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पुत्र मोह में छूटी माया: सत्ता मिली तो उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व से किया किनारा, सबसे करीबी एकनाथ शिंदे ने खोला मोर्चा; खतरे में सत्ता

पुत्र मोह में छूटी माया: सत्ता मिली तो उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व से किया किनारा, सबसे करीबी एकनाथ शिंदे ने खोला मोर्चा; खतरे में सत्ता
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By NPG News

एनपीजी डेस्क। महाराष्ट्र की राजनीति को रिमोट कंट्रोल की तरह चलाने वाले ठाकरे परिवार को उन्हीं के करीबी ने अनकंट्रोल कर दिया। सत्ता में 50-50 की हिस्सेदारी रखकर उद्धव ठाकरे ने पहले भाजपा के साथ बैर मोल लिया और धुर विरोधी विचारधारा वाले कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से हाथ मिला लिया। शिवसेना ने पहले आदित्य ठाकरे को सीएम बनाने की शर्त रखी थी, लेकिन राष्ट्रवादी कांग्रेस और कांग्रेस के दबाव के कारण उद्धव ठाकरे सीएम बन गए। इसके बाद बाला साहब ठाकरे और ठाकरे परिवार के बेहद करीबी रहे एकनाथ शिंदे को ही किनारे करना शुरू कर दिया। शिंदे के विभाग में दखलंदाजी, काम में रुकावट जैसे कई कारण थे, जिसने बगावत को हवा दी और आज उद्धव ठाकरे के हाथ से सत्ता जाती दिख रही है। इसमें हिंदुत्ववादी विचारधारा से किनारा करना भी अहम कारण है।

आज महाराष्ट्र में जो कुछ हो रहा है, वह रातोंरात लिखी गई पटकथा नहीं है। यह तो भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ गठजोड़ के साथ ही शुरू हो गया था। एकनाथ शिंदे को शिवसेना ने विधानसभा में अपना नेता चुना। इससे यह लगने लगा था कि शिंदे ही सीएम के भी दावेदार हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उद्धव ठाकरे ने भाजपा के साथ सत्ता में मोलभाव शुरू कर दिया। इसमें पर्दे के पीछे आदित्य ठाकरे की भूमिका थी। बाला साहब ठाकरे सक्रिय रूप से राजनीति में आने के पक्ष में नहीं थे, बल्कि पर्दे के पीछे रहकर महाराष्ट्र की राजनीति को कंट्रोल करते थे। इसके विपरीत आदित्य ठाकरे पहले शख्स थे, जो सक्रिय रूप से राजनीति में आए और विधायक बने।

आदित्य ठाकरे दादा की तरह पर्दे के पीछे से नहीं, बल्कि कुर्सी पर रहकर सत्ता चलाना चाहते थे। पिता उद्धव ठाकरे भी बेटे के मोह में फंस गए और भाजपा के साथ लंबे समय से चला आ रहा गठबंधन तोड़ दिया। इसके बाद शरद पवार से मिलने के लिए होटल जाने से लेकर सोनिया गांधी से समर्थन मांगने के लिए फोन करने तक ऐसी कई घटनाएं हुईं, जो बाला साहब ठाकरे की सोच के एकदम विपरीत थी। उद्धव सीएम बने और बेटे को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। एक तरह से आदित्य ठाकरे सुपर सीएम की तरह काम करने लगे।

शिवसेना में ताकतवर नेता की हैसियत रखने वाले एकनाथ शिंदे कांग्रेस के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन सत्ता में वे भागीदार बन गए। हालांकि इसके बाद शिंदे की मुश्किलें बढ़ती गईं। सीएम उद्धव ने उनके बजाय बेटे या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को महत्व देना शुरू किया। देवेंद्र फड़णवीस सरकार में जिस ड्रीम प्रोजेक्ट को पूरा करने का बीड़ा उठाया था, उसी में उन्हें महत्व नहीं दिया गया। इस तरह शिंदे ने सरकार के खिलाफ मोर्चा शुरू किया। हिंदूवादी विचारधारा के बजाय उद्धव इसके विरोधी होने लगे। ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में भी वे पार्टी की मूल विचारधारा से अलग दिशा में चलने लगे। हनुमान चालीसा मामले में सांसद की गिरफ्तारी भी उनके खिलाफ गई।

पुत्र मोह में इन राज्यों में भी सत्ता पर छाया खतरा

पुत्र मोह का सबसे बड़ा किस्सा महाभारत में आता है, लेकिन देश में सियासी महाभारत में ऐसे कई किस्से चर्चित हैं, जिसमें पुत्रमोह के कारण सत्ता हाथ से चली गई। ताजा उदाहरण कर्नाटक का है। पूर्व पीएम एचडी देवेगौड़ा ने अपने बेटे कुमारस्वामी को सीएम बनाने के लिए पार्टी के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। कुमारस्वामी ने 2004 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। 50-50 में सौदा हुआ था। यानी ढाई साल कुमारस्वामी सीएम रहेंगे और बचे हुए ढाई साल भाजपा के येद्दियुरप्पा सीएम बनेंगे। ढाई साल बाद कुमारस्वामी ने धोखा दे दिया। इसके बाद 2014 में कुमारस्वामी ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई। बाद में उनके बीच बनी नहीं और सत्ता हाथ से निकल गई। इस पूरे घटनाक्रम में देवेगौड़ा ने पार्टी के बजाय बेटे की महत्वाकांक्षा को महत्व दिया।

pउत्तरप्रदेश की राजनीति में चाचा-भतीजे की लड़ाई के बीच मुलायम सिंह यादव की खामोशी ने समाजवादी पार्टी को ही दांव पर लगा दिया। अखिलेश यादव ने पहले पिता मुलायम सिंह यादव से आगे बढ़ने के लिए उन्हें किनारे किया। इसके बाद अपने चाचा शिवपाल यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। शिवपाल पार्टी से बाहर हो गए। इस दौरान मुलायम सिंह की भूमिका पार्टी को बचाने के बजाय बेटे को स्थापित करने की रही। यूपी ही नहीं, बिहार में भी ऐसी ही स्थिति बनी। लालू प्रसाद यादव ने पहले नीतीश कुमार के साथ हाथ मिलाया। इसके बाद दोनों बेटों को स्थापित करने के लिए छोटे बेटे तेजस्वी यादव को डिप्टी सीएम और बड़े बेटे तेजप्रताप को कैबिनेट मंत्री बना दिया। यह गठबंधन टिक नहीं पाया और नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया। इस तरह आरजेडी सत्ता से बाहर हो गई।

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