Chhattisgarh News: नगरीय निकाय चुनाव- मेयर का वह पहला डायरेक्ट इलेक्टशन, विधानसभा चुनाव की तरह गरमाया था माहौल
Chhattisgarh News: अविभाजित मध्य प्रदेश का वह दौर था। राज्य सरकार ने महापौर का चुनाव डायरेक्ट कराने का निर्णय लिया। दिसंबर 2000 में मेयर का डायरेक्ट चुनाव हुआ। पांच जनवरी को निर्वाचित मेयर ने अपना पदभार ग्रहण किया। मेयर के साथ ही पार्षदों ने भी शपथ ली थी। दिसंबर के महीने में मेयर का चुनाव हुआ। यह वह दौर था जब पहली बार मेयर का प्रत्यक्ष प्रणाली से मतदान हो रहा था। माहौल ऐसा कि विधानसभा चुनाव हो रहा है। चुनावी माहौल में राजनीतिक दलों के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं की बात छोड़िए, शहरवासियों की दिलचस्पी कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। प्रमुख चौक-चौराहों से लेकर गली माेहल्लों में लोगों की जुबान पर बस चुनाव ही चर्चा।
Chhattisgarh News: बिलासपुर। अविभाजित मध्य प्रदेश का वह दौर था। राज्य सरकार ने महापौर का चुनाव डायरेक्ट कराने का निर्णय लिया। दिसंबर 2000 में मेयर का डायरेक्ट चुनाव हुआ। पांच जनवरी को निर्वाचित मेयर ने अपना पदभार ग्रहण किया। मेयर के साथ ही पार्षदों ने भी शपथ ली थी। दिसंबर के महीने में मेयर का चुनाव हुआ। यह वह दौर था जब पहली बार मेयर का प्रत्यक्ष प्रणाली से मतदान हो रहा था। माहौल ऐसा कि विधानसभा चुनाव हो रहा है। चुनावी माहौल में राजनीतिक दलों के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं की बात छोड़िए, शहरवासियों की दिलचस्पी कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। प्रमुख चौक-चौराहों से लेकर गली माेहल्लों में लोगों की जुबान पर बस चुनाव ही चर्चा।
अविभाजित मध्य प्रदेश के उस दौर में वर्ष 1998 में विधानसभा का चुनाव हुआ। विधानसभा चुनाव के उस दौर में बिलासपुर विधानसभा की सीट सबसे ज्यादा चर्चा में रही। सीटिंग एमएलए व तत्कालीन खाद्य मंत्री मूलचंद खंडेलवाल को ड्राप कर अमर अग्रवाल को चुनाव मैदान में उतारा गया। तब वे युवा मोर्चा की राजनीति में सक्रिय थे। तब भी अविभाजित मध्य प्रदेश में बिलासपुर की टिकट को लेकर भाजपा के साथ ही कांग्रेस में भी जमकर चर्चा रही। भीतरघात व खुलाघात की राजनीति से पार पाते हुए अमर ने चुनावी वैतरणी पार कर ली। तब से लगातार तीन चुनाव उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। यही वह दौर था जब छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की सियासी सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। दो साल बाद राज्य का गठन भी हो गया। बिलासपुर विधानसभा सीट के विधायक होने के नाते अमर अग्रवाल की जिम्मेदारी थी कि महापौर के लिए किसे आगे बढ़ाएं। उम्मीदवारी चयन से लेकर चुनाव में जीत दिलाने की अहम जिम्मेदारी भी निभानी थी। नगर निगम चुनाव की खास बात ये कि अविभाजित मध्य प्रदेश में मेयर का पहला डायरेक्ट चुनाव था। तब राजनीतिक सरगर्मी और माहौल भी उसी तरह बनने लगा था। माहौल ऐसा कि नगर निगम महापौर का नहीं विधानसभा का चुनाव हो। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं से लेकरशहरवासियों में गजब का उत्साह देखने को मिल रहा था। भाजपा ने नए चेहरे के रूप में उमाशंकर जायसवाल को चुनाव मैदान में उतारा। कांग्रेस ने लोरमी के पूर्व विधायक व सहकारिता दिग्गज बैजनाथ चंद्राकर पर भरोसा जताया। चुनाव प्रचार का अंदाज भी कुछ ऐसा कि कार्यकर्ता दिन में भी और रात में भी दौड़ते भागते नजर आते थे। वाल पेंटिंग से लेकर झंडा बैनर पोस्टर की कमी नहीं। माहौल ऐसा कि विधानसभा का चुनाव हो रहा हो। शहर के प्रमुख चौक-चौराहों से लेकर गली माेहल्ले सभी जगह सिर्फ और सिर्फ चुनाव की चर्चा होती थी।
वह भयावह राजनीति दौर, जब दल-बदल की शुरू हुई राजनीति
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के ठीक 10 महीने पहले नगरीय निकाय चुनाव सम्पन्न हुआ था। केंद्र सरकार ने एक नवंबर 2000 को मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग करते हुए छत्तीसगढ़ राज्य की घोषणा की थी। इसी दिन से छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया। मध्य प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस सदस्यों की संख्या भाजपा से अधिक थी लिहाजा राज्य गठन के बाद पहली सरकार बनाने का राजनीतिक अवसर कांग्रेस को मिला। पूर्व आईएएस व आईपीएस अजीत जोगी छत्तीसगढ़ राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। शहर सरकार के निर्वाचित पार्षदों और महापौर का कार्यकाल 11 महीने का हो गया था,लिहाजा मेयर और पार्षद अपनी सरकार भी चला रहे थे। जोगी के सीएम के पद पर काबिज होने के बाद प्रदेश के शहरी सरकारों में राजनीतिक हस्तक्षेप और सियासी दबाव कुछ इस तरह बढ़ा कि नए प्रदेश में एक अलग ही तरह की राजनीत शुरू हो गई। दल-बदल की राजनीति। यह राजनीति पूरे तीन साल तब अपने सबाब पर रही। जोगी के सत्तासीन के उस दौर में जिसने भी राजनीतिक दबाव कहें या फिर राजनीतिक महत्वाकांक्षा, जिसने भी दल-बदल किया,जनता के बीच फिर कभी राजनीतिक स्वीकार्यता नहीं बन पाई।
शहरवासियों ने भी देखा था, दल-बदल का खेल
बिलासपुर की जनता ने डायरेक्ट इलेक्शन में भाजपा के उम्मीदवार पर भरोसा जताया हुए शहर सरकार चलाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। यह भरोसा ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह पाया। या यूं कि जनता के भरोसे पर महापौर जायसवाल खरे नहीं उतर पाए। कुर्सी बचाने की जद्दोजहद कहें या फिर राजनीतिक दबाव, कारण चाहे जो भी रहे हों,दल-बदल का ठप्पा उन पर लग ही गया था। दल-बदल और सियासी दबाव की यह राजनीति तब पूरे प्रदेश में चली थी। यह वह दौर था जिसमें सियासत ने एक अलग ही अंदाज दिखाया था।
रात-रात भर दीवारों पर छापते थे चुनाव चिन्ह
उस दौर में चुनाव प्रचार का सिस्टम बहुत ज्यादा एडवांस नहीं हुआ था। वाल पेंटिंग से लेकर दीवारों पर स्टेंसिल के जरिए चुनाव चिन्ह छापने की अलग-अलग जिम्मेदारी दी जाती थी। ये दो काम सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते थे। दीवारों पर उम्मीदवारों का नाम लिखना, चुनाव चिन्ह बनाना और पार्टी की ओर से दिए गए प्रभावी नारों को खुबसूरत अक्षरों में दीवारों पर लिखना। दूसरा काम स्टेंसिल के जरिए पार्टी का चुनाव चिन्ह को दीवारों पर छापना। इसके लिए गेरू का उपयोग करते थे। यह काम पूरी रात चलते रहता था। सुबह उठकर लोग जब दीवारों को देखते थे, तब कहीं नारा, तो कहीं पर चुनाव चिन्ह और किसी दीवार पर उम्मीदवार के नाम के साथ चुनाव चिन्ह।