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History of Bamleshwari Temple Dongargarh : बम्लेश्वरी मंदिर का पूरा इतिहास; जानिए कैसे दो प्रेमियों को मिलाने, माता ने दिए दर्शन

History of Bamleshwari Temple Dongargarh: छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले का छोटा-सा नगर डोंगरगढ़ काफी प्रसिद्ध है। वजह वही है, जो सदियों से इसकी पहचान रही है! माँ बम्लेश्वरी का प्राचीन मंदिर। डोंगरगढ़, पहले कामावतीपुरी के नाम से जाना जाता था। यह मंदिर न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश में आस्था और भक्ति का प्रमुख केंद्र है। हर साल लाखों श्रद्धालु यहां पहुँचते हैं, और नवरात्रि के दौरान तो मानो पूरा नगर देवी माँ की भक्ति में डूब जाता है। माता बम्लेश्वरी यहां मां बगलामुखी के रूप में विराजमान है।

History of Bamleshwari Temple Dongargarh : बम्लेश्वरी मंदिर का पूरा इतिहास; जानिए कैसे दो प्रेमियों को मिलाने, माता ने दिए दर्शन
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By Chirag Sahu

History of Bamleshwari Temple Dongargarh: छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले का छोटा-सा नगर डोंगरगढ़ काफी प्रसिद्ध है। वजह वही है, जो सदियों से इसकी पहचान रही है! माँ बम्लेश्वरी का प्राचीन मंदिर। डोंगरगढ़, पहले कामावतीपुरी के नाम से जाना जाता था। यह मंदिर न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश में आस्था और भक्ति का प्रमुख केंद्र है। हर साल लाखों श्रद्धालु यहां पहुँचते हैं, और नवरात्रि के दौरान तो मानो पूरा नगर देवी माँ की भक्ति में डूब जाता है। माता बम्लेश्वरी यहां मां बगलामुखी के रूप में विराजमान है।

हजार साल पुराना इतिहास

इतिहासकार मानते हैं कि डोंगरगढ़ का इतिहास लगभग एक सहस्राब्दी पुराना है। 10वीं शताब्दी में नागवंशी शासक राजा वीरसेन ने यहाँ माँ बम्लेश्वरी का मंदिर बनवाया था। राजा वीरसेन निःसंतान थे और संतान प्राप्ति की कामना से उन्होंने माँ की कठोर तपस्या की। लोककथाओं के अनुसार, माता की कृपा से जब उन्हें संतान प्राप्त हुई, तो उन्होंने अपना वचन निभाते हुए इस मंदिर का निर्माण करवाया। लगभग 1600 फीट ऊँची पहाड़ी की चोटी पर बना यह मंदिर आज भी श्रद्धालुओं के लिए वही शक्ति और आस्था का प्रतीक है, जैसा यह हजारों साल पहले था। मां बम्लेश्वरी को उज्जैन के प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी भी कहा जाता है।

मंदिर की संरचना और महत्व

बड़ी बम्लेश्वरी का मंदिर पहाड़ी की चोटी पर स्थित है, जबकि तलहटी में छोटी बम्लेश्वरी का मंदिर है। दोनों ही स्थान भक्तों के लिए समान रूप से पूजनीय हैं। बड़ी बम्लेश्वरी तक पहुँचने के लिए लगभग 1000 सीढ़ियों की चढ़ाई करनी पड़ती है। भक्त इस कठिनाई को आस्था की परीक्षा मानते हैं और पूरी श्रद्धा के साथ माता के दरबार तक पहुँचते हैं।

नवरात्रि के दिनों में मंदिर परिसर दीपमालाओं और ‘ज्योति कलश’ से जगमगा उठता है। कहा जाता है कि इन दिनों यहाँ लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। लोग दूर-दराज़ के गाँवों और शहरों से पैदल यात्राएँ कर यहाँ पहुँचते हैं।

छत्तीसगढ़ का पहला यात्री रोपवे

डोंगरगढ़ की खास पहचान यहाँ का रोपवे भी है। यह छत्तीसगढ़ का पहला यात्री रोपवे है, जो सीधे पहाड़ी की तलहटी से मंदिर की चोटी तक पहुँचाता है। ऊपर से दिखने वाले दृश्य न केवल भक्तों को रोमांचित करते हैं बल्कि इस पूरे क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता का भी अनोखा अहसास कराते हैं।

डोंगरगढ़ धार्मिक विविधता का केंद्र

डोंगरगढ़ केवल माँ बम्लेश्वरी तक सीमित नहीं है। यह नगर धार्मिक सहिष्णुता का जीवंत उदाहरण है। प्रज्ञागिरि पहाड़ी पर भगवान बुद्ध की 30 फीट ऊँची प्रतिमा स्थापित है, जो दूर से ही दिखाई देती है। जैन धर्मावलंबियों के लिए चंद्रगिरि पहाड़ी पर भगवान चंद्रप्रभु का मंदिर बना है। वहीं गुरुद्वारा, कैथोलिक चर्च और कैलवरी हिल भी नगर की पहचान का हिस्सा हैं। अलग-अलग धर्मों की मौजूदगी इस छोटे से नगर को बहुधार्मिक सांस्कृतिक केंद्र बनाती है।

