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मोतीलाल वोरा की अनसुनी कहानियां : …एयरपोर्ट पर हुआ था मोतीलाल वोरा के मुख्यमंत्री बनने का ऐलान….मंत्री बनने की कर रहे थे सिफारिश, सीधे मुख्यमंत्री बना दिया गया…. पत्रकार ऐसे बना पार्षद और फिर मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक का किया सफर पूरा… पढ़िये उनकी राजनीति के ऐसे किस्से जो कभी नहीं सुने होंगे

मोतीलाल वोरा की अनसुनी कहानियां : …एयरपोर्ट पर हुआ था मोतीलाल वोरा के मुख्यमंत्री बनने का ऐलान….मंत्री बनने की कर रहे थे सिफारिश, सीधे मुख्यमंत्री बना दिया गया…. पत्रकार ऐसे बना पार्षद और फिर मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक का किया सफर पूरा… पढ़िये उनकी राजनीति के ऐसे किस्से जो कभी नहीं सुने होंगे
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By NPG News

रायपुर 21 दिसंबर 2020। छत्तीसगढ़ की राजनीति के दिग्गज नेता मोतीलाल वोरा अब नहीं रहे। 93 साल की उम्र में अंतिम सांस लेने वाले बाबूजी ने एक पत्रकार के तौर पर अपनी जिंदगी शुरू की थी। पत्रकार से लेकर पार्षद…फिर विधायक, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, प्रदेश अध्यक्ष के साथ-साथ संगठन के शीर्ष पदों तक पहुंचे मोतीलाल वोरा की राजनीति से जुड़े कई अनसुने किस्से हैं। आइये देखते हें उनकी राजनीति का वो दिलचस्प किस्सा… जो शायद आपने अब तक नहीं सुनी होगी..

9 मार्च, 1985. अर्जुन सिंह ने अपने नेतृत्व में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद दोबारा मुख्यमंत्री-पद की शपथ ली. 10 मार्च. अर्जुन मंत्रिमंडल की सूची कांग्रेस हाईकमान से मंजूर करवाने के लिए दिल्ली गए…… पर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें पंजाब का गवर्नर बनने का आदेश दिया. जाते-जाते ये जरूर कहा – अपनी पसंद के मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का नाम बता दो….. फिर 14 मार्च को पंजाब पहुंच जाओ.

अर्जुन सिंह कमरे से बाहर निकले और जिस जहाज से आए थे, उसको तुरंत भोपाल वापस भेजा. बेटे अजय सिंह को फोन किया. तुरंत मोतीलाल वोरा को दिल्ली लाने के आदेश दिए. रास्ते में जो हुआ वो मजेदार था. मोतीलाल वोरा अजय से खुद को कैबिनेट मंत्री का पद दिलाने की सिफारिश कर रहे थे, पर उन्हें क्या पता था कि वो यहां मंत्री पद के लिए लगे हैं और वहां दिल्ली में मुख्यमंत्री का पद उनका इंतजार कर रहा है. एयरपोर्ट से वोरा सीधे मध्यप्रदेश भवन पहुंचे. वहां अर्जुन सिंह, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह उनका इंतजार कर रहे थे खाने पर। खाने के बाद चारों फिर रवाना हुए पालम हवाई अड्डे. वहां राजीव गांधी रूस की यात्रा पर जाने को तैयार बैठे थे। राजीव ने मोतीलाल वोरा को पास बुलाया. और बोले

‘आप अब मुख्यमंत्री हैं.’

वोरा उस वक्त प्रदेश अध्यक्ष थे. उनकी जगह प्रदेश अध्यक्ष का ये पद मिला दिग्विजय सिंह को. सब अर्जुन के हिसाब से हुआ. कहते हैं अर्जुन की विदाई का मन राजीव ने पहले ही बना लिया था. उन्हें नई जिम्मेदारी देने की बात भी कह दी थी. तभी अर्जुन के कहने पर राजीव ने उन्हें 10 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की छूट दी. ताकि ये न लगे कि उन्हें एमपी की राजनीति से बाहर किया जा रहा है।

वोरा के मुख्यमंत्री बनने के बाद मंत्रिमंडल बनाने की बारी आई. यहां अर्जुन सिंह की चली. वोरा कुछ नहीं कर पाए. जब अर्जुन सिंह ने दोबारा सीएम की शपथ ली, तब कुछ वरिष्ठ नेता भी मंत्री पद की शपथ लेते नजर आए. इस पर वोरा ने दोस्तों से टिप्पणी की-

‘जाने क्यों ऐसे भ्रष्ट लोगों को अर्जुन सिंह मंत्रिमंडल में रखे हुए हैं. इनके बारे में बहुत शिकायतें हैं. यदि मैं मुख्यमंत्री होऊं तो ऐसे लोगों को हरगिज जगह न दूं. इससे कांग्रेस की बदनामी होती है.’

