Chhattisgarh Politics: छत्तीसगढ़ में विपक्ष के संविधान और आरक्षण पर धर्मांतरण और आदिवासी सीएम विष्णुदेव भारी पड़ गए, कैसे...? इस सियासी विश्लेषण से समझिए...
Chhattisgarh Politics: जाति और आरक्षण के इश्यू के चलते यूपी, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे कई राज्यों में भाजपा को बड़ा नुकसान उठाना पड़ गया। मगर आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने अनुसूचित जाति, जनजाति बहुल सभी पांचों सीटें जीत लीं। जबकि, कांग्रेस ने जाति कार्ड खेलते हुए कई अच्छे उम्मीदवारों को मैदान में उतारी थी लेकिन, वोटरों ने उन्हें परास्त कर दिया। इसमें बहुत बड़ा कारण आदिवासी मुख्यमंत्री और धर्मांतरण रहा।
Chhattisgarh Politics: रायपुर। छत्तीसगढ़ में लोकसभा की 11 में से 10 सीटें बीजेपी की झोली में गई। कांग्रेस को सिर्फ कोरबा सीट से संतोष करना पड़ा। वो भी तब जब संविधान बदलने और आरक्षण हटाने की भ्रम के चलते उत्तरप्रदेश जैसे कई राज्यों में बीजेपी को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। यूपी में 2019 के लोकसभा चुनाव में 62 सीटें मिली थीं, इस बार उसे लगभग आधे का नुकसान हुआ है। झारखंड जैसे आदिवासी राज्य में भी बीजेपी की सीटें घटी हैं। मगर छत्तीसगढ़ में यह मुद्दा हवा हो गया।
छत्तीसगढ़ में जाति कार्ड
छत्तीसगढ़ में बीजेपी, कांग्रेस ने दोनों ने सोशल केमेस्ट्री करते हुए कई संसदीय सीटों पर जातियों के आधार पर टिकिट बांटे। लेकिन चुनाव नतीजों ने साबित किया कि जातिगत समीकरण का दांव फेल हो गया है। खासतौर से कांग्रेस के लिए। लोकसभा की 11 सीटों में चुनावी रणनीति की बिसात जातिगत आधार पर बिछाई गई थी। 3 सीटों पर ओबीसी कैंडिडेट आमने-सामने थे। जबकि जांजगीर लोकसभा की सीट पर एससी बनाम एससी और एक सीट पर सामान्य का मुकाबला सामान्य से था। वहीं 2 सीटों पर ओबीसी का मुकाबला सामान्य उम्मीदवार कर रहे थे। कांग्रेस के लिए जातिगत समीकरण पूरी तरह फेल रहा और उन्हें 11 में से सिर्फ एक सीट पर ही सफलता मिली। ओबीसी, आदिवासी वोटर्स के कॉकटेल वाली सीट कोरबा लोकसभा से कांग्रेस ने लगातार दूसरी बार ज्योत्सना महंत को मौका दिया। वहीं भाजपा ने दुर्ग जिले की दिग्गज भाजपा नेत्री सरोज पांडेय के मैदान में उतारा। 11 में से यही वो इकलौती सीट है, जहां से भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा है। राजनांदगांव ओबीसी सीट है। इसके साथ ही यहां 24 फीसदी एसटी तो लगभग 11 फीसदी एससी वोट हैं। बावजूद लोकसभा में जातिगत समीकरण की कुछ खास भूमिका नहीं रही। क्योंकि इसका इतिहास ही ऐसा है। ओबीसी वोटर्स की बहुलता को देखते हुए कांग्रेस ने ओबीसी के सबसे बड़े चेहरे के रुप में भूपेश बघेल को मैदान में उतारा। लेकिन यहां बीजेपी के संतोष पांडेय के सामने पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस के सबसे बड़े नेता भूपेश बघेल चुनाव हार गए। बिलासपुर लोकसभा की सीट पर भाजपा ने तोखन साहू तो कांग्रेस ने विधायक देवेंद्र यादव को मौका दिया। कांग्रेस को उम्मीद थी प्रदेश के यादव वोटों का ध्रुवीकरण होगा। लेकिन ये रणनीति काम नहीं आई। दुर्ग और महासमुंद में भी ओबीसी बनाम ओबीसी का मुकाबला था। जांजगीर चांपा लोकसभा सीट पर कांग्रेस ने डॉ शिव डहरिया को मैदान में उतारा। बीजेपी ने कमलेश जांगड़े को मौका दिया। मुकाबला बीजेपी ने जीता। लेकिन नतीजों को प्रभावित करने में जातिगत समीकरण से ज्यादा बसपा वोट बैंक में सेंध मारना की भूमिका ज्यादा रही। सरगुजा लोकसभा सीट में कांग्रेस ने गोंड समाज की शशि सिंह तो भाजपा ने कंवर समाज से आने वाले चिंतामणि महाराज को टिकट दिया था। उरांव संख्या में ज्यादा होने के बावजूद जीत के फैक्टर नहीं बने। वहीं चिंतामणि का गहिरा पंथ का धर्मगुरू होने को जीत का आधार माना जा सकता है।
सीएम विष्णुदेव और धर्मांतरण
छत्तीसगढ़ में बीजेपी को कामयाबी मिली, उसमें आदिवासी मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और धर्मांतरण का मुद्दा अहम रहा। एक तो आदिवासी मुख्यमंत्री के चलते आदिवासी वर्ग का भाजपा के तरफ स्वाभाविक सुझाव था। मुख्यमंत्री ने चुनाव में मेहनत भी खूब किया। अकेले पूरे प्रदेश में मोर्चा संभाले रहे। उधर छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण के मसले की वजह से आदिवासियों को लगता है कि बीजेपी इसे रोक सकती है। इसलिए छत्तीसगढ़ में संविधान बदलने और आरक्षण समाप्त करने का फैलाया गया भ्रम प्रभावी नहीं हो सका।