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Reels Adiction in Kids : Real नहीं Reels की दुनिया में खो रहे आपके "भविष्य" ... संभाल लें वरना लाइफ में रील्स की तरह हो जाएंगे Scroll

Reels Adiction in Kids : शॉर्ट वीडियोज देखने से बच्चे कें अंदर इंस्टेंट इमोशनल चेंजेस आते हैं. जैसे बच्चा कोई कॉमेडी वीडियो देख रहा है तो वो अचानक खुश हो जाएगा. कुछ सेकेंड बाद कोई सेड वीडियो उसने देखा तो वो दुखी हो जाएगा. यानी वीडियो के हिसाब से बहुत जल्दी-जल्दी उसमें इमोशनल चेंज होते हैं. एडल्ट लोग भी जब इस तरह के वीडियो देखते हैं तो वो भी अपने माइंड को कंट्रोल नहीं कर पाते. तो सोचिए एक बच्चा जिसका ब्रेन पूरी तरह से विकसित भी नहीं हुआ है, वो इस तरह के वीडियो देखेगा तो उसके ब्रेन पर कितना ज्यादा असर पड़ेगा.

By Meenu

Reels Adiction in Kids : छुट्टी का दिन हो... या फिर स्कूल से आते ही... या फिर कहे अगर पेरेंट्स काम या किसी चीज में बीजी हो तब... बच्चो के हाथ में मोबाइल नजर आ ही जाता है. बच्चे करते भी क्या है आपने कभी नोटिस किया है? जरा ध्यान से देखिएगा जो दिखाया जा रहा है उसमे हूबहू उतरने की कोशिश. जैसे जीता जागता बच्चा मोबाइल रूपी बोतल में उतर गया हो और उसमे कैद हो.

न ही वो किड्स कंटेंट देखता है न ज्ञान की कुछ चीजे सर्च करता है न कुछ पढ़ता है वो देखता और और उसमें हूबहू उतरने की कोशिश करता है वो है रील्स. आपका बच्‍चा घंटों फोन में रील्‍स देखता है. यूट्यूब या इंस्‍टाग्राम में लगातर रील्स देखना आंखों और दिमाग के लिए ही खराब नहीं है, बल्कि इसके चलते कई ऐसी मुसीबत पीछे लग सकती हैं कि आपका और बच्‍चे का जीना मुहाल हो सकता है.

ये आदत बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास दोनों के लिए काफी खतरनाक है. अगर आपके बच्चे को भी मोबाइल पर घंटों बैठकर रील्स और शॉर्ट्स वीडियोज देखने की आदत लग गई है तो जान लें कि इससे उसके दिमाग यानी ब्रेन पर क्या असर पड़ सकता है.

ज्यादा समय तक रील्स/ शॉर्ट्स देखने से बच्चे की मेमोरी (Memory) कम होती जाती है. उनका पढ़ाई में फोकस (Focus) कम हो जाता है. बच्चे के अंटेशन स्पैन (Attention Span) और क्रिएटिविटी (Creativity) पर भी इसका असर पड़ता है.

आजकल बहुत से बच्‍चे बिना फोन के खाना नहीं खाते और खाना खाते वक्‍त रील्‍स या यूट्यूब वीडियोज देखते रहते हैं. आपको भी लगता होगा कि कुछ गलत तो देख नहीं रहे, फिर क्‍या दिक्‍कत है?

बता दें कि इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्‍स की ओर से पेरेंट्स के लिए स्‍क्रीन टाइम गाइडलाइंस बनाई गई हैं, जिनमें बच्‍चों को सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म्स के इस्‍तेमाल की अनुमति देने या न देने को लेकर भी स्‍पष्‍ट निर्देश दिए गए हैं. साथ ही आजकल सबसे ज्‍यादा पॉपुलर कई सोशल मीडिया साइट्स की परमिसिबल एज भी बताई गई है. आइए जानते हैं..


क्‍या कहती हैं गाइडलाइंस?




सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म और जायज उम्र

फेसबुक, स्‍नैपचैट, इंस्‍टाग्राम, ट्विटर और गूगल प्‍लस – 13 साल कम से कम

व्‍हाट्सएप- 16 साल

यूट्यूब- 18 साल, 13 से 18 साल में पेरेंट्स की अनुमति से

पबजी- 18 साल, 13 से 18 साल तक समय की पाबंदी, 13 साल से नीचे के बच्‍चों को पेरेंट्स की अनुमति से

क्‍लैश ऑफ क्‍लैन्‍स- 13 साल

बच्‍चों को हो सकती हैं ये परेशानियां

- अगर आपका बच्‍चा छोटा है, इसके बावजूद इन सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म्स का इस्‍तेमाल करता है तो उसको कई नुकसान हो सकते हैं.

. बच्‍चा गलत वेबसाइट, फेक न्‍यूज या खराब और पोर्न कंटेंट की तरफ जा सकता है.

. बच्‍चे को सोशल मीडिया एंग्‍जाइटी हