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“ऐसा दौर जब दूरियों में सिमट गए रिश्ते”

“ऐसा दौर जब दूरियों में सिमट गए रिश्ते”
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By NPG News

नथमल शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

अरपा की बहुत अनदेखी की हमने । अब भी कर रहे हैं । सूख गई अरपा पर हमें पानी अब भी दे रही है । बहुत दूर पुणे में देवकांत के पिता अपने गांव, अपनी अरपा को याद करते हुए चले गए इस दुनिया से । बेटे से कह गए कि जहां जिंदगी गुज़ारी है वहीं मेरा दशकर्म करना । देवकांत दुःखी है । अनचाहे लाकडाऊन में फंसा है । कैसे लौटे गांव ?
कोविड 19 का दुःख । कल्याणकारी सरकारें अपना काम कर रही है । अफ़सर हर आदेश पर लिखे हर्फों पर ही चल रहे हैं । संवेदना से परे । देवकांत के लिए ये शब्द रास्ता नहीं दे रहे । वह अपने पिता की अस्थियां लिए पुणे में आंसू बहा रहा है । तेलीपारा में रहने वाले देवकांत शिक्षक है । जिंदगी का ककहरा सिखाते हैं वे बच्चों को । पास के गांव में उनके पिता रहते हैं । पिता को कैंसर हो गया । इलाज़ के लिए मुंबई ले गए थे । इलाज़ हुआ भी पर बचा न सके । पुणे चले गए बीमार पिता को लेकर । वहीं उन्होंने आखिरी सांस ली । कोविड 19 ने दूरियां बढ़ा दी है । हालांकि उससे भी पहले हम लोग रिश्तों का रस सूखते देख रहे हैं । निजी स्वार्थ हावी है रिश्तों पर । सामाजिक संबंध तो दूर की बात खून के रिश्ते पानी पानी हो गए । एक आंगन में पले – बढ़े भाई बहन बड़े होकर (उम्र में) पराए से होने लगे । देवकांत ने पुणे में इसे और बेहतर तरीके से अनुभव किया जब उसके पिता को कांधा देने चार लोग नहीं जुट पाए । अनजान शहर में अपने भतीजे के साथ किसी तरह अंतिम संस्कार किया । ऑनलाइन आवेदन कर दिया कि गांव लौटना है । सब कागज़ात भी संलग्न कर दिए । अब कम्प्यूटर तो संवेदनशील होता नहीं न । वह निर्मम ही बना हुआ है । कैसे पहुंचे उस शिक्षक को समझ नहीं आ रहा है । मंज़िल पर पहुंचने का रास्ता बताते हैं शिक्षक । कुछ शिष्य (नहीं विद्यार्थी ) पहुंच भी जाते हैं मंज़िल तक । वही शिक्षक आज अपने गांव का रास्ता खोज रहा है । कोविड 19 ने किस तरह समेट दिया है देश दुनिया को । देवकांत का यह दर्द तो सामने आ गया क्योंकि मीडिया में कुछ संवेदनशीलता बची है । कुछ अभी भी सरोकार की पत्रकारिता कर रहे हैं । लिखते समय कोविन कार्टर की याद आ गई । पुलित्जर सम्मान से सम्मानित दक्षिण अफ्रीका के प्रेस फोटोग्राफर कार्टर । सूडान में भयानक अकाल के दिन । एक भूखी सूडानी बच्ची रोटी ढूंढ रही थी । उसी के पीछे एक गिद्ध चल रहा था कि यह मरे तो भूख मिटाऊं । और कोविन कार्टर अपना कैमरा लिए चल रहे थे कि लपकते गिद्ध की फोटो ले सकें । भूख से लड़ती उस सूडानी बच्ची को गिद्ध ने दबोच लिया । इधर कोविन कार्टर का कैमरा क्लिक हुआ । यह तस्वीर पूरी दुनिया में छपी । बहुत प्रसिद्धि मिली कोविन को । पुलित्जर सम्मान भी मिला । पर इस तस्वीर को खींचने के बाद से ही कोविन को बहुत ग्लानि हुई कि शायद मैं उस बच्ची को बचा लेता । तस्वीर खींचने के बजाय उसे बचाना था । इससे वे नहीं