिछले दो चुनाव में भाजपा के प्रत्याशियों को हार मिली है। लिहाजा भाजपा इस बार ज्यादा ताकत लगा रही है। हालांकि कांकेर लोकसभा सीट में भाजपा के प्रत्याशी ही चुनाव जीतते आ रहे हैं। इस बार विधानसभा चुनाव में आदिवासी बहुल इलाके में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली भी हो चुकी है, वहीं कांग्रेस भी यहां प्रियंका गांधी की सभा करा चुकी है। कांकेर विधानसभा कांग्रेसियों का गढ़ रहा है। जहां से कांग्रेस के बड़े कद्दावर नेताओं ने चुनाव जीता। लेकिन 2008 में तख्ता पलटते हुए भाजपा की सुमित्रा मरकोले को जीत मिली। इसके बाद 2013 और 2018 के चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस ने इस सीट पर बाजी मारी और वर्तमान में इस सीट से कांग्रेस के शिशुपाल सोरी विधायक हैं। 2013 में भाजपा के संजय कोडोपी कांग्रेस के शंकर ध्रुव से करीब 4 हजार वोटो के अंतर से हार गए। इसके बाद 2018 के चुनाव में कांग्रेस से शिशुपाल सोरी को कांग्रेस ने टिकट दिया और भाजपा ने हीरा मरकाम को मैदान में उतारा। लेकिन इस बार भी शिशुपाल सोरी ने करीब 20 हजार वोटो के अंतर से हीरू मरकाम को हरा दिया।

पहाड़ी इलाके में बसे शहर कांकेर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। जिसे 1998 में नए जिले के रूप में पहचान मिली। यहां के लोगों के आय का मुख्य स्त्रोत वनोपज और खेती किसानी है। यहां आदिवासियों की आबादी 70 फीसदी है, जबकि ओबीसी 20 फीसदी और 10 फीसदी सामान्य हैं। यानी आदिवासी वोटर ही यहां हमेशा निर्णायक भूमिका में रहते हैं। अंदरूनी गांव में आजादी के 77 साल बाद भी ग्रामीण मूलभूत सुविधाओ के लिए तरस रहे हैं।

नारायणपुर विधानसभा क्षेत्र

अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित नारायणपुर विधानसभा सीट पर जीत के लिए भी सियासी दलों की जोर आजमाइश जारी है। इस सीट पर एक बार फिर से 2018 में आमने-सामने रहे भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी में ही भिड़ंत है। भाजपा ने एक बार फिर केदार कश्यप को टिकट देकर मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस ने अपने विधायक चंदन कश्यप को दोबारा मौका दिया है। 2018 में हुए चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच नजदीकी मुकाबला था। कांग्रेस ने महज 2647 वोटों के अंतर से चुनाव जीता था। इस बार नारायणपुर विधानसभा में कुल 9 प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं। इनमें आम आदमी पार्टी से नरेंद्र कुमार नाग, जनता कांग्रेस से बलिराम कचलाम, सीपीआई से फुलसिंग कचलाम, फारवर्ड डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी से रामसाय दुग्गा, राष्ट्रीय जनसभा पार्टी से रामुराम उसेंडी और निर्दलीय प्रत्याशी सुखलाल शामिल हैं। वोटर्स इस बार जहां चंदन कश्यप से उनके 5 साल के कार्यकाल को लेकर हिसाब मांग रहे हैं। उनका आरोप है कि 5 साल विधायक रहते गांव में एक भी विकास कार्य नहीं हुआ है, जिसका जवाब देना कांग्रेस प्रत्याशी के लिए मुश्किल हो रहा है। वहीं केदार कश्यप अपने मंत्रित्व काल में किए गए काम और मोदी सरकार की योजनाओं, उपलब्धि को गिनाते हुए लोगों से वोट मांग रहे हैं।

2008 से 2018 के चुनाव तक दो बार भाजपा के विधायक और एक बार कांग्रेस के प्रत्याशी ने इस सीट से चुनाव जीता। हालांकि इस विधानसभा को भाजपा का गढ़ कहा जाता है। भाजपा शासनकाल में नारायणपुर जिले को शहरी इलाके में डवलप किया गया, स्ट्रक्चर निर्माण के साथ सड़कों का जाल बिछाया गया। नक्सलियों को बैकफुट लाने के लिए पुलिस कैंप खोले गए। यहां से जीतने के बाद केदार कश्यप 2008 में पीएचई मंत्री और 2013 के चुनाव में जीतने पर स्कूल शिक्षा मंत्री बनाए गए। 2018 में केदार कश्यप को हार का सामना करना पड़ा और कांग्रेस के चंदन कश्यप चुनाव जीते और उन्हें वर्तमान में बस्तर हस्तशिल्प बोर्ड का अध्यक्ष भी बनाया गया है। राज्य के दक्षिण क्षेत्र में स्थित नारायणपुर विधानसभा क्षेत्र, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। छत्तीसगढ़ का अबुझमाड़ इसी विधानसभा में मौजूद है, जो काफी पिछड़ा हुआ है। घने जंगल, पहाड़, नदियां, झरने, प्राकृतिक गुफाओं से घिरे नारायणपुर इलाके के ग्रामीण आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। नक्सलियों का पैठ मजबूत होने की वजह से आज भी अबूझमाड़ के कई इलाके में प्रशासन की पहुंच नहीं है। 2008 तक नारायणपुर विधानसभा कोभानपुरी विधानसभा के नाम से जाना जाता था। 2003 के विधानसभा चुनाव में नारायणपुर का इलाका भानपुरी विधानसभा के अंतर्गत था। 2003 के विधानसभा चुनाव में भानपुरी से केदार कश्यप ने चुनाव जीता। जिसके बाद 2007 में नारायणपुर जिला बना और 2008 में भानपुरी का इलाका और नारायणपुर को मिलाकर विधानसभा बनाया गया।

भानुप्रतापपुर विधानसभा क्षेत्र

राज्य के दक्षिण क्षेत्र में मौजूद कांकेर जिले का भानुप्रतापपुर विधानसभा क्षेत्र, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। यहां का 695.58 किलोमीटर ग्रामीण और 1.32 किलोमीटर शहरी क्षेत्र है। चारों ओर पहाड़ है और खनिज संपदा भी भरपूर भानुप्रतापपुर का नाम काकतीय वंश के राजा भानुप्रताप देव के नाम पर पड़ा। बीजेपी ने इस बार के चुनाव में नए चेहरे के रुप में गौतम उइके को मौका दिया है। लेकिन कांग्रेस ने उनके सामने वर्तमान विधायक सावित्री मंडावी को ही मैदान में उतारा है। भानुप्रतापपुर सीट में कांटे की टक्कर है। पूरा क्षेत्र आदिवासी बहुल है, लिहाजा इस सीट पर आदिवासी समाज ही निर्णायक भूमिका निभाते हैं। सर्व आदिवासी समाज के प्रतिनिधि तौर पर प्रत्याशी खड़े होने से 2023 के विधानसभा चुनाव में इस सीट में त्रिकोणीय मुकाबला हो गया है। अकबर राम कोर्राम को हमर राज पार्टी ने भानुप्रातपुर से अपना प्रत्‍याशी बनाया है। डीआईजी रैंक से रिटायर हुए कोर्राम ने 2022 में भानुप्रतापुर सीट पर हुए उप चुनाव से कोर्राम ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की। उन्‍हें 23 हजार से ज्‍यादा वोट मिला था। हमर राज पार्टी ने इस बार अकबर राम कोर्राम को अपना प्रत्याशी बनाया है। जिससे यहां मुकाबला त्रिकोणीय बन गया है।

भानुप्रतापपुर विधानसभा राज्य बनने के बाद हुए पहले चुनाव 2003 से भाजपा का गढ़ रहा है। इस सीट में 2003 और 2008 के चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी को जीत मिली। वहीं 2013 और 2018 के चुनाव में कांग्रेस को जीत हासिल हुई। 2003 से 2018 तक लगातार 4 बार इस सीट से कांग्रेस ने मनोज मंडावी को ही टिकट दिया। इस सीट से 2003 में भाजपा के प्रत्याशी देवलाल दुग्गा को जीत मिली। 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के ब्रह्मानंद नेताम को जीत मिली। वहीं 2013 और 2018 में हुए चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी मनोज मंडावी को जीत मिली। 2018 में जीत के बाद 2022 में हार्ट अटैक से मनोज मंडावी की मौत हो गई। जिसके बाद यहां उपचुनाव हुआ। जिसमें उनकी पत्नी सावित्री मंडावी ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर चुनाव लड़ा और भारी मतों से जीती। सावित्री मंडावी को कुल 65 हजार 479 वोट मिले। वहीं भाजपा से ब्रम्हानंद नेताम को 44 हजार 303 वोट प्राप्त हुए। भानुप्रतापपुर विधानसभा क्षेत्र में कुल 1,97,535 मतदाता हैं। यहां पुरुष मतदाताओं की संख्या 95,186 है, जबकि महिला मतदाताओं की संख्या यहा 100491 है।

बस्तर विधानसभा क्षेत्र

बस्तर विधानसभा से कांग्रेस के लखेश्वर बघेल और बीजेपी के मनीराम कश्यप के बीच मुकाबला है। लेकिन अन्य दलों के प्रत्याशी भी यहां जोर मार रहे हैं। जिनके वोट परसेंट यहां भाजपा और कांग्रेस का सारा सियासी समीकरण बिगाड़ सकता है। अब तक हुए 4 विधानसभा चुनाव में दो बार बीजेपी और दो बार कांग्रेस ने बाजी मारी है। लिहाजा इस बार फिर से इस सीट में दोनों दलों के बीच कांटे की टक्कर है। इनके अलावा आम आदमी पार्टी से जगमोहन बघेल, बहुजन समाज पार्टी से रामाधर बघेल, जनता कांग्रेस से सोनसाय कश्यप, सीपीआई से फूलकुंवर बघेल, हमर राज पार्टी से लखेश्वर कश्यप और सर्व आदिवासी दल से शिवराम नाग चुनाव मैदान में हैं। बस्तर विधानसभा को हमेशा से ही कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है।

लेकिन 2003 के विधानसभा चुनाव में और 2008 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के प्रत्याशी को जीत मिली। हालांकि 2013 और 2018 के चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस ने इस सीट पर बाजी मारी। वर्तमान में इस सीट से कांग्रेस के कद्दावर नेता लखेश्वर बघेल विधायक हैं। जिन पर कांग्रेस ने एक बार फिर भरोसा जताते हुए बीजेपी के मनीराम कश्यप के मुकाबले चुनाव मैदान में उतारा है।

2003 में बीजेपी के बलिराम कश्यप ने कांग्रेस के कद्दावर नेता अंतूराम कश्यप को भारी मतों से हराया। फिर 2008 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से डॉ. सुभाउराम कश्यप ने कांग्रेस से लखेश्वर बघेल हराया। 2013 में एक बार फिर से बीजेपी ने सुभाउराम कश्यप को ही टिकट दिया। लेकिन इस बार कांग्रेस के लखेश्वर बघेल ने भारी मतों से जीत दर्ज करते हुए ये सीट छीन ली। 2018 में भी फिर सुभाउराम और लखेश्वर बघेल के बीच मुकाबला हुआ और जीत लखेश्वर बघेल के नाम हुई। बस्तर विधानसभा में नगर पंचायत के 15 वार्ड आते हैं। लेकिन यहां के निवासी नगर पंचायत को हटाने की मांग को लेकर रायपुर तक पदयात्रा भी कर चुके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली, पानी, सड़क और सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलना अहम मुद्दा है।

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