Chanakya Niti: स्त्रियों का आहार पुरुषों से दोगुना और कामवासना आठ गुना होता है...चाणक्य ने ऐसा क्यों कहा, समझिए इस श्लोक से...
Chanakya Niti: स्त्री यानी घर की धूरी, परिवार को एक सूत्र में बांधने वाली डोर। रिश्तों के जाल को सुलझाती... खुद के जीवन को होम करती स्त्री को लेकर आचार्य चाणक्य के उत्तम विचारों को प्रकट करता है उनका रचा यह श्लोक। आइए जानते हैं इस संस्कृत श्लोक का सही अर्थ।
- स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा।
- साहसं षड्गुणं चैव कामोsष्टगुण उच्यते।।
मोटे तौर पर इस श्लोक का जो अर्थ लगाया जाता है, वह यह है कि स्त्री, पुरुष से दोगुना आहार लेती है,बुद्धि चौगुनी, साहस छह गुना और कामवासना आठ गुना होती है। लेकिन आचार्य ने जो व्याख्या की है, उसका सार कुछ अलग है।
आहार- चाणक्य सूत्र की गलत व्याख्या के आधार पर मज़ाक बनाया जाता है कि स्त्री को दोगुना खाना चाहिए। आचार्य कहते हैं- स्त्रियों को दैनिक जीवन में जिन ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करना होता है और उनके शरीर को प्रजनन की जो जिम्मेदारी उठानी होती है, अलावा इसके उनके शरीर में उम्र के साथ जो बदलाव होते हैं, उस हिसाब से उन्हें अतिरिक्त पौष्टिक आहार की ज़रूरत है।
बुद्धि- चाणक्य कहते हैं कि स्त्री को परिवार को चलाने के लिए अलग-अलग किस्म और स्वभाव वाले लोगों के साथ तालमेल बिठाना होता है। उसके अनुभवों से उसकी बुद्धि बहुत पैनी हो जाती है। इसलिए कठिन क्षणों में वह स्थिति का सही आकलन कर सही दिशा में कार्य करने का उपाय बताने में सक्षम होती है।
साहस- स्त्री का मूल है उसका भावना प्रधान होना। भावनाओं की तीव्रता उसमें साहस का संचार करती है। तभी तो इंसानों से लेकर जानवरों तक में अपनी संतान पर संकट आने पर स्त्री खुद से अति बलशाली से भी जूझ लेती है।
कामवासना - कामवासना होती है आठ गुना, पढ़कर ही अटपटा सा लगता है। चाणक्य के अनुसार स्त्री की काम दशा में भी भाव प्रधान है। स्त्री उसका परिष्कार करती है। श्रीकृष्ण ने भी इसे ' धर्मानुकूल काम' कहा है। जैसे धरती अपशिष्ट पदार्थो को खाद में बदल लेती है। वैसे ही पतिव्रता स्त्री संसार और संबंध के संचालन के लिए काम भावना को परिष्कृत अर्थ में लेती है। उसे बोध है कि उसका स्त्री रूप में जन्म एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए है। एक नए जीव की उत्पत्ति का भार उसकी देह को उठाना है। प्रजनन के महती उद्देश्य से वह 'काम' के महत्व और आवश्यकता को शिरोधार्य करती है।
यही नहीं जैसे शिव और शक्ति एक होकर पूर्ण होते है, वैसे ही वह भी पुरुष के संसर्ग से पूर्ण होती है। यह स्वयं उसके लिए और संसार के संचालन दोनों के लिए आवश्यक है। पतिव्रता स्त्री 'काम' में दोष नहीं, पूर्णता ढूंढती है। चाणक्य ने कहा है, महिलाओं में कामवासना अधिक होती है मगर लज्जा और सहनशीलता के चलते वे इसे व्यक्त नहीं कर पाती। दूसरा धर्म और संस्कार उन्हें रोकता है।