CG High Court News: नाबालिग को मिली थी उम्रकैद की सजा, कोर्ट ने लगाई रोक, पढ़िए कोर्ट का बड़ा फैसला
हत्या के एक मामले में ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। हाई कोर्ट का यह फैसला अब नजीर AFR बन गया है। हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को यह कहते हुए रद्द कर दिया है कि नाबालिग ने हत्या की थी। ट्रायल कोर्ट ने आजीवन कारावास का फैसला सुनाते वक्त उसकी उम्र का ध्यान नहीं रखा L। हाई कोर्ट ने माना है कि धारा 307 में न्यूनतम सात वर्ष की सजा का प्रावधान स्पष्ट रूप से नहीं है। लिहाजा इसे जघन्य नहीं बल्कि गंभीर अपराध माना जा सकता है। हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को ज्यूवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 21 का उल्लंघन माना है। हाई कोर्ट ने फैसले की कॉपी सभी बाल न्यायालय और बाल कल्याण बोर्ड को भेजने का निर्देश दिया है।

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बिलासपुर। हत्या के एक मामले में नाबालिग को व्यस्क मानकर ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाए गए आजीवन कारावास की सजा को हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया है। ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर जस्टिस संजय के अग्रवाल के सिंगल बेंच में सुनवाई हुई। जस्टिस संजय अग्रवाल ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के शिल्पा मित्तल बनाम भारत सरकार के मामले में दिए गए फैसले का भी हवाला दिया है। कोर्ट ने कहा कि किसी अपराध को जघन्य तभी माना जा सकता है जब उसमें स्पष्टतौर पर न्यूनतम सात वर्ष की सजा का प्रावधान हो। धारा 307 में स्पष्टतौर पर सात वर्ष की सजा का प्रावधान नहीं है। इसलिए इसे जघन्य अपराध की श्रेणी में न रखते हुए गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाएगा।
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में 17 वर्षीय किशोर के खिलाफ वर्ष 2017 में हत्या के प्रयास के तहत धारा 307 के तहत पुलिस ने मामला दर्ज किया था। प्रकरण दर्ज करने के बाद किशोर न्याय अधिनियम के तहत कार्यवाही करते हुए किशोर न्याय बोर्ड में चालान पेश किया था। बोर्ड ने प्रारंभिक मूल्यांकन कर किशोर की उम्र 16 से 18 साल के बीच मानते हुए, जघन्य अपराध करार दिया। इसी आधार पर मामला बाल न्यायालय को रेफर कर दिया गया। बाल न्यायालय ने किशोर को वयस्क मान सुनवाई कर 27 सितंबर 2017 को उम्रकैद और दो हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई।
बाल न्यायालय के फैसले को हाई कोर्ट में दी चुनौती
बाल न्यायालय के फैसले के खिलाफ किशोर ने बिलासपुर हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। दायर याचिका में कहा कि उसके मामले की स्वतंत्र रूप से जांच नहीं की गई है। उसे प्रारंभिक मूल्यांकन रिपोर्ट की कॉपी नहीं दी गई और ना ही रिपोर्ट पर जवाब देने का मौका दिया गया। याचिकाकर्ता ने बताया कि बाल न्यायालय ने भी स्वतंत्र रूप से जांच नहीं की। उसे स्पष्टीकरण या जवाब पेश करने का कोई अवसर नहीं दिया गया। कोर्ट ने उसे वयस्क मानकर आजीवन कारावास की सजा सुना दी।
जब अपराध गंभीर न हो तो किशोर न्याय बोर्ड में ही मुकदमे की सुनवाई करनी चाहिए
आईपीसी की धारा 307 के अंतर्गत किया गया अपराध जघन्य अपराध की श्रेणी में नहीं आता, बल्कि इसे गंभीर अपराध माना जा सकता है। यदि न्यूनतम सात वर्ष की सजा स्पष्ट हो तो ही इसे जघन्य की श्रेणी में माना जाएगा। कोर्ट ने नाबालिग को वयस्क मानकर की गई सुनवाई को कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण करार दिया।
हाई कोर्ट ने कहा कि जब अपराध गंभीर न हो तो किशोर न्याय बोर्ड में ही मुकदमे की सुनवाई करनी चाहिए। बाल न्यायालय को केस रेफर करना उचित नहीं था। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि बाल न्यायालय ने किशोर की रिहाई की संभावना को समाप्त करते हुए उम्रकैद की सजा सुना दी। JJ Act की धारा 21 का इससे उल्लंघन हो रहा है। किशोर को ऐसी कोई सजा नहीं दी जा सकती जो रिहाई की संभावना को खत्म करे। कोर्ट ने किशोर की उम्रकैद की सजा को त्रुटिपूर्ण मानते हुए निरस्त कर दिया है। हाई कोर्ट ने मामले को सुनवाई करने और फैसला सुनाने के लिए किशोर न्याय बोर्ड को वापस भेज दिया।
