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वो धरतीपकड़ छत्तीसगढिया नेता.. जिसके आगे शुक्ल बंधुओं का वर्चस्व रथ ही थम गया था.. जिसे काल असमय ना छिनता तो सियासत ही कुछ और रुख़ लेती..

वो धरतीपकड़ छत्तीसगढिया नेता.. जिसके आगे शुक्ल बंधुओं का वर्चस्व रथ ही थम गया था.. जिसे काल असमय ना छिनता तो सियासत ही कुछ और रुख़ लेती..
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By NPG News

रायपुर,23 जुलाई 2020। सियासती क़िस्से में इस बार बात उस धरतीपकड़ ख़ालिस छत्तीसगढ़िया नेता कि, जिसने शुक्ल बंधुओं के वर्चस्व रथ को ही रोक दिया। बात उस नेता कि, जो सन् 52 से लेकर सन् 78 तक हर विधानसभा चुनाव लड़ा और कभी हारा ही नही। जिसे इस बात के लिए याद किया जाता है कि, उसने छत्तीसगढ़ के बड़े इलाक़े को समृद्ध कृषि क्षेत्र के रुप में बदल दिया तो वहीं अविभाजित मध्यप्रदेश में तत्कालीन सुप्रीमो इंदिरा गांधी तक सीधी पहुँच रखने वाले चुनिंदा नेताओं में जिसे याद किया जाता है।यह वो शख़्स था जिसने मध्यप्रदेश की राजनीति में अर्जुन सिंह को मौक़ा दिया, और बिलाशक अर्जुन सिंह को स्थापित किया।

सन् 1973 का समय था, मध्यप्रदेश की सियासत में वो हुआ जो इसके पहले कभी हुआ ही नहीं था। मंत्री मंडल के वरिष्ठ सदस्यों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी के ख़िलाफ़ अविश्वास ज़ाहिर करते हुए हस्ताक्षरित पत्र दिल्ली भेजा और जवाब का इंतज़ार किए बग़ैर अपने अपने विधानसभा क्षेत्र लौट गए। दिल्ली,इस पत्र से हिल गई और संचार के उस कमजोर दौर में भी आनन फ़ानन मामले को सम्हालने पूरी ताक़त लगाई गई, जिस शख़्स ने यह पत्र लिखा और सबसे पहले उस पत्र पर अपना दस्तखत किया था, और जिनकी वजह से बाक़ी तीन सहयोगियों ने उस पत्र में दस्तखत किया वो थे बिसाहूदास महंत।वे बिसाहू दास महंत जिन्हे मध्य छत्तीसगढ़ का वह नेता माना गया जिनकी राजनैतिक समझ और तरीका आज भी किसी पाठ्यक्रम की तरह है।

बहरहाल जिस मामले को लेकर यह स्थिति आई थी वह मसला छत्तीसगढ़ से जुड़ा था, जिसमें विंध्य का भी मसला शामिल था। तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी पर नाराज़गी की वजह यह थी कि, उन पर यह आरोप था कि आज के छत्तीसगढ़ और विध्य ईलाके की वे उपेक्षा कर रहे थे। नतीजतन उन पर अविश्वास जताते हुए वरिष्ठ मंत्री बिसाहूदास महंत और उनके तीन अन्य सहयोगियों ने दिल्ली हाईकमान को संयुक्त हस्ताक्षर के साथ पत्र लिखा और लौट गए। तमाम क़वायद और कोशिशों के बाद आख़िरकार बिसाहूदास महंत माने और इस वायदे पर ही माने कि, छत्तीसगढ़ के हितों की कतई अनदेखी ना होगी, जाहिर इस वायदे में विंध्य की उपेक्षा नहीं किए जाने का वादा भी शामिल था।