भौगोलिक स्थिति और संपर्क

डोंगरगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग-6 से लगभग 25 किलोमीटर अंदर बसा है। सड़क मार्ग से यह रायपुर, दुर्ग और राजनांदगांव से जुड़ा हुआ है। डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन हावड़ा–नागपुर–मुंबई लाइन पर स्थित है, जो यात्रियों के लिए इसे और भी सुलभ बनाता है। निकटतम हवाई अड्डा रायपुर का स्वामी विवेकानंद एयरपोर्ट है, जो लगभग 100 किलोमीटर दूर है।

स्थानीय लोगों का जीवन माँ बम्लेश्वरी की भक्ति से गहराई से जुड़ा हुआ है। यहाँ त्योहार केवल धार्मिक अवसर नहीं होते, बल्कि पूरे नगर के लिए सामूहिक उत्सव बन जाते हैं।

यात्रा गाइड: डोंगरगढ़ कैसे पहुंचे

नवरात्रि और दशहरा के अवसर पर डोंगरगढ़ सबसे अधिक जीवंत रहता है। हालांकि, पूरे वर्ष यहां आस्था का माहौल बना रहता है। अक्टूबर से मार्च तक का समय मौसम के लिहाज से आदर्श है। राजनांदगांव, दुर्ग और रायपुर से नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन हावड़ा–मुंबई लाइन पर स्थित है और देश के कई शहरों से जुड़ा है, जहां से डोंगरगढ़ पहुंचा जा सकता है।

मंदिर से जुड़ी एक प्रसिद्ध लोककथा

प्राचीन काल में डोंगरगढ़ को कामाख्या नगरी के नाम से जाना जाता था। उस समय यहाँ पर राजा वीरसेन का शासन था। उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि उनके कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति की गहरी इच्छा के चलते उन्होंने माता दुर्गा और भगवान शिव की कठोर साधना की। अंततः उनकी भक्ति सफल हुई और उन्होंने नगर में मां बम्लेश्वरी मंदिर का निर्माण करवाया। उनकी तपस्या का फल उन्हें पुत्र के रूप में मिला, जिसका नाम रखा गया – राजा कामसेन।

कामसेन के शासनकाल में एक विशाल संगीत महोत्सव का आयोजन हुआ। इस आयोजन में सुप्रसिद्ध गायक माधवनल और अद्वितीय नृत्यांगना कामकंदला भी शामिल हुए। मंच पर जब लय और ताल बिगड़ने लगी तो माधवनल ने अपने ज्ञान से स्थिति को सँभाल लिया। उनकी कला से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें मोतियों की माला उपहार में दी। लेकिन माधवनल ने वह माला कामकंदला के चरणों में समर्पित कर दी। इसी क्षण उनके बीच प्रेम का जन्म हुआ।

दूसरी ओर, राजा कामसेन का पुत्र मदनादित्य भी कामकंदला के रूप और सौंदर्य से मोहित हो गया। अपने प्रिय माधवनल को किसी अनहोनी से बचाने के लिए कामकंदला ने विवश होकर मदनादित्य को झूठे प्रेम का भ्रम दिया। जब यह रहस्य सामने आया तो क्रोधित होकर मदनादित्य ने कामकंदला को राजद्रोह का दोषी ठहराकर बंदी बना लिया और माधवनल की तलाश शुरू कर दी। इस घटना ने प्रेम और सत्ता के संघर्ष को जन्म दिया।

इसी समय राजा विक्रमादित्य ने हस्तक्षेप किया। उन्होंने युद्ध और संघर्ष के बाद दोनों प्रेमियों को मिलाने का प्रयास किया। किंतु उनके सच्चे प्रेम की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने कामकंदला से कहा कि माधवनल युद्ध में मारे गए हैं। यह सुनते ही कामकंदला ने व्यथित होकर निकटवर्ती सरोवर में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए। जब माधवनल को यह दुखद समाचार मिला, तो उन्होंने भी जीवन त्याग दिया।

प्रेमियों की इस अमर बलिदान गाथा को देखकर राजा विक्रमादित्य गहराई से विचलित हुए। उन्होंने मां बगलामुखी (जिन्हें आज मां बम्लेश्वरी के नाम से पूजा जाता है) की आराधना की और विनती की कि इन दोनों को पुनः जीवन प्रदान किया जाए ताकि यह धरती प्रेम और आस्था का प्रतीक बनी रहे। देवी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और डोंगरगढ़ की ऊँचाई पर प्रकट होकर सदा के लिए विराजमान हो गईं। तभी से यह स्थान श्रद्धा और अनंत प्रेम का प्रतीक माना जाता है।

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