Sitabengra Cave, Chhattisgarh: देखिए वह जगह जहां कालीदास ने 'मेघदूत' की रचना की, जानिए क्यों होती है वहां बादलों की पूजा...

Sitabengra Cave,Chhattisgarh: वह जगह जहां महाकवि कालीदास ने 'मेघदूत' की रचना की, यहां पत्थरों को काटकर बनी देश की प्राचीनतम नाट्यशाला भी देखिए और जानिए क्यों होती है यहां बादलों की पूजा...

Update: 2024-06-15 09:15 GMT

Sitabengra Cave, Chhattisgarh: महाकवि कालीदास और उनकी कृति 'मेघदूत' के बारे में हम सभी ने स्कूली किताबों में पढ़ रखा है लेकिन उस स्थल को अगर आप देखना चाहें, जहां बैठकर महाकवि ने अपनी इस कालजयी कृति को जन्म दिया तो आपको छत्तीसगढ़ आना चाहिए। यह जगह है छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के रामगढ़ पर्वत पर 'सीताबेंगरा' गुफा। वही सीताबेंगरा गुफा, जहां कभी माता सीता ने प्रभू श्री राम के साथ वनवास के दौरान शरण ली थी। यही नहीं, इसी गुफा में देश की सबसे प्राचीन नाट्यशाला भी है जहां पत्थरों को काटकर बनाई गई दर्शक दीर्घा हैरान करती है। अभिलेख बताते हैं कि यह निर्माण ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी का है और यह भी कि इसका संचालन सुतनुका देवदासी नामक महिला करती थी। ऐसी और भी आश्चर्यजनक बातें विस्तार से आपको इस लेख में पढ़ने को मिलेंगी और बहुत अच्छा होगा कि आप इसी महीने यह यात्रा करें क्योंकि आषाढ़ लगने वाला है। और आषाढ़ के पहले दिन महाकवि और उनकी अमर कृति के सम्मान में यहां बादलों की पूजा होती है। चाहें तो इस अद्भुत दृश्य के साक्षी बन सकते हैं।


कहां है रामगढ़ पर्वत

संभाग मुख्यालय अम्बिकापुर से करीब 60 किलोमीटर दूर स्थित है रामगढ़ पर्वत। रामगढ़ पर्वत पर कई अलग अलग गुफाएं हैं जैसे जोगीमारा गुफा, सीताबेंगरा और लक्ष्मण गुफा आदि। माना जाता है कि अपने वनवास काल के दौरान श्री राम, लक्ष्मण और सीता इन गुफाओं में रहे थे। इसलिए इनका यह नामकरण किया गया है। आगे चलकर इसी सीताबेंगरा गुफा में ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी में नाट्यशाला का निर्माण किया गया और संस्कृत के महान कवि कालिदास ने भी निरे एकांत की तलाश में यहां आश्रय लिया। यहीं उन्होंने अपनी कृति 'मेघदूत' लिखी।


बेहद प्राचीन और अनोखी है नाट्यशाला

सीताबेंगरा की खासियत है उसकी नाट्यशाला। इसे दुनिया की प्राचीनतम नाट्यशालाओं में से एक माना जाता है। गुफ़ा पत्थरों में ही गैलरी की तरह काट कर बनाई गयी है। नाट्यशाला में कलाकारों के लिए मंच नीचे है और दर्शक दीर्घा ऊँचाई पर बनाई गई है ताकि दर्शक आराम से कार्यक्रम देख सकें।प्रांगण करीब 45 फुट लंबा और 15 फुट चौड़ा है। दीवारें सीधी हैं। प्रवेश द्वार गोलाकार है। इस प्रवेश द्वार की ऊंचाई शुरुआत में 6 फीट है, जो भीतर जाकर संकरी हो जाती है और 4 फीट रह जाती हैं।

गुफा की दीवार में लंबे छेद हैं। इन छेदों को लेकर अलग-अलग मत हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नाट्यशाला को प्रतिध्वनि रहित करने के लिए दीवारों को छेद दिया गया है। वहीं कुछ का कहना है कि जब भगवान राम यहाँ रहते थे, तब इन छेदों का इस्तेमाल आक्रमणकारियों पर नज़र रखने के लिए किया जाता था।

गुफ़ा तक जाने के लिए पहाड़ियों को काटकर सीड़ियाँ बनाई गयी हैं। जो दोनों तरफ बनी हुई हैं। गुफ़ा के प्रवेश द्वार के समीप खम्भे गाड़ने के लिए छेद बनाए हैं तथा एक ओर श्रीराम के चरण चिह्न अंकित हैं। बताया जाता है कि ये चरण चिह्न महाकवि कालिदास के समय भी थे। इसका उन्होंने स्वयं उल्लेख किया है।उनकी रचना 'मेघदूत' में रामगिरि यानि रामगढ़ पर पूर्व काल में सिद्धांगनाओं की उपस्थिति का भी जिक्र है जो संभवतः अभिलेख के आधार पर किया गया होगा। दरअसल सीताबेंगरा और नजदीकी जोगीमारा गुफा में ब्राह्मी लिपि और मागधी भाषा में लिखे अभिलेख मिले हैं।


सुतनुका देवदासी के हाथों में था नाट्यशाला का संचालन

अभिलेख बताते हैं कि गुफा में नृत्य-संगीत के कार्यक्रमों का संचालन सुतनुका देवदासी नामक महिला के हाथों में था। सुतनुका अत्यंत रूपवती और कला प्रवीण थी।

अभिलेखों से यह भी ज्ञात हुआ है कि देवदासी सुतनुका, रूपदक्ष 'देवदीन' के प्रेम में थीं। इस प्रेम प्रसंग को रूपदक्ष देवदीन ने सीताबेंगरा की भित्ति पर अभिलेख के रूप में अंकित करवाया है। इस प्रेम के चलते सुतनुका को नाट्यशाला के अधिकारियों का 'कोपभाजन' भी बनना पड़ा और वियोग में अपना जीवन बिताना पड़ा।

बादलों की पूजा होती है आज भी

जैसा कि हमने बताया कि इसी सीताबेंगरा गुफा में महाकवि कालिदास ने मेघदूत की रचना की। बताते हैं कि महाकवि कालिदास ने राजा भोज से कुपित होकर उज्जयनी का परित्याग कर दिया था और तब उन्होंने इस स्थल को अपने आश्रय, अपने काव्य ग्रंथ के सृजन स्थल के रूप में चुना और यहीं इस अद्भुत कृति को जन्म दिया।

कहते हैं कि ऐसे ही एक दिन जब निरे एकांत में अपनी पत्नी के विरह से व्याकुल कालिदास प्रेम पत्र लिख रहे थे, वह दिन आषाढ़ महीने का पहला दिन था। काले घने मेघ आसमान में उमड़ रहे थे और भागते जा रहे है उन संदेशों को उनकी प्रियतमा, उनकी पत्नी तक पहुंचाने के लिए।

महाकवि कालिदास द्वारा रामगढ़ में ठहरने का आभार,उसका उत्सव यहां स्थानीय प्रशासन के सहयोग से बादलों की पूजा करके मनाया जाता है। इस दिन यहां विभिन्न सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है।आप यकीन नहीं करेंगे कि जब लोग बादलों की पूजा करते हैं उस दौरान आसमान में काले-काले बादल उमड़ने भी लगते हैं। शायद यह प्रकृति का महाकवि कालिदास की अमर कृति 'मेघदूत' के प्रति आभार प्रदर्शन का तरीका है। यहां आपको यह भी बताते चलें कि मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद मुकुटधर पाण्डेय जी द्वारा किया गया है।

Full View

Tags:    

Similar News