बिसाहूदास महंत और शुक्ल बंधू के बीच एक मर्यादित दूरी हमेशा रही और इस दूरी का परिणाम यह रहा कि, शुक्ल बंधुओं का वर्चस्व रथ कभी समूचे प्रदेश में निर्विरोध नहीं चल पाया।बिलासपुर और रायपुर के बीच शक्ति संतुलन बना रहा, तराज़ू का पलड़ा अगर एक तरफ झूक नहीं पाया तो वजह महंत ही थे। राजकुमारों की तरह पले बढ़े शुक्ल बंधुओं के लिए खुदरंग महंत अडिग अविचल रहे पर राजनीति के बेहद तनावपूर्ण हालात में भी महंत ने जैसी कि उनकी ख़ुबी थी, वे धैर्य के साथ इंतज़ार करते और मुकम्मल जवाब देते थे।

पंडित श्यामाचरण शुक्ल मंत्रिमंडल में पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर के रुप में चतुर्दिक ख्याति बटोरते बिसाहूदास महंत को रेडियो से यह सूचना मिली थी कि स्वास्थ्यगत कारणों से उनका विभाग बदल कर जेल मंत्री कर दिया गया है। मुस्कुराते बीडी महंत तब भी मुस्कुरा रहे थे जब वे पीसीसी के प्रमुख बने और यह वह दौर था जबकि श्यामाचरण की कांग्रेस वापसी मुश्किलों में आ गई थी।विनम्र और सहज लेकिन संकल्पित बिसाहूदास महंत अगर शक्तिशाली शुक्ल बंधुओं के रथ को रोकने वाले माने गए और शक्ति स्तंभ माने गए तो यह यूँ ही नहीं था।

यह बिसाहूदास महंत ही थे जिन्होंने नेता प्रतिपक्ष का पद खुद लेने के बजाय विंध्य से आते अर्जुन सिंह को दिया। बिसाहूदास महंत को काल ने असमय छीन लिया वर्ना कोई दो मत नहीं एकीकृत मध्यप्रदेश के साथ साथ छत्तीसगढ़ की सियासत में कई पृष्ठ जुड़ते जो सियासत का ककहरा सीखने वालों को बेहतर ही करते। समाज के सबसे गरीब तबके के लिए अंतिम वक्त तक जूझते लड़ते खुदरंग इस धरतीपकड़ ख़ालिस छत्तीसगढ़िया नेता ने भले कोई चुनाव नहीं हारा लेकिन वह इतना सादगी से भरा था कि जब दुनिया छोड़ कर गया तो जेब में बस तीस रुपए थे, और बस वही थे।

वे बिसाहूदास महंत जिनकी आज़ पुण्यतिथि है। वे बिसाहू दास महंत जिनके बेटे का नाम चरणदास महंत है जो छत्तीसगढ़ की राजनीति में वो नाम है जिसे अनदेखा किया ही नहीं जा सकता। तीस बरस से ज़्यादा समय से सक्रिय राजनीति में मौजुद चरणदास महंत के लिए उनके पिता गुरु हैं, श्रद्धा ऐसी है कि कबीरपंथी होने के बावजूद वे कहते हैं
“फिर यदि जन्म मिले या जितने जन्म मिले.. बाबूजी ही मेरे पिता रहें”

मौजुदा समय में विधानसभा अध्यक्ष चरणदास महंत को देख चिरनिंद्रा में लीन उनके पिता बिसाहू दास महंत ख़ुश होते होंगे। क्योंकि आख़िरी कुछ बड़ा सबक़ जो चरणदास महंत ने सीखा वो अपने बाबूजी के देहावसान के बाद सीखा। जिस बिसाहूदास के रहते किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि बिसाहू दास महंत के औरे के आसपास भी फटके, उन बिसाहू के निधन के बाद उपचुनाव के लिए उनकी पत्नी जानकी देवी का का फ़ॉर्म भराया गया, फ़ॉर्म जमा कर बाहर आए ही थे कि पता चला नाम कट गया है। यह सबक़ जो बिसाहूदास ने देहावसान के बाद अपने पुत्र चरणदास महंत को दिलाया वो सबक युवा चरणदास को बेहद परिपक्व कर गया।

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