और अब हफ्ते भर के अंदर वही मंत्री मोतीलाल वोरा की परिषद का हिस्सा बन रहे थे.

20 दिसंबर 1928 को वोरा का जन्म राजस्थान के नागौर में पड़ने वाले निंबी जोधा में हुआ था। जिसके बाद घर वाले तत्कालीन मध्यप्रदेश, अब छत्तीसगढ़ आ गये। उनकी पढ़ाई रायपुर और कोलकाता में हुई. फिर मोतीलाल वोरा पत्रकार बन गये। साइकल से चलते थे और नवभारत टाइम्स सहित कई बड़े अखबारों के लिए पत्रकारिता करते थे। फिर पत्रकार रहते हुए ही राजनीति में एक्टिव हो गए. उन्होंने सबसे पहले समाजवादी पार्टी का झंडा उठाया। 1968 में दुर्ग से पार्षद चुने गये । किस्मत ने पलटी मारी 1972 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त…… दरअसल एमपी के धुरंधर और पूर्व मुख्यमंत्री द्वारकाप्रसाद मिश्र दुर्ग में नया प्रत्याशी ढूंढ रहे थे. वजह, सिटिंग विधायक मोहनलाल बाकलीवाल का मिश्र के विरोधी मूलचंद देशलहरा गुट का होना था. किसी ने कहा, प्रसोपा के पास एक लड़का है. सभासद है. वो चुनाव निकाल सकता है. डीपी ने संदेश भिजवाया. मोतीलाल वोरा ने फौरन वफादारी बदली औऱ कांग्रेस में आ गए. फिर चुनाव जीत विधायक बने.

1972 के चुनाव के बाद भी इंदिरा दरबार से, यानी दिल्ली से भेजे गए पीसी सेठी ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. वोरा जल्द उनके करीब आ गए. इसका इनाम मिला. सेठी ने वोरा को राज्य परिवहन निगम का उपाध्यक्ष नियुक्त किया. इसके अध्यक्ष थे सीताराम जाजू. परिवहन के अधिकारियों ने तब बड़े शहरों के दौरों का एक कार्यक्रम तैयार किया. अध्यक्ष जाजू की उम्र हो गई थी और वोरा उनके विश्वस्त भी हो चुके थे. सो उन्होंने इस कार्यक्रम को मंजूरी दी और खुद जाने की बजाय वोरा का नाम प्रस्तावित कर दिया. और अब देखिए वोरा का स्टाइल. उन्होंने सारा कार्यक्रम ही रद्द कर दिया. अधिकारियों को बुलाया और बोले –

‘जब मैं एक छोटी ट्रांसपोर्ट कंपनी चलवाता था, तब मोटरपार्ट्स विक्रेता मेरे चक्कर लगाया करते थे. अब तो इतना बड़ा प्रतिष्ठान हाथ में है. तो भला मैं क्यों जाऊं महानगरों का दौरा करने? जिसे अपना माल बेचना होगा, वह खुद मेरे पास चलकर आएगा.’

ऐसा नहीं कि वोरा सिर्फ डायलॉग मारने तक सीमित रहे. कुछ सेठी का मैनेजमेंट, कुछ वोरा की मेहनत, मध्य प्रदेश के रोडवेज डिपार्टमेंट ने पहली बार मुनाफा कमाया. फिर इमरजेंसी आई और उसके बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार. राज्य में चुनाव हुए तो कांग्रेस के श्यामाचरण शुक्ल सरीखे सिटिंग सीएम समेत कई दिग्गज हार गए. मगर वोरा कांग्रेस विरोधी लहर में भी दुर्ग से 54 फीसदी वोट पाकर जीते. 1980 की जनता विरोधी लहर में उनका आंकड़ा बढ़कर 64 फीसदी हो गया.

इस चुनाव के बाद एमपी का ताज मिला अर्जुन सिंह को. वोरा को लगा, लगातार तीन बार का विधायक हूं, मंत्री बनूंगा. मगर ऐसा नहीं हुआ. फिर अगले एक साल वोरा ने अर्जुन सिंह की गणेश परिक्रमा की. तब जाकर 1981 में वह राज्यमंत्री बने. उच्च शिक्षा विभाग मिला. वोरा ने तत्परता दिखाते हुए कई कॉलेज खोले, कई निजी कॉलेजों का अधिग्रहण किया. सरकार की वाहवाही हुई तो अर्जुन ने भी शाबाशी दी. फीकी फीकी नहीं. 1983 में कैबिनेट मिनिस्टर बनाकर. अब वोरा अर्जुन सिंह के सबसे खास बनने की राह पर थे. अर्जुन को भी राज्य का ठाकुर-ब्राह्मण समीकरण साधने के लिए एक भरोसेमंद लेकिन आज्ञाकारी ब्राह्मण चेहरे की जरूरत थी. वोरा ने उसे पूरा किया.

एक हार, एक निधन, एक प्रमोशन

अर्जुन सिंह के पहले कार्यकाल (1980-1985) के दौरान जबलपुर के सांसद मुंदर शर्मा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे. उनके कार्यकाल में सागर की सांसद और वेटरन कांग्रेसी सहोदरा बाई राय का निधन हो गया. उपचुनाव हुए तो बीजेपी के रामप्रसाद अहिरवार ने बाजी मारी. हार की तोहमत मुंदर पर मढ़ी गई. इसके कुछ ही दिनों उनका निधन हो गया. फिर तलाश शुरू हुई नए अध्यक्ष की. दो नाम सामने आए. विधानसभा के स्पीकर राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल और उच्च शिक्षा मंत्री मोतीलाल वोरा. मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने वोरा का नाम भेजा और वह बन गए.

आप सोच रहे होंगे कि वोरा इस प्रमोशन से खुश हुए होंगे. मगर सब नेता ऐसा नहीं सोचते. ज्यादातर को लगता है कि अपनी पार्टी की सरकार में जलवा सीएम का होता है, प्रदेश अध्यक्ष का नहीं. इसलिए कैबिनेट मंत्री ही बने रहना बेहतर है. ऐसा नेताओं को यूपी के राजनाथ सिंह से सबक लेना चाहिए. जिन्होंने अध्यक्षी करते हुए ही कल्याण सिंह के किले को ध्वस्त कर दिया था और सीएम बने थे. खैर, अर्जुन सिंह ने वोरा की चिंता दूर की एक आश्वस्ति के साथ. कि आपका बंगला, फोन और कार बने रहेंगे.

अर्जुन सिंह, दिल्ली छोड़ो

वोरा के कार्यकाल में क्या गिनाया जाए. शिक्षा पर फोकस रहा. बाकी शुरुआती महीनों में वल्लभ भवन यानी एमपी ब्यूरोक्रेसी को निर्देश चंडीगढ़ के राजभवन में बैठे अर्जुन सिंह के दूतों से मिलते थे. वोरा बस उन पर अमल करते थे. फिर वोरा ने अपना खेमा बनाना शुरू किया. अर्जुन सिंह से अनबन भी हुई. और इसके बाद फरवरी 1988 में अर्जुन सिंह राज्य में लौट आए. बतौर सीएम. इस बदलाव की दो वजहें गिनाई गईं. पहली, राजीव को लगा कि वोरा 1989 में पार्टी को लोकसभा नहीं जिता पाएंगे. उनकी छवि कमजोर सीएम की है. वह राज्य में पार्टी के अलग अलग गुटों को साध नहीं पा रहे. दूसरी, अर्जुन सिंह राज्य में वापसी को बेताब थे. कुछ महीनों की गवर्नरी के बाद वह दिल्ली में पैर जमा चुके थे. हालांकि कुछ हिचकोलों के साथ. मंत्री बने, हटे तो पार्टी उपाध्यक्ष बने और उसके बाद फिर मंत्री. दिल्ली के पुराने दरबारियों को अर्जुन का राजधानी में रहना अपनी सियासत के लिए खतरा लग रहा था.

मोतीलाल-सिंधिया सुपरफास्ट एक्सप्रेस डिरेल्ड

अर्जुन सिंह भोपाल आए तो वोरा दिल्ली गए. राज्यसभा सांसद बनकर. राजीव ने उन्हें अपनी कैबिनेट में हेल्थ मिनिस्टर बना दिया. मगर ये सब 11 महीने ही रहा. वेरी वेरी लकी वोरा पर किस्मत का सितारा फिर मेहरबान हुआ. अर्जुन सिंह चुरहट लॉटरी कांड में फंस गए और हाईकमान ने उनका इस्तीफा मांग लिया. फिर मुख्यमंत्री खोज शुरू. अर्जुन सिंह ने इस बार अपने खास और पार्टी प्रदेश अध्यक्ष दिग्विजय सिंह का नाम बढ़ाया. दूसरी तरफ से माधवराव सिंधिया का नाम बढ़ाया गया. फिर बनी टकराव की स्थिति. राजा वर्सेस महाराज. उधर वोरा ने 11 महीने में दरबार में एंट्री पा ली थी. सो आखिरी में समझौता कैंडिडेट के तौर पर चुनावों तक उन्हें गद्दी सौंप दी गई. एक समझाइश के साथ. कि सिंधिया जी को खुश रखें.

25 जनवरी 1989 को वोरा ने फिर शपथ ली. और उसके बाद माधवराव सिंधिया के साथ प्रदेश के तूफानी दौरे शुरू किए. ये लोकसभा चुनाव के पहले माहौल बनाने की कोशिश थी. प्रेस ने इस जोड़ी को नाम दिया मोतीलाल-सिंधिया एक्सप्रेस.ये एक्सप्रेस लोकसभा चुनाव में डिरेल हो गई. एमपी में कांग्रेस के बस आठ सांसद जीते. बीजेपी को 27 सीटें हासिल हुईं. राजीव ने एक बार फिर ताश के पत्ते फेंटने शुरू किए. चार राज्यों के मुख्यमंत्री रवाना कर दिए गए. इस लिस्ट में वोरा भी थे. इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली एक साल पहले, 11 साल का वनवास काट पार्टी में लौटे श्यामाचरण शुक्ल को. अर्जुन सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर एडजस्ट कर दिया गया. ब्राह्मण-ठाकुर समीकरण कायम रहा. मगर ये सब मध्य प्रदेश विधानसभा में हार न बचा सका.

एमपी नहीं, अब यूपी संभालिए

एमपी की राजनीति से हटकर वोरा फिर से दिल्ली में एक्टिव थे. संगठन पॉलिटिक्स में. राजीव के बाद नरसिम्हा राव का दौर आया तो उनकी पूछ बढ़ गई. राव को अर्जुन की काट के लिए जो हथियार चाहिए थे, वे वोरा मुहैया कराते. फिर राव ने उन्हें 26 मई 1993 को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण यूपी का गवर्नर बनाकर भेजा. महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि उनके तीन साल के कार्यकाल में लंबा समय राष्ट्रपति शासन का रहा. यानी गवर्नर ही बॉस था.

1996 में राज्यपाल से हटे तो फिर एमपी की सियासत में लौटे. 1999 के चुनाव में आज के छत्तीसगढ़ की राजनंदगांव सीट जीते. दिल्ली पहुंचे तो पाया कि राव-केसरी युग बीत चुका है. अब सोनिया बॉस हैं. वोरा ने राजीव के दिनों की वफादारी याद की और सोनिया कोटरी में भी एंट्री पा ली. सोनिया को भी ऐसे ओल्ड गार्ड की जरूरत थी, जिसकी जरूरत से ज्यादा राजनीतिक महात्वाकांक्षा न हों.

वोरा वैसे ही व्यक्ति थे. वैसे भी 1999 के लोकसभा चुनाव में रमन सिंह के हाथों हारने के बाद उन्हें पुनर्वास की जरूरत थी. सोनिया ने 2002 में उन्हें राज्यसभा भेज दिया. हालांकि इससे दो साल पहले साल 2000 में जब छत्तीसगढ़ बना तो सीएम के दावेदारों में अजीत जोगी और श्यामाचरण के साथ उनका भी नाम उछला. मगर एक सियासी अफवाह की तरह.

वोरा लगभग दो दशक पार्टी के कोषाध्यक्ष और गांधी परिवार के खास रहे. बढ़ती उम्र का हवाला देकर राहुल ने 2018 में उन्हें इस जिम्मेदारी से मुक्त किया. आज दोपहर उनका निधन दिल्ली के फॉर्टिज अस्पताल में हो गया।

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