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Ganesh Chaturthi Special:गणेश चतुर्थी इस कथा से होगा दुखों का अंत, जानिए इसका महत्व

Ganesh Chaturthi Special: गणेश चतुर्थी का त्योहार कब और कहां कहां मनाया जाता है। जानिए इसकी कथा और महत्व ।...

Ganesh Chaturthi Special:गणेश चतुर्थी इस कथा से होगा दुखों का अंत, जानिए इसका महत्व
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By Shanti Suman

Ganesh Chaturthi Special: गणेश चतुर्थी का त्योहार 19 सितंबर से पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। जो 10 दिवसीय है, हिंदू मान्यता के अनुसार 10 दिवसीय गणेश चतुर्थी 19 सितंबर से शुरू होकर और 28 सितंबर को गणेश विसर्जन के साथ समाप्त होगा। यह पर्व अधिकांश घरों में भगवान गणेश की मूर्ति की स्थापना के साथ शुरू होता है, और जुलूस के साथ गणेश विसर्जन (मूर्ति को समुद्र के पानी में डुबोना) के साथ समाप्त हो जाता है। इस दौरान लाखों लोगों की भीड़ रहती है। गणेश चतुर्थी के प्रसिद्ध पश्चिमी भारत उत्सव की खुबसूरती की सराहना करेंगे।

गणेश चतुर्थी का त्योहार कहां कहां मनाया जाता है

गणेश चतुर्थी कहें, गणेशोत्सव या विनायक चतुर्थी,पर्व पूरे भारत में धूमधाम से मनाया जाता है, खासकर देश के पश्चिमी क्षेत्र (विशेषकर महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और गोवा में) में त्योहार की उपस्थिति बढ़ गई है। हालांकि आपको बता दे कि मुंबई गणेश उत्सव, सबसे बड़ा माना जाता है, जिसमें शहर और पूरे देश से लाखों श्रद्धालु आते हैं। गणपति बप्पा मोरेया के जयकारे भी इसकी और खुबसूरती बढ़ा देते हैं। दरअसल ऐसा माना जाता है कि पहली बार शिवाजी भोंसले (छत्रपति शिवाजी महाराज के रूप में भी जाना जाता है) के शासनकाल में गणेश उत्सव मनाया गया था। बता दे कि गणेश चतुर्थी त्योहार समय के साथ अपना महत्व खो देता है।


गणेश चतुर्थी की महत्ता

गणेश चतुर्थी तब होती है जब जाति, संस्कृति, उम्र में कोई अंतर नहीं होता है, ये त्योहार लोगों को पहले से कहीं ज्यादा करीब लाता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण पर स्यमन्तक मणि चोरी करने का झूठा कलंक लगा था और वे अपमानित हुए थे। नारद जी ने उनकी यह दुर्दशा देखकर उन्हें बताया कि उन्होंने भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी को गलती से चंद्र दर्शन किया था। इसलिए वे तिरस्कृत हुए हैं। नारद मुनि ने उन्हें यह भी बताया कि इस दिन चंद्रमा को गणेश जी ने श्राप दिया था। इसलिए जो इस दिन चंद्र दर्शन करता है उसपर मिथ्या कलंक लगता है। नारद मुनि की सलाह पर श्रीकृष्ण जी ने गणेश चतुर्थी का व्रत किया और दोष मुक्त हुए। इसलिए इस दिन पूजा व व्रत करने से व्यक्ति को झूठे आरोपों से मुक्ति मिलती है।