उबर सके और आत्महत्या कर ली । सिर्फ़ तैंतीस बरस के थे कोविन कार्टर । आज भी तो इस कोविड 19 में रोटियां बांटने के बजाय बांटते हुए तस्वीरें खिंचवाना जरूरी है । फिर भी कोई है जिसे देवकांत का दुःख दिखा । इस कोविड 19 में ऐसी आपदा न जाने कितने ही लोग झेल रहे हैं । चाह कर भी अपनों से मिल नहीं पा रहें हैं । बहुत से ऐसे भी हैं जो किसी अपने को अंतिम विदाई भी नहीं दे पा रहे हैं । वाट्स अप पर अपने छोटे से स्क्रीन पर श्मशान में जलती लकड़ियां देखते हैं और इधर आंखें नम करते हैं । आखिरी सफ़र पर गए किसी बहुत अपने, बहुत अज़ीज़ को इसी स्क्रीन पर प्रणाम करते हुए अपना बचपन याद करते हैं । उस बुजुर्ग ने कब पहली घड़ी दिलाई थी याद करते हैं और वक्त को कोसते हैं कि उसने उस घड़ी की सुइयों को क्यों रोक दिया । अपने उस घर के आंगन को याद करते हैं जहां नीम का पेड़ लगाया था जो आज पूरे घर को छांव दे रहा है पर उस बुजुर्ग ने अपनी छांव हटा ली । चले गया अनंत की यात्रा पर । इस कोविड 19 में ऐसे दुख के किस्से (सच्चे ) भरे पड़े हैं । पर दुनिया पर कब्ज़े की कवायद में लगी निष्ठुर सत्ताएं इसे क्यों देखे ? जब हम ही इतने निर्मम हो गए कि अपनी अरपा को ही नहीं देखते तो वे तो राजनीति की बिसात पर अपनी कुर्सियाँ जमाए हुए बैठे हैं । ऐसी हर कुर्सी के पाए तले न जाने कितनी भूख कुचली हुई है । खून से सनी इन कुर्सियों से कोई वैक्सीन निकल भी जाए और कोविड 19 से हम जीत भी जाएं तो क्या ? अपने से तो हम कब हार चुके हैं खुद हमें ही नहीं पता । इसलिए कौन कह सकता है कि कोविड 19 के बाद अगला विषाणु नहीं आएगा । दुनिया के चौधरी बनने की कुत्सित लालसा ने देशों को उजाड़ दिया है । और हम हैं कि अपना घर भी नहीं संवार पा रहे । देवकांत का साथ देने कोई नहीं आ रहा । हो सकता है किसी का दिल पसीजे और उस शिक्षक के आने का इंतज़ाम हो भी जाए । उसके पिता का अपने गांव में दशगात्र भी हो जाए । पर जरूरी है कि रिश्तों का सुख लौटे । हम महसूस कर सकें कि अरपा हमारी वज़ह से आज सूख गई है । तय करें कि उसमें फ़िर कलकल धारा बहे । वही धारा तो रिश्तों में नमी बनाए रखेगी ।अपने घरों में हम अपनी अरपा का ही पानी पी रहे हैं फिर इतने नाशुक्रे कैसे हो गए कि उसके सूख जाने पर आंख नहीं भर आती । देवकांत शिक्षक की व्यथा भी तो इसीलिए है कि किसी की आंख में पानी नहीं ।इस कोविड 19 के दुख से जूझ तो सभी रहे हैं पर जरूरी है कि इससे कुछ सीख भी लें । एक बार गांव के अपने घर के उस नीम को देख आएं । दूरियों से उपजे इस दुःख को कुछ छांव मिलेगी शायद ।
पुनश्च:- इन पंक्तियों के पूरा
करते-करते कमाऊ
टीवी स्क्रीन पर एक
ख़बर चिल्लाई जा
रही है कि गांव लौटते
समय एक मजदूर की
मौत हो गई । सड़क
किनारे उसकी लाश
पड़ी है। कैमरा उसे
धुंधला करके दिखा
रहा है । उसकी पत्नी
रो रही है पर न्यूज़
एंकर की तीखी
आवाज़ में उसका
रूदन दब गया है ।वह
मज़दूर छत्तीसगढ़ का
नहीं पर भारत का है ।

लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और बिलासपुर के सांध्य दैनिक इवनिंग टाइम्स के संपादक हैं
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