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Chandrayan 3: सिल्क साड़ी में महिला वैज्ञानिकों ने साबित किया, परिधान प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला होना चाहिए, न कि कम करने वाला

Chandrayan 3: सिल्क साड़ी में महिला वैज्ञानिकों ने साबित किया, परिधान प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला होना चाहिए, न कि कम करने वाला
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By Sandeep Kumar Kadukar

डेस्क। हम चंद्रमा में पहुंचने वाले चौथे देश हैं। हमसे पहले स्वाभाविक है कि विज्ञान में अग्रणी अमेरिका, सोवियत संघ और फिर पड़ोसी चीन का ही नाम होगा। इन तीनों देशों में अमेरिका ऐसा देश है, जिसने अपने को स्थापित कर रखा है कि वह सबसे अधिक शक्तिशाली है। दुनिया में होने वाले अच्छे और बुरे दोनों कार्य में उसकी कोई सानी नही है। वह परंपरावादी न होकर नए विचारों का प्रवर्तक है। महिलाओं की आजादी के बारे में जितनी बातें अमेरिका में होती हैं, उतनी किसी अन्य देश में नहीं होती। पहनावे के बारे में उनके अपने आजाद खयालात हैं। किसी भी देश के नागरिक को उनके देश का संविधान भी आजादी देता है। अमेरिका में स्त्रियों के पहनावे को लेकर दुनिया भर में देखा देखी है। उनकी संस्कृति है सो उन्हें मुबारक।

मेरे इतनी बात लिखने का मर्म शुरू होता है, बेंगलुरु के इसरो स्पेस एजेंसी में हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भेंट कार्यक्रम को लेकर। हम सबने देखा कि 23 अगस्त 2023 को जब चंद्रयान, चन्द्रमा की भूमि को स्पर्श करने की स्थिति में था, तब कंट्रोल रूम में पुरुष वैज्ञानिकों की संख्या के बराबर ही महिला वैज्ञानिक भी मौजूद थीं। केवल देश के 140 करोड़ लोग ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के 7 अरब लोगों में बहुत से लोग टेलीविजन में दर्शक थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, ग्रीस से सीधे बेंगलुरु पहुंचे, तब भी हमने देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित इसरो की महिला वैज्ञानिकों को देखा।

मेरे अनुमान से सभी देश के उत्कृष्ट तकनीकी शैक्षणिक संस्थानों से पढ़कर निकली महिलाएं हैं। अन्यथा इसरो के दरवाजे खुले नहीं मिलते। वे विज्ञान की विद्यार्थी रही होंगी, तो ये भी स्वाभाविक है कि परंपरावादी होने के प्रति उनके विचार सभी मामलों में बगावती तेवर हो सकते थे। वे पहनावे की संस्कृति को अपने ढंग से भी अन्य प्रगतिशील महिलाओं के समान परिभाषित कर सकती थी कि उन्हें क्या पहनना या नही पहनना ये उनकी व्यक्तिगत आज़ादी है। जब उनके माता पिता को आपत्ति नहीं है तो बाकी की बाते बेमानी है। वे तो अपने पैरों पर खड़ी आर्थिक रूप से सक्षम महिलाएं हैं। पश्चिम के फैशन को आगे कर सकती थीं, लेकिन हर कार्यक्रम की अपनी गरिमा होती है। हर अतिथि के सम्मान की परंपरा होती है।

इसके अलावा खुद के व्यक्तित्व का भी सार्वजनीकरण होता है। बेंगलुरु में सिल्क साड़ी में लगभग हर महिला वैज्ञानिक उपस्थित थीं। ये दृश्य ही नयनाभिराम था। इन महिला वैज्ञानिकों में अनेक महिलाएं बमुश्किल 25 से 30 साल वाले आयु वर्ग की थीं। वे चाहती तो जींस पेंट-शर्ट, शॉर्ट्स, निक्कर और छोटी सी शर्ट पहन कर आ सकती थीं। लाखों रुपए वेतन पाती हैं, लेकिन सभी ने स्वविवेक से सांस्कृतिक पहनावे को प्राथमिकता दी। महिला सशक्तिकरण पहनावे से नहीं कार्य से दिखता है। ये बात समझा जाना चाहिए। सार्वजनिक स्थान फिल्म नहीं है, जहां मनोरंजन के नाम पर महिलाओं को ऐसे कपड़े पहनाए जाते हैं, जिसमें कपड़े कम शरीर अधिक दिखता है। उनको इन कम कपड़ों के लिए भी भारी भरकम राशि मिलती है।

परिधान हमेशा प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला होना चाहिए, कम करने वाली नहीं, ये बात इसरो की महिला वैज्ञानिकों ने तो सिद्ध किया है। मैं इसरो की सभी महिला वैज्ञानिकों के प्रति आभारी हूं कि उन्होंने वैज्ञानिक सोच के बावजूद अपनी सांस्कृतिक पहनावे के मूल्य को स्थापित किया है। चांद पर विक्रम को स्थापित करने के बावजूद भी

संजय दुबे (ये लेखक के निजी विचार हैं।)


Sandeep Kumar Kadukar

संदीप कुमार कडुकार: रायपुर के छत्तीसगढ़ कॉलेज से बीकॉम और पंडित रवि शंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी से MA पॉलिटिकल साइंस में पीजी करने के बाद पत्रकारिता को पेशा बनाया। मूलतः रायपुर के रहने वाले हैं। पिछले 10 सालों से विभिन्न रीजनल चैनल में काम करने के बाद पिछले सात सालों से NPG.NEWS में रिपोर्टिंग कर रहे हैं।

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