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श्वेता बसु प्रसाद बोलीं, ऑडिशन से ही काम मिले तभी फिल्मों में होगा काम का सही बंटवारा………..

श्वेता बसु प्रसाद बोलीं, ऑडिशन से ही काम मिले तभी फिल्मों में होगा काम का सही बंटवारा………..
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By NPG News

मुंबई 26 जून 2021। चार साल पहले धारावाहिक ‘चंद्रनंदिनी’ से दमदार वापसी करने वाली अभिनेत्री श्वेता बसु प्रसाद की इन दिनों नेटफ्लिक्स की फिल्मावली ‘रे’ की फिल्म ‘फॉरगेट मी नॉट’ में अभिनय को लेकर काफी प्रशंसा हो रही है। पत्रकारिता की विद्यार्थी रहीं श्वेता ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली है। सितार बजाने में वह निपुण है। भारतीय संगीत पर उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री ‘रूट्स’ भी बनाई जो काफी प्रशंसित फिल्म रही है। श्वेता ने बीते दो साल में ओटीटी पर खूब काम किया है। फिल्म ‘ताशकंद फाइल्स’ में भी वह दर्शकों को प्रभावित करने में सफल रहीं। श्वेता से ये एक्सक्लूसिव बातचीत की ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने।
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श्वेता आपका फिल्मावली ‘रे’ की फिल्म ‘फॉरगेट मी नॉट’ का किरदार फिल्म ‘एक हसीना थी’ की याद दिलाता है। ‘ताशकंद फाइल्स’ से बिल्कुल 180 अंश विपरीत दिशा में दिखता है ये रोल? थैंक यू सो मच! मैं इसे कॉम्पलीमेंट के तौर पर लूंगी। एक कलाकार की सबसे बड़ी तारीफ यही होती है कि आप दर्शकों को अपने किरदार से चौंका दें। एक कलाकार के तौर पर मेरी कोशिश यही रहती है कि कुछ ऐसे करूं जिसकी दर्शकों को अपेक्षा ही न हो। हर किरदार की मैं पृष्ठभूमि लिखती हूं। उसका मनोविज्ञान समझने की कोशिश करती हूं। ‘फॉरगेट मी नॉट’ का किरदार भी बहुत विलक्षण हैं। उसका एक ग्राफ है। ये मेरे लिए बहुत ही अच्छा मौका था। मेरे परिवार में सिनेमा, संगीत और साहित्य को काफी प्रोत्साहित किया गया है।
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बचपन से ही मैंने सत्यजीत रे की फिल्में देखीं और उनकी लघु कथाएं पढ़ी हैं। शायद जिनके बारे में हमारी पीढ़ी के उन लोगों को पता नहीं हो जो बंगाली नहीं है। अब भाषाओं की सरहदें मिट रही हैं। और, ये काम सत्यजीत रे ने 60 के दशक में ही कर दिया था। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को छोड़कर उन्होंने सारी फिल्में अपनी मातृभाषा बंगाली में बनाईं। तो ऐसे इंसान को जब हम उनकी जन्मशताब्दी में श्रद्धांजलि देते हैं तो एक दर्शक के तौर पर और एक कलाकार के तौर पर भी मैं बहुत ही खुश हूं इस फिल्म का हिस्सा बनकर।
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बिल्कुल देखी है। और मैं बहुत बड़ी फैन हूं श्रीराम (राघवन) सर की। सिर्फ ‘एक हसीना थी’ ही नहीं बल्कि मुझे सारे दमदार महिला किरदार अच्छे लगते हैं। यही नहीं अमोल पालेकर ने निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म ‘भूमिका’ में लोगों को चौंकाया था। उनकी हर भूमिका चुनौतीपूर्ण होती थी, चाहे ‘गोलमाल’ हो या फिर ‘छोटी सी बात’। नसीरुद्दीन शाह को फिल्म ‘मिर्च मसाला’ में देखें। तो ये सिर्फ महिला या पुरुष की बात नहीं है। किरदार दमदार होने चाहिए जैसे तब्बू फिल्म ‘अंधाधुन’ में उर्मिला मातोंडकर फिल्म ‘एक हसीना थी’ में। धूसर किरदार बहुत मानवीय किरदार होते हैं। नहीं तो महिलाओं को कहीं तो इतना साफ सुधरा दिखाया जाता है कि वह सैनिटाइजर से भी ज्यादा सैनीटाइज्ड दिखने लगती हैं। उनको विज्ञापनों में एक उत्पाद की तरह दिखाया जाता है। मैं दिलचस्प किरदार पसंद करती हूं और दिलचस्प किरदार दिलचस्प लोगों से मिलते हैं।

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