अगर आप गणेश चतुर्थी के दौरान महाराष्ट्र जाते हैं, तो आपको पता लग जाएगा कि यह त्योहार कितना बड़ा है। यह पूरे राज्य और पड़ोसी राज्यों के लोगों को एक साथ लाता है, खुद को एक अच्छे अनुभव में डुबो देता है। कुछ भव्य पंडालों (अस्थायी तीर्थस्थलों) और खूबसूरत प्रदर्शनों से लेकर उत्साह भरा सड़क जुलूसों तक, गणेश चतुर्थी उत्सव के दस दिनों के दौरान मुंबई शहर और भी अधिक जीवंत हो जाता है। वडाला में गौड़ सारस्वत ब्राह्मण (जीएसबी) समिति मंडल से लेकर लालबागचा राजा तक, मुंबई की करीब सभी या यूं कहें कि हर गली में कई उत्सव होते हैं। मोदक, चावल के आटे के पकौड़े गणेश उत्सव के दौरान प्रसाद के रूप में तैयार और चढ़ाए जाते हैं, और इनमें कोई कमी नहीं है। गणेश उत्सव या गणेश चतुर्थी में मोदक ऐसा मिठाई है, जो सबसे ज्यादा बिकता है।

जीवन में सुख एवं शांति के लिए गणेश जी की पूजा की जाती हैं।

संतान प्राप्ति के लिए भी महिलायें गणेश चतुर्थी का व्रत करती हैं।

बच्चों एवम घर परिवार के सुख के लिए मातायें गणेश जी की उपासना करती हैं।

शादी जैसे कार्यों के लिए भी गणेश चतुर्थी का व्रत किया जाता हैं।

किसी भी पूजा के पूर्व गणेश जी का पूजन एवम आरती की जाती हैं. तब ही कोई भी पूजा सफल मानी जाती हैं।

गणेश चतुर्थी को संकटा चतुर्थी भी कहा जाता हैं. इसे करने से लोगो के संकट दूर होते हैं।

गणेश चतुर्थी की कथा

यूं तो पद्मपुराण, लिंगपुराण, ब्रहमवैवर्त पुराण व शिव पुराण इत्यादि प्राचीन ग्रंथों में जन्म की अलग-अलग कथायें दी गयी हैं लेकिन जो कथा जन सामान्य में प्रचलित है वह शिव पुराण में रूद्र संहिता के अन्तर्गत 13 से अठारहवें अध्याय में उल्लिखित है। एक बार पार्वती जी की सखियां जया एवं विजया ने उनसे कहा कि आपका अपना एक पुत्रगण होना चाहिए। क्योंकि नंदी, भृंगी इत्यादि शिव जी के गण हैं। और प्राय: वें उन्हीं के आदेश व निर्देशों का पालन करते हैं।

एक दिन जब पार्वती जी स्नान के लिए गई तो कन्दरा के द्वार की रक्षा के लिए उन्होंने नन्दी को तैनात कर दिया। अभी वे स्नान की तैयारी कर रही थीं कि अचानक शिवजी वहीं आये और नंदी की परवाह किये बिना सीधे भीतर चले गये। अपनी निजता में यह हस्तक्षेप पार्वती जी को कतई रास नहीं आया और तभी उन्होंने तय कर लिया कि वे अपने गण की रचना करेंगी। उसी समय उन्होंने चंदन के लेप से एक मानवाकृति की और उसमें प्राण फूंक दिये। फिर उस बच्चे को आशीर्वाद देते कहा पार्वती जी बोलीं आज से तुम मेरे पुत्र हो। इस महल के मुख्य द्वार की सुरक्षा का भार अब मैं तुम पर छोड़ती हूं। किसी को भी बिना मेरी इच्छा के भीतर न आने देना, चाहे कोई भी क्यों न हो।

ऐसा कहने के बाद उन्होंने उस बच्चे को एक दण्ड (डण्डा) दिया और स्नान करने के लिए चली गईं। कुछ देर बाद शिव फिर वहां आये और भीतर जाने लगे। बालक गणेश नहीं जानता था कि यहीं उनके पिता हैं। गणेश ने हाथ में पकड़ा दण्ड दरवाजे के बीच में अड़ा दिया और बोला मेरी मां भीतर स्नान कर रही हैं । अत: मैं आपको अन्दर जाने की अनुमति नहीं दे सकता। गणेश के मुख से ऐसा सुनकर शिवजी के क्रोध का पारावार न रहा। वे बोले- मूढ़मति क्या तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं, मैं शिव हूं,पार्वती का पति। यह तुम्हारी दृष्टता है कि जो तुम मुझे मेरे ही महल में प्रवेश करने नहीं दे रहे हो। इसी बीच रार बढ़ती देख शिवजी के गणों ने हस्तक्षेप किया और बोले हम भगवान शिव के गण हैं और यह सोचकर कि तुम भी हम में से एक हो । हमने तुम्हें कुछ नहीं कहा । अन्यथा अब तक तुम जीवित नहीं रहते। हमारी बात मान लो शिव जी को भीतर जाने दो क्यों बेकार अपने प्राणों के शत्रु बने हो।

लेकिन गणेश तनिक भी विचलित न हुए ।उन्होंने किसी को भी भीतर नहीं जाने दिया। शिव जी के गणों और गणेश के बीच तीखा वाक युद्ध चल ही रहा था कि गण यह जानकार घबरा गया कि गणेश पार्वती जी के पुत्र हैं। जो अपनी माता के आदेश के पालन हेतु द्वार पर पहरा दे रहे हैं। और वह शिव के पास गये और सब कुछ बता दिया। लेकिन संभवतः शिवजी अपने गणों का अहंकार चूर्ण करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सभी देवताओं का आहवान किया उन्हें व अपने गणों को गणेश जी पर आक्रमण करने का आदेश दिया। देवताओं और शिवजी के गणों तथा गणेशजी के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया। गणेश जी का पराक्रम देखते ही बनता था। उन्होंने नुकीले तीरों की ऐसी बौछार की तथा अन्य शस्त्रों का ऐसा प्रयोग किया कि कुछ ही देर में शिव जी सेना तितर-बितर हो गयी।

जब शिव जी ने देखा कि गणेश उनके गणों और समस्त देवताओं पर भारी पड़ रहे हैं तो वे स्वयं युद्ध भूमि में कूद पड़े तब गणेश जी ने मन ही मन में माता पार्वती का स्मरण किया। और प्रार्थना कि उनमें ऊर्जा व शक्ति का संचार हो और फिर प्रस्तुत हो गये। शिवजी के पराक्रम का सामना करने हेतु। समस्त देवतागण शिव के पक्ष में थे। शीघ्र ही भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया । लेकिन गणेश जी को मार्ग से हटाना किसी के लिये सम्भव न हुआ। अंततः कोई अन्य उपाय न देख शिव जी ने अपने दिव्य त्रिशूल का प्रयोग किया और गणेश जी का सिर धड़ से अलग कर दिया। पार्वती जी को जब गणेश की मृत्यु की सूचना मिली तो उनका क्रोध सातवें आसमान को छूने लगा। उन्होंने अनेक दिव्य शक्तियों का आवाहन कर उन्हें सक्रिय किया और बिना कोई आगा-पीछा सोचे सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड को तहस-नहस करने का आदेश दिया। सभी देवता तथा शिवगण अपने चारो ओर विनाश लीला होती देख भय से थर-थर कांपने लगे।

तब नारद जी की सलाह पर सभी पार्वती जी के पास गये और क्षमा प्रार्थना करने लगे। पार्वती जी बोलीं यह विनाश लीला अब तभी रूक पायेगी जब मेरा पुत्र गणेश जीवित हो उठेगा और उसे देवगणों में सर्वोच्च स्थान मिलेगा। जब भगवान शिव को यह सूचना मिली तो वे बोल आप सभी देवगण यहीं से उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करें और जो भी सर्वप्रथम जीवित प्राणी दिखायी पड़े ।उसी का शीश काट कर ले आयें। हम उसे गणेश के धड़ से जोड़ देंगे।

कुछ ही देर बाद देवता एक हाथी का सिर लेकर लौट आये उस हाथी का एक ही दांत था। हाथी के उस सिर को गणेश के धड़ पर रख दिया । तब देवताओं ने पवित्र वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया और पवित्र जल गणेश जी के शरीर पर छिडक़ा। कुछ ही क्षण बाद गणेश जी ने इस प्रकार आंखें खोली मानों गहरी नींद से जागे हों। पार्वती जी अपने पुत्र को जीवित हुआ देख बहुत प्रसन्न हुईं।

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