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कांग्रेस का विषकाल: खड़गे और थरूर में कौन होंगे पार्टी के लिए महाऔषधि

कांग्रेस का विषकाल: खड़गे और थरूर में कौन होंगे पार्टी के लिए महाऔषधि
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By NPG News

अखिलेश अखिल

कहने के लिए राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा उम्मीदों से भरी है और दक्षिण के राज्यों में यात्रा को समर्थन भी मिलता दिख रहा है। देश के बाकी हिस्सों के कोंग्रेसी भी इस यात्रा में उम्मीद तलाश रहे हैं और गाहे बगाहे देश के कोंग्रेसी जन भी इस यात्रा पर उम्मीदों की मुस्कराहट लिए शक्तिहीन हो चली कांग्रेस को शक्तिशाली होने की बात कहते नजर आ रहे हैं। उधर विपक्ष भी राहुल की यात्रा पर निगाहें टिकाए हुए है। विपक्ष को भी लगने लगा है कि राहुल की यह यात्रा वाकई में सफल हो गई और कांग्रेस का खोया जनाधार फिर से मिल गया या फिर खोये जनाधार का कुछ अंश भी पाने में कांग्रेस सफल हो गई तो अगले चुनाव में खेल होगा। लेकिन विपक्ष की यह भी चिंता है कि विपक्षी एकता के नाम पर जिस तरह से गैर कांग्रेस एकता की कहानी आगे बढ़ती दिख रही है और अलग -अलग इलाकों के क्षत्रप प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोये हुए हैं ,ऐसे में अगर भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस के लिए अमृत के सामान हो गया तब क्या होगा ? क्या फिर भी विपक्षी एकता होगी ? क्या फिर भी गैर कांग्रेस एकता की कहानी आगे बढ़ेगी ? और फिर क्या कांग्रेस की छतरी के नीचे सभी विपक्षी एक साथ बैठ पाएंगे ? सवाल बड़ा है।

आज देश में चारो तरफ विपक्ष में सन्नाटा है। देश की सभी समस्यायों पर कोई भी दल कुछ बोलने को तैयार नहीं है। कहने के लिए बहुत से दल अपने अपने इलाकों में मजबूत क्षत्रप भले ही दीखते हों लेकिन वे सभी किसी न किसी मामले में केंद्र सरकार के रडार पर हैं और किसी की भी इतनी हस्ती नहीं कि दुदुम्भी बजाकर मोदी सरकार का खिलाफ कर सके। एक डर है उनके मन में। डर है कि पता नहीं कब किस रूप में सरकार की एजेंसी उसके गले को दबोच ले और फिर वह जो कहे वही होता चला जाए। दाल के भीतर भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो नेतागिरी तो एक पार्टी की करते हैं लेकिन दोस्ती किसी और पार्टी के साथ भी रखते हैं। कब ऐसे नेता पलटी मार जाए भला कौन जानता है !

ऐसे में राहुल गाँधी की हुंकार बहुत कुछ कहती है। राहुल गांधी अपने को तरास रहे हैं और पार्टी को संजीवनी देने की कोशिश भी कर रहे हैं। वे यह भी करते दिख रहे हैं कि आगामी चुनाव में अगर बीजेपी का सामना हो तो कोई भी विपक्षी उसे अछूत समझने की भूल न करे और उनकी चाहत ये भी है फिर से सभी विपक्ष यूपीए के बैनर के नीचे आये ,एक साझा कार्यक्रम बनाये और बीजेपी को हराये। राहुल अच्छी तरह से जानते हैं कि पिछले दो लोक सभा चुनाव में बीजेपी को 35 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिले हैं। बाकी के 65 फीसदी वोटर आज भी बीजेपी के खिलाफ है लेकिन विभिन्न दलों में बंटे हुए हैं। राहुल जानते हैं कि मौजूदा समय में बीजेपी के विशाल नेटवर्क से सामना करना कठिन है लेकिन वे यह जानते हैं कि विपक्षी एकता अगर हो जाए तो बीजेपी को हराया जा सकता है। लेकिन क्या यह संभव है ? बीजेपी भी तो यही कर रही है। वह जानती है कि विपक्षी एकता का अंजाम क्या होगा। वह जानती है कि अगर विपक्ष एक हो गया तो उसकी राजनीति दफ़न हो जाएगी। इसलिए बीजेपी का एक मात्र खेल यही है कि चाहे कुछ भी हो जाए विपक्ष एक न हो पाए।

कांग्रेस दो रहे पर खड़ी है उसे अपने भविष्य की भी चिंता है और वर्तमान संकट से कैसे उबरे इसकी भी चिंता है। राजस्थान में दो नेताओं का संघर्ष है तो यही कहानी छत्तीसगढ़ में भी है। अध्यक्ष पद के चुनाव में दो नेताओं के बीच भिड़ंत है जबकि दोनों नेता काबिल भी है और पार्टी के जान भी। सबकी अपनी अदाए हैं और अपनी समझ भी। कांग्रेस को कौन सा अध्यक्ष मिलता है इसकी भी चिंता है। कांग्रेस का भविष्य बहुत कुछ आने वाले नए अध्यक्ष पर निर्भर करता है। ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि खड़गे और थरूर में से कौन ?

पहले खड़गे की चर्चा। अपने गृह राज्य कर्नाटक में 'सोलिल्लादा सरदारा' के रूप में मशहूर मापन्ना मल्लिकार्जुन खड़गे ने अध्यक्ष पद की रेस में आगे चलते दिख रहे हैं। अगर वह जीते तो जगजीवन राम के बाद इस पद पर आसीन होने वाले दूसरे दलित नेता भी होंगे। लगातार नौ बार विधायक चुने गये खड़गे 50 साल से अधिक समय से राजनीति में सक्रिय हैं।

खड़गे ने अपना सियासी सफर गृह जिले गुलबर्ग में एक यूनियन नेता के रूप में किया। साल 1969 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और गुलबर्ग शहरी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। चुनावी मैदान में खड़गे अजेय रहे और साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कर्नाटक (खासकर हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र) को अपने चपेट में लेने वाली नरेंद्र मोदी लहर के बावजूद गुलबर्ग से 74 हजार मतों के अंतर से जीत हासिल की। उन्होंने साल 2009 में लोकसभा चुनाव के मैदान में कूदने से पहले गुरुमितकल विधानसभा चुनाव से नौ बार जीत दर्ज की। वह गलुबर्ग से दो बार लोकसभा सदस्य रहे। इसके अलावे उनकी और भी उपलब्धि है।

उधर ,कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे शशि थरूर को मीडिया में खूब समर्थन मिल रहा है। अंग्रेजी पत्रकारों के वे वैसे भी चहेते रहे हैं इसलिए पत्रकार खुल कर उनके समर्थन में रहे हैं। जिन पत्रकारों को कांग्रेस पार्टी फूटी आंख पसंद नहीं है उनको भी अचानक कांग्रेस की चिंता हो गई है और उनको लगने लगा है कि कांग्रेस को बचाने के लिए शशि थरूर का जीतना जरूरी है। कई राज्यों में, जहां थरूर गए हैं वहां उनको अच्छा खासा समर्थन भी मिला है। पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं ने उनका स्वागत किया। वैसे भी कांग्रेस के चुनाव प्राधिकार की ओर से सभी प्रदेश कमेटियों को लिखा गया है कि वे अध्यक्ष पद के दोनों दावेदारों के प्रति समान बरताव करेंगे और किसी के साथ पक्षपात नहीं किया जाएगा। इस तरह कांग्रेस बड़ी शिद्दत से चुनाव को स्वतंत्र व निष्पक्ष दिखाने का प्रयास कर रही है।

पर सवाल है कि डॉक्टर शशि थरूर को कौन वोट करेगा? मीडिया के लोग चाहे उनका जितना समर्थन करें, उनके बारे में चाहे जितने लेख लिखे जाएं और हवाईअड्डों पर उनका चाहे जितना स्वागत हो, उनको वोट कौन करेगा? वोट तो कांग्रेस के नौ हजार डेलिगेट्स को करना है। उनमें से कितने लोग थरूर के साथ हैं? क्या अपने गृह राज्य केरल में कांग्रेस के डेलिगेट्स का वोट थरूर को मिलेगा? इसका संभावना नहीं के बराबर है। हर राज्य में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पार्टी आलाकमान की इच्छा का पता है। वे जानते हैं कि मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार हैं। इसलिए हर प्रदेश कमेटी को खड़गे के लिए वोट डलवाना है।

शशि थरूर की अपनी हस्ती है और अपना अंदाज भी। अपने तरह की राजनीतिक समझ भी और आधुनिकता के साथ समाज को आगे बढ़ाने की समझ भी भी है थरूर के पास।

गूगल पर सच करें तो थरूर के बारे में बहित सी जानकारी मिलती है। थरूर का जन्म लंदन में लिली के मलयाली नायर परिवार और केरल के पलक्कड़ के चंद्रन थरूर में हुआ था। उनके पिता ने लंदन, बॉम्बे, कलकत्ता और दिल्ली में 25 साल के करियर सहित विभिन्न पदों पर काम किया। उनके पैतृक चाचा थरूर परमेश्वर थे, जो भारत में रीडर डाइजेस्ट के संस्थापक थे। अपने माता-पिता भारत लौटने के बाद, थरूर 1962 में मोंटफोर्ट स्कूल, यरकौड में चले गए, बाद में बॉम्बे चले गए और कैंपियन स्कूल में पढ़ाई की। उन्होंने कलकत्ता में सेंट जेवियर के कॉलेजिएट स्कूल में अपने हाईस्कूल साल बिताए। उन्होंने सेंट स्टीफ़न कॉलेज, दिल्ली से इतिहास में स्नातक की डिग्री के स्नातक प्राप्त की।1975 में, वह टफट्स यूनिवर्सिटी में फ्लेचर स्कूल ऑफ लॉ एंड डिप्लोमैसी में स्नातक अध्ययन करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए, जहां उन्होंने एमए और एमएएलडी प्राप्त की और उन्हें सर्वश्रेष्ठ छात्र के लिए रॉबर्ट बी स्टीवर्ट पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 22 साल की उम्र में पीएचडी की। उन्हें पुजेट साउंड विश्वविद्यालय द्वारा एक मानद डी. लिट और बुखारेस्ट विश्वविद्यालय द्वारा इतिहास में डॉक्टरेट की उपाधि भी मिली।

थरूर ने एक बार कहा था कि जब उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की तो उन्हें कांग्रेस, कम्युनिस्टों और बीजेपी ने संपर्क किया। उन्होंने कांग्रेस का चयन किया क्योंकि उन्हें इसके साथ वैचारिक रूप से सहज महसूस हुआ। मार्च 2009 में थरूर ने केरल के तिरुवनंतपुरम में कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के रूप में आम चुनावों में चुनाव लड़ा और जीते भी। आज भी वे सांसद हैं। वे शाकाहारी हैं और लेखक ,उपन्यासकार भी। वे जो कहते हैं उस पर अमल करना चाहते हैं।

लेकिन कांग्रेस को क्या अभी थरूर की जरूरत है ? कांग्रेस के लिए चल रहा यह विष्काल क्या थरूर दूर कर सकते हैं ? ऐसा लगता नहीं। कांग्रेस को अभी ऐसे नेता की जरूरत है जो पार्टी को मजधार से आगे निकाल ले जाए। तमाम विपक्षी दलों को एक मंच पर ला सके और संगठन को मजबूत कर अपनी विरासत बचा सके। जिस नेता में विषकाल को अमृतकाल में बदलने का मादा हो आज कांग्रेस को वही चाहिए।

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