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वो चुनाव जिसके बाद ख़त्म हो गई एक परिवार की पचास बरसों की राजनैतिक बादशाहत.. जहां नेपाल और ये कहावत फायरब्रांड नारे बने – कहाँ राजा भोज..कहाँ गंगू तेली

वो चुनाव जिसके बाद ख़त्म हो गई एक परिवार की पचास बरसों की राजनैतिक बादशाहत.. जहां नेपाल और ये कहावत फायरब्रांड नारे बने – कहाँ राजा भोज..कहाँ गंगू तेली
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By NPG News

रायपुर,20 जुलाई 2020।वक्त..सन् 1998 के विधानसभा चुनाव का.. आज के छत्तीसगढ़ और तब के मध्यप्रदेश में एक विधानसभा ऐसी थी जहां चुनावी नारों में “नेपाल” की मौजुदगी थी, तो वहीं हिंदी पट्टी में पढ़ी और बोली जाने वाली कहावत भी ख़ूब कही बोली गई जिसमें कहा गया है -“कहाँ राजा भोज.. कहाँ गंगू तेली। हालाँकि इस चुनाव के नतीजों ने एक परिवार की पचास सालों का राजनैतिक क़ब्ज़ा ख़त्म कर दिया। ये जगह थी सक्ती। आज के जांजगीर चाँपा ज़िले का वो इलाक़ा जहां पर सक्ती राजपरिवार का दबदबा सन् 1952 से जो बना तो वो जादू टूटा 1998 में।
सक्ती राजपरिवार आदिवासी पृष्ठभूमि का है, और पचास बरस तक इस सामान्य कोटे की सक्ती विधानसभा सीट पर राजमहल का क़ब्ज़ा बरकरार रहा।लेकिन 1998 के चुनावी नतीजों ने इस लगातार जारी क़ब्ज़े वाले महल रथ को रोक दिया, और जीत दर्ज की मेघाराम साहू ने।


सक्ती महल के रिश्ते नेपाल से हैं, दरअसल सक्ती राजपरिवार का मामा या कि ननिहाल पक्ष नेपाल का है।नतीजतन जब चुनाव आया तो नारों में “नेपाल” ने जगह बनाई, हालाँकि शायद यह नारा अस्तित्व में नहीं आता लेकिन तब सक्ती राजपरिवार की ओर से चुनावी मंच से उस कहावत ने नारे का शक्ल ले लिया जिसमें कहा गया-“कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली।


यह कहावत नारे के रुप में यूँ ही नही चलन में आ गया, दरअसल सक्ती राजा के सामने जो उम्मीदवार थे वे थे मेघाराम साहू। मेघाराम साहू तेली समुदाय का प्रतिनिधित्व करते थे। लगातार जीत की वजह से स्वाभाविक रुप से आत्मविश्वास से लबरेज़ राजा सक्ती सुरेंद्र बहादुर सिंह की ओर से यह कहावत नारे के रुप में बोली गई। सदियों पुरानी इस कहावत के चुनावी नारे के रुप में उछलते ही सक्ती की दीवारों पर एक जवाबी नारे ने जगह बनाई। यह आज़ाद भारत के इतिहास में शायद पहला और आख़िरी मौक़ा था जबकि “नेपाल” ने भारत के किसी चुनाव में बतौर नारे में अपनी जगह बनाई। सक्ती की दीवारों पर यह जो नारे लिखे गए थे उसमें लिखा था –

“राजा जाएगा नेपाल.. मेघा जाएगा भोपाल”
चुनावी नतीजे जब आए तो सक्ती राजा सुरेंद्र बहादुर सिंह चुनाव हार चुके थे।क़रीब छ हज़ार के अंतर से सक्ती राजपरिवार ने पचास बरस से चली आ रही लोकतांत्रिक बादशाहत खो दी। यह चुनाव वो राजा हारा था जो वोट माँगने नहीं जाता था।
सक्ती के इस नतीजे ने इलाक़े में बस इतना बदलाव किया कि, भाजपा ने यहाँ अपना झंडा लहरा लिया। सक्ती के अपने स्वरुप में कोई विशेष परिवर्तन ना उन पचास सालों में हुआ और ना आज ही है।
हालाँकि एक परिवर्तन और हुआ, इस इलाक़े में कांग्रेस का क्षत्रप बस एक ही बचा रह गया। महल के प्रति सॉफ़्ट नज़रिया रखने वालों की ज़ुबान पर यकीं करें तो सक्ती राजा चुनाव हारे नही हरवा दिए गए, और दलील यह भी दी जाती है कि,इस हार के पीछे बस एक शै काम कर रही थी सियासत में खुद को सुरक्षित रखने का एक शानदार तरीक़ा होता है वह यह कि, जो प्रतिद्वंदी बनने लगे या कि बनने की हैसियत में आ जाए उसे ख़त्म कर दो, नतीजतन राजा सक्ती चुनाव हार गए।

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