Bilaspur High Court News: स्पेशल कोर्ट CBI के फैसले को हाई कोर्ट ने किया रद्द, घुसखोरी में SECL के दो कर्मचारियों को किया था बर्खास्त...
Bilaspur High Court News: प्राविडेंट फंड CMPF की राशि निकालने के एवज में कर्मचारी से 10 हजार रुपये रिश्वत लेते सीबीआई ने दो कर्मचारियों को रंगेहाथों पकड़ा था। मामला सीबीआई के स्पेशल कोर्ट में चला। स्पेशल कोर्ट ने रिश्वतखोरी के आरोप में दोनों कर्मचारियों को सेवा से बर्खास्तगी का आदेश देने के साथ ही डेढ़ साल की सजा और तीन हजार रुपये जुर्माना किया था। याचिकाकर्ता उमेश यादव व नित्यानंद दिगर ने अधिवक्ता संदीप दुबे व अफराेज खान के जरिए हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। हाई कोर्ट ने स्पेशल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया है। पढ़िए हाई कोर्ट ने अपने फैसले में याचिकाकर्ताओं के लिए क्या शर्तें तय की है।
Bilaspur High Court News: बिलासपुर। पीएफ की राशि निकालने के लिए रिश्वतखोरी के आरोप में सीबीआई के स्पेशल कोर्ट द्वारा बर्खास्तगी आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर हाई कोर्ट के सिंगल बेंच में सुनवाई हुई। जस्टिस रजनी दुबे ने स्पेशल कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को सशर्त जमानत भी दे दी है। कोर्ट ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर करने की स्थिति में उनको उपस्थित होना होगा। याचिकाकर्ताओं ने अधिवक्ता संदीप दुबे व अफरोज खान के जरिए हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी।
मामला इस प्रकार है। सेवा से बर्खास्त किए गए शिकायतकर्ता कर्मचारी ने अपने सीएमपीएफ राशि जारी करने के लिए अन्य प्रासंगिक दस्तावेजों के साथ कार्मिक प्रबंधक, एसईसीएल सुरा-कछार कोलियरी को एक आवेदन प्रस्तुत किया था और जब उन्होंने अपीलकर्ताओं से संपर्क किया और उनसे अपने आवेदन के बारे में पूछा, तो अपीलकर्ताओं ने उनके आवेदन पर कार्रवाई करने के लिए 10,000/- रुपये की रिश्वत की मांग की।
शिकायतकर्ता ने उक्त राशि का भुगतान करने में अपनी असमर्थता जताई। इसलिए उन्होंने शिकायतकर्ता से 3,000/- रुपये का भुगतान करने को कहा और अंत में, शिकायतकर्ता ने आरोपी व्यक्तियों को रिश्वत के रूप में 2,000/- रुपये देने पर सहमति व्यक्त की। इसके बाद, शिकायतकर्ता ने केंद्रीय जांच ब्यूरो के समक्ष शिकायत दर्ज कराई और शिकायत दर्ज होने के बाद, 08 नवंबर.2004 को, सीबीआई CBI ने शिकायतकर्ता को कैश दिया। इसके बाद, अपीलकर्ताओं के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) के साथ धारा 7 और 13(1)(डी) के अंतर्गत अपराध हेतु एफआईआर दर्ज की गई। इसके बाद अपीलकर्ताओं के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल किया गया। सीबीआई के स्पेशल कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) के साथ धारा 7 और 13(1)(डी) के अंतर्गत आरोप तय किए। कोर्ट ने धारा 7 और 13(1)(डी) के साथ धारा आरआई. के तहत डेढ़ साल की सजा और 3000/- रुपये के जुर्माना ठोका। जुर्माना अदा न करने पर 6-6 महीने के लिए अतिरिक्त सजा भुगतने का निर्देश दिया। इस फैसले को याचिकाकर्ताओं ने अपने अधिवक्ताओं के माध्मय से हाई कोर्ट में चुनौती दी। दोनों याचिकाओं पर हाई कोर्ट में एकसाथ सुनवाई हुई।
अधिवक्ता संदीप दुबे ने ये दिया तर्क
याचिकाकर्ताओं की ओर से पैरवी करते हुए अधिवक्ता संदीप दुबे ने पैरवी करते हुए तर्क पेश किया। अधिवक्ता दुबे ने कहा दोषसिद्धि और दण्डादेश का विवादित निर्णय अवैध, विकृत और कानून की दृष्टि में टिकने योग्य नहीं है। निचली अदालत द्वारा दर्ज किया गया निष्कर्ष इस तथ्य के मद्देनजर टिकने योग्य नहीं है कि अभियोजन पक्ष द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत अभियोजन की स्वीकृति प्राप्त नहीं की गई है। शिकायतकर्ता ने अपने साक्ष्य में कहा है कि अपीलकर्ता नित्यानंद ने परितोषण रख लिया है, जबकि अवैध रिश्वत कबाड़खाने यानी स्टोर रूम से जब्त की गई थी, न कि आरोपी व्यक्तियों के कब्जे से और यह तथ्य अपने आप में शिकायतकर्ता की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा करता है।
बयानों में विरोधाभासी
इंस्पेक्टर राजीव कुमार सिन्हा ने अपने साक्ष्य में स्वीकार किया है कि उन्होंने आरोपी नित्यानंद को कबाड़खाने की ओर जाते नहीं देखा है और इसके अलावा जिस जगह नित्यानंद बैठे थे वहां से कुछ भी फेंकना संभव नहीं है, जबकि बी पनीर सेलबम, इंस्पेक्टर, सीबीआई ने अपने साक्ष्य में कहा है कि आरोपी नित्यानंद ने शिकायतकर्ता बुडगा द्वारा प्राप्त धन को कबाड़खाने में फेंक दिया है। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि अभियोजन पक्ष के गवाह स्वयं विरोधाभासी बयान दे रहे हैं जो पूरे अभियोजन को संदिग्ध बनाता है।अपीलकर्ताओं को प्रश्नगत अपराध में झूठा फंसाया गया है।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में ये लिखा
मामले की सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि ट्रायल कोर्ट ने आईपीसी की धारा 120 (बी) और अत्याचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13 (1) (डी) के साथ धारा 7 और 13 (2) के तहत आरोप तय किए और मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य की सराहना के बाद, विद्वान ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और 13 (1) (डी) के साथ धारा 13 (2) के तहत दोषी ठहराया। इस प्रकरण में यह विवादित नहीं है कि घटना के समय दोनों आरोपीगण उपक्षेत्र प्रबंधक, सुराकछार कलिरी कार्यालय, जिला-कोरबा छ.ग. में वरिष्ठ एवं उच्च श्रेणी लिपिक के पद पर पदस्थ थे तथा शिकायतकर्ता बुडगा भी पूर्व में एसईसीएल में लोडर के पद पर पदस्थ था तथा बाद में उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था।
स्पेशल कोर्ट के फैसले को हाई कोर्ट ने किया रद्द
हाई कोर्ट ने अपने पुैसले में लिखा है , भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7, 13(1)(डी) सहपठित धारा 13(2) के अंतर्गत अपीलकर्ताओं को दी गई दोषसिद्धि और दंडादेश को एतद्द्वारा अपास्त किया जाता है। अपीलकर्ताओं को उनके विरुद्ध लगाए गए आरोपों से बरी किया जाता है।
याचिकाकर्ताओं पर कोर्ट ने लगाई ये शर्त
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता जमानत पर हैं। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437-ए (बी.एन.एस.एस. की धारा 481) के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए, अपीलकर्ताओं को निर्देश दिया जाता है कि वे दंड प्रक्रिया संहिता में निर्धारित प्रपत्र संख्या 45 के अनुसार संबंधित न्यायालय के समक्ष 25,000/- रुपये का व्यक्तिगत बंधपत्र तथा उतनी ही राशि का एक जमानतदार प्रस्तुत करें, जो छह माह की अवधि के लिए प्रभावी होगा। साथ ही, यह वचन भी देना होगा कि वर्तमान निर्णय के विरुद्ध या अनुमति प्रदान करने के लिए विशेष अनुमति याचिका दायर किए जाने की स्थिति में, उपरोक्त अपीलकर्ता इसकी सूचना प्राप्त होने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित होंगे। कोर्ट ने निर्णय की एक प्रति के साथ ट्रायल कोर्ट का रिकॉर्ड अनुपालन और आवश्यक कार्रवाई के लिए तुरंत संबंधित ट्रायल कोर्ट को भेजने का निर्देश दिया है।