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खालसा सृजन दिवस ”बैसाखी”

खालसा सृजन दिवस ”बैसाखी”
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By NPG News

रायपुर 13 अप्रैल 2020. बैसाखी पर्व उत्तर भारत के साथ साथ पूर्व तथा मध्य भारत में विषेष रूप से मनाया जाता है। सामन्यता यह 13 या 14 अप्रैल को प्रतिवर्ष आता है। इसके आयोजन के पीछे नई फसल के आने का कारण कहा जाता है कुछ स्थानो परी इस दिन फसल कटाई का शुभ मुहुर्त मान कर हसिये से फसल कटाई प्रारम्भ की जाती है। पष्चिम बंगाल में यह नववर्ष प्रारम्भ माना जाता है। बौध्द धर्म में यह मान्यता है कि इस दिन भगवान गौतम बुध्द को ज्ञान की प्राप्ति हुई थीं। सिक्ख धर्म में बैसाखी का महत्व धाम्र्रिक , सांस्कृतिक तथा एतिहासिक रूप से है। मुख्यतः बैसाखी एक सांस्कृतिक पर्व है जिसे सभी धर्मो के लोग मानते है। वर्ष 1699 में बैसाखी के दिन सिक्खो के दसवे गुरू गुरू गोविंद सिंह जी के द्वारा बैसाखी के दिन खालसा पंथ की सृजना की गई थी। यहाॅं पर हमें सिक्ख और खालसा दोनो में अंतर समझना होगा। वास्तव में सिक्ख धर्म का प्रदुर्भाव श्री गुरू नानक देव जी के प्रकाष से ही हो गया था। सिक्ख धर्म के दस गुरूओ में से पहले पांच गुरू 1) गुरू नानक देवजी 2) गुरू अंगद देव जी 3) गुरू अमरदास जी 4) गुरू रामदास जी तथा 5) गुरू अर्जुन देव जी द्वारा समाज में व्याप्त कुरितियो जात पात, पाखण्ड, तथा अंध विष्वास को दूर करने व समाज को जागृत करने का कार्य किया गया। इन गुरूओ के द्वारा विभिन्न उपदेषो एवं वाणियो की रचना की गई जिसे सिक्खो के धार्मिक ग्रंथ गुरू ग्रंथ साहिब में समायोजित किया गया है। श्री गुरू गं्रथ साहिब को सिक्खो के ग्यारहवे गुरू के रूप में स्थापित किया गया है जो की एक स्थायी गुरू स्वरूप है।
सिक्ख धर्म में खालसा पंथ की स्थापना के मूल कारक तत्व, दर्षन एवं आध्यात्म के बिन्दुओं पर भी विचार करने की आवष्यक्ता प्रतीत होती है। इस पर विचार करने से पहले हम बैसाखी से जुडी एतिहासिक घटनाओ पर भी विचार करेेंगे।
वर्ष 1919 में स्वर्ण मंदिर परिसर अंचल में बैसाखी के अवसर पर हुए जलियावाला बाग नरसंहार की गाथा को लगभग सभी भारतवासी जानते है। इससे पूर्व वर्ष 1762 में भी अफगान सेनापती दुर्रानी के द्वारा बैसाखी के अवसर पर स्वर्ण मंदिर पर आक्रमण कर भारी तबाही मचाई गई थी। इस हमले मे गुरूद्वारे के पवित्र गुंबद व अन्य संरचनाएं क्षतिग्रस्त हो गई थी तथा मुगल सैनिको के द्वारा पवित्र सरोवर में मलबा व गंदगी भरकर इसे नष्ट करने की असफल कोषिष की गई। स्वतंत्र भारत में भी वर्ष 1984 में इस पवित्र धर्मस्थल को सेना भेजकर तोपो और टैंको से क्षतिग्रस्त किया गया जैसे की कि दुष्मन देष के किलो पर हमला किया जाता है। सिक्खो के पूर्ण इतिहास को यदि देखा जाए तो एक बात स्पष्ट नजर आती है कि सिक्खो के द्वारा ना तो कभी समाज के किसी वर्ग केा दबाया गया ना ही किसी सरकार या तानाषाह के दबाव को स्वीकार किया गया। वास्तव में सिक्ख धर्म की मूल किसी पर राज या शासन करना नहीं है। इसी कारण सिक्खो का राज भारत से लेकर ईरान तक फैले होने के बावजूद जिसमें कि अफगानिस्तान भी शामील था सिक्खो के द्वारा किसी भी धर्म के मामलो में हस्तक्षेप नहीं किया गया। जिस अफगानिस्तान को 200 वर्ष से ब्रिटेन, अमेरिका और रूस नियंत्रित नहीं कर पाए उसे सिक्खो के द्वारा अपने अधीन कर विलीन कर लिया गया था। सिक्खों के द्वारा अनेक बार दिल्ली विजय कर लाल किले पर केसरी ध्वज फहराया गया किंतु राज नहीं किया।
सामान्यतः प्रत्येक धर्म के दो पक्ष होते है। एक दार्षनिक या सैध्दान्तिक तथा दूसरा व्यहवारिक या साधना। दार्षनिक पक्ष ईष्वर के स्वभाव स्वरूप आदी के साथ साथ विष्व की संरचना एवं मनुष्य जीवन के संदर्भ में व्याख्या करता है। वहीं दूसरा पक्ष व्यहवारिक या साधना मार्ग को प्रतिपादित करता है। जिसमें कर्मयोग, ग्यान योग तथा भक्ति योग शामिल है। श्री गुरू गोविन्द सिंह जी के द्वारा संस्कृत, फारसी तथा अरबी भाषाओ के गहन अध्ययन के पष्चात् दुनिया के अनेक धर्मो का अध्ययन तुलनात्मक अवलोकन किया गया। वे महान कवी होने के साथ साथ महान योध्दा भी थे। गुरू गोविन्द सिंह जी के द्वारा सिक्ख धर्म की स्थापना के साथ दो विचार शैलियो की स्थापना भी की गई। एक सिक्ख गुरूओ के उपदेषो तथा व्यहवारिक षिक्षाओ पर आधारित संस्थागत सिक्खो की जीवन शैली तथा द्वितीय संस्थागत शैली को दार्षनिक एवं वैचारिक पृष्ठभूमि प्रदान करने वाले पक्ष की शैली, इसी के आधार पर सिक्ख धर्म में दो शैली के विचारक एवं उपदेषको का प्रदुर्भाव हुआ। ये क्रमषः ग्यानी एवं निर्मला के रूप में जाने गए। निर्मलो को पन्डित भी कहा जाता था।
गुरू गोविन्द सिंह जी को यह स्वीकार्य नहीं था कि प्राचीन हिन्दु वैदिक ज्ञान एवं आध्यात्म के ज्ञान से लोग दूर हो जाए। इस हेतु उनके द्वारा अपने पांच अनुयायी सिक्खो 1)श्री राम सिंह 2) श्री करम सिंह 3) श्री गण्डा सिंह 4) श्री वीर सिंह 5) श्री शोभा सिंह को वैदिक ज्ञान धार्मिक संस्कारो तथा अनुष्ठानो आदी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए विद्वान धर्म गुरूओं के पास बनारस भेजा गया। वे जानते थे की बनारस के धर्म गुरू इन्हे षिक्षा देने सहमत नहीं होंगे अतः पांचो सिक्ख षिष्यो को साधु रूप से पोषाक धारण कर धनुष के साथ सज्जित किया गया। इन सिक्खो के द्वारा पूर्ण वैदिक एवं धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर लौटने पर गुरू गोविंद सिंह जी द्वारा इन्हे निर्मल नाम दिया गया। निर्मल पक्ष को अन्यो की तुलना में अधिक सम्मान प्राप्त था। ये मुख्यतः संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित वेदो, आदेषो तथा औषधियो के प्रचार तक ही सीमित रहे तथा व्यवहारिक जीवन में इनका महत्व एवं प्रभाव धीरे धीरे समाप्त हो गया।
सिक्ख धर्म एकात्मवाद में विष्वास करता है। एक अकाल शक्ति है जो सृष्टी की सरंचना तथा संचालन करती है तथा संहार भी करती है। मनुष्य की आत्मा का इससे मिलन होना ही मोक्ष है। हिन्दु धर्म की तरह सिक्ख भी आत्मा तथा पुनर्जन्म में विष्वास करते है किन्तु ईष्वर के अवतार को एवं विभिन्न कार्मकाण्ड को स्वीकार नहीं करते। मुसलिम भी आदि शाक्ति अल्लाह को मानते है जो कि मोहम्मद पैगम्बर के माध्यम से उपदेष देते है। सिक्ख बौध्द धर्म की तरह जाति वर्ण भेद आदी को नहीं मानते किंतु बौध्द धर्म में मानव शरीर को साधना द्वारा कष्ट सहकर ज्ञान प्राप्त करने के सिध्दान्त को स्वीकार नहीं करते है ईसाई धर्म पुनर्जन्म में विष्वास नही करतें किंतु वे भी एक आदीषक्ति में विष्वास करते है तथा ईसा मसीह को उसका पुत्र मानते है।
गुरू गोविंद सिंह जी के द्वारा सिक्खो को धार्मिक दायित्वों के निर्वाह के साथ कर्तव्यो एवं आचार संहिता का निर्धारण कर पालन करने के लिए प्रतिबध्द किया गया। जिस समय विदेषी आक्रमणो से भारत का जन मानस पूर्णतः निराष हो गया था तथा भारत की संस्कृति तार तार हो रही थी एसे समय श्री गुरू गोविन्द सिंह जी के द्वारा सीमित साधनों एवं सहयोगियो के बावजूद उच्च मानोबल एवं आदर्षाे के साथ (सत्य) धर्म एवं समाज को पुनः सम्मानजनक स्थिति में खडा किया गया। इसी का परिणाम है कि आज भी सिक्ख किसी भी प्रकार की विपत्ती आने पर मानव समाज की सेवा के लिए बिना किसी ऊच नीच एवं जाती धर्म की भावना के पूर्ण समर्पण से सेवा के लिए तत्पर रहते है।
चरण पाल सिंह बाजवा
अध्यक्ष
पंजाबी भाईचारा समिति

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