Chhattisgarh Assembly Election: ...और गुम हो गए माननीय: दलबदल करने वाले इन 13 विधायकों का चौपट हुआ सियासी कैरियर, पढ़िए NPG की रिपोर्ट

Chhattisgarh Assembly Election: छत्‍तीसगढ़ की चुनावी राजनीति की चर्चा हो और उसमें दलबदल की बात न हो ऐसा नहीं हो सकता। दलबदल के कारण कई नेताओं का कॉरियटर खत्‍म हो गया है।

Update: 2023-10-22 07:12 GMT

Chhattisgarh Assembly Election: रायपुर। राजनीति में दलबदल आम बात हो गई है, लेकिन हम बात कर रहे हैं वर्ष 2001 की। छत्‍तीसगढ़ नया राज्‍य बने हुए अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि एक के बाद एक भाजपा के 13 विधायकों ने पाला बदल लिया। एक ने तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री के लिए विधायकी छोड़ दी तो बाकी 12 दलबदल कर कांग्रेस सरकार में शामिल हो गए। सरकार में गए तो कुछ को मंत्री पद मिला। लगभग दो साल तक सरकारी सुविधा का लाभ उठाया, लेकिन अलगे ही विधानसभा (2003) चुनाव में जनता ने इन्‍हें नकार दिया। 12 में केवल एक ही विधायक 2003 का चुनाव जीत पाया। लेकिन सत्‍ता का सुख इनमें से किसी को नहीं मिल पाया।

इस वजह से तोड़े गए भाजपा के विधायक

1 नवंबर 2000 को राज्‍य बना तब विधानसभा में कांग्रेस का बहुतम था। 90 सदस्‍यीय विधानसभा में कांग्रेस विधायकों की संख्‍या 48 थी, जो बहुत का आंकड़ा (46) से केवल दो ज्‍यादा था। भाजपा के 36, बसपा में 3, निर्दलीय 2, जीजीपी का एक और एक असंबद्ध सदस्‍य था।

अजीत जोगी मुख्‍यमंत्री बने, लेकिन वे राज्‍य विधानसभा के सदस्‍य नहीं थे। ऐसे में उन्‍हें राज्‍य विधानसभा का सदस्‍य बनने के लिए एक सुरक्षित सीट की जरुरत थी। तब मरवाही सीट भाजपा के पास थी। राम दयाल उइके इस सीट से विधायक थे। जोगी ने उन्‍हें सीट खाली करने यानी इस्‍तीफा देने के लिए मना लिया। उइके ने दलबदल नहीं किया बल्कि इस्‍तीफा दे दिया। इसके बाद हुए उप चुनाव में जीतकर जोगी विधानसभा के सदस्‍य बन गए।

मरवाही उप चुनाव जीतकर जोगी सदन के विधिवत सदस्‍य तो बन गए, लेकिन उन्‍हें बगावत की चिंता सताती रहती थी। वजह यह था कि जोगी विधायकों की पंसद से नहीं बल्कि आलाकमान की मर्जी से मुख्‍यमंत्री बनाए गए थे। ऐसे में जोगी को लगता था कि कभी भी उनके विधायक दूसरे को मुख्‍यमंत्री बना लेंगे। सरकार में अपने भरोसेमंद विधायकों की संख्‍या बढ़ाने के लिए जोगी ने भाजपा के विधायकों के बीच सेंध लगा दिया। भाजपा के 36 में से एक विधायक उइके पहले ही इस्‍तीफ दे चुके थे। अब सदन में भाजपा के पास 35 विधायक बचे थे। इनमें कई दिग्‍गज नेता शामिल थे जो लगातार चुनाव जीत रहे थे।

भाजपा के विधायकों में सबसे चर्चित नाम तरुण चटर्जी का है। चटर्जी रायपुर ग्रामीण सीट से विधायक होने के साथ ही रायपुर नगर निगम के महापौर भी थे। चटर्जी और भाजपा के 11 अन्‍य विधायकों ने मिल‍कर पहले अलग पार्टी बनाई। नाम दिया छत्‍तीसगढ़ विकास पार्टी। इसके बाद इस पार्टी को कांग्रेस में मर्ज (विलय) कर दिया गया।

भाजपा से कांग्रेस में जाने वाले विधायकों में तरुण चटर्जी के साथ गंगूराम बघेल, प्रेमसिंह सिदार, शक्राजीत नायक, डॉ. हरिदास भारद्वाज, रानी रत्नमाला, श्यामा ध्रुव, मदन सिंह डहरिया, डॉ. सोहनलाल, परेश बागबहरा, लोकेंद्र यादव, और विक्रम भगत शामिल थे।

किसी को नहीं मिला सत्‍ता का सुख

दलबदल करने वाले 12 विधायकों और राम दयाल उइके अब तक सत्‍ता का सुख नहीं मिला है। इन 13 में से 9 को 2003 के चुनाव मे टिकट मिला। 7 हार गए। पाली तानाखार से उइके और रायगढ़ से शक्रजीत नायक चुनाव जीते, लेकिन तब कांग्रेस विपक्ष में चली गई। नायक 2008 में भी कांग्रेस की टिकट पर जीते, लेकिन सत्‍ता का सुख नहीं मिला। उइके 2008 और 2013 दोनों चुनाव कांग्रेस की टिकट पर जीते लेकिन कांग्रेस सत्‍ता से बाहर रही। 2018 का चुनाव उइके भाजपा की टिकट पर लड़े लेकिन हार गए।

जानिए...दलबदल करने वाले 12 विधायकों की कहानी

तरुण चटर्जी : 1980 में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार रायपुर ग्रामीण से जीत दर्ज की थी। 1998 तक वे इस सीट से लगातार विधायक रहे। कांग्रेस छोड़कर वे जनता दल और फिर भाजपा में शामिल हुए। रायपुर के महापौर भी रहे। दलबदल करने के बाद जोगी सकरार में पीडब्‍ल्‍यूडी मंत्री बने। लेकिन 2003 में हार गए। इसके बाद वे राजनीति से ही किनारे हो गए।

गंगूराम बघेल : आरंग से 1993, 1998 में भाजपा के टिकट से जीते थे। दलबदल कर जोगी शासन में मंत्री बने। 2003 में कांग्रेस के टिकट से लड़े तो चुनाव हार गए।

मदन डहरिया : 1998 में मस्तूरी से भाजपा विधायक चुने गए थे। दलबदल किया। इसके बाद 2003 और 2008 में वे कांग्रेस के टिकट से लड़े, लेकिन हार गए।

श्यामा ध्रुव : कांकेर से भाजपा के टिकट पर 1998 में चुनाव जीती। 2003 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव हार गई।

प्रेम सिंह सिदार : लैलूंगा से 1993 और 1998 में भाजपा के टिकट से जीते थे। दलबदल करने के बाद 2003 में कांग्रेस से लड़े और हार गए।

लोकेन्द्र यादव : 1998 में भाजपा से बालोद में चुनाव जीते थे। कांग्रेस में आने के बाद 2003 में हार का सामना करना पड़ा। 2008 में फिर दल बदला और सपा के टिकट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए थे।

विक्रम भगत : 1984 में भाजपा के टिकट से जशपुर के विधायक बने। वे यहां के लगातार चार बार विधायक रहे। जोगी शासनकाल में कांग्रेस में शामिल हुए। इसके बाद 2003 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और हार गए।

डॉ. शक्राजीत नायक : 1998 में भाजपा के टिकट से सरिया सीट से जीते। जोगी सरकार में मंत्री बने। 2003 और 2008 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीते। 2013 में हार गए।

डॉ. हरिदास भारद्वाज : 1998 से भटगांव से भाजपा के टिकट से जीते। 2008 में कांग्रेस से सरायपाली से जीते। 2013 में कांग्रेस के टिकट से लड़े और हार गए।

रानी रत्नमाला : चंद्रपुर से 1998 में भाजपा से जीतीं। कांग्रेस में चली गईं, फिर चुनाव ही नहीं लड़ीं।

डॉ. सोहनलाल : सामरी सीट से 1998 में भाजपा के टिकट से चुनाव जीते। इसके बाद इन्हें टिकट ही नहीं मिला।

परेश बागबाहरा : 1999 उपचुनाव में भाजपा के टिकट से विधायक चुने गए थे। दलबदल के आठ साल बाद यानी 2008 में कांग्रेस ने इन्हें खल्लारी से चुनाव लड़ाया और इन्होंने पार्टी को जीत दिलाई, लेकिन अगला चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद बागबाहरा जनता कांग्रेस से जुड़े और वहां से भाजपा में शामिल हो गए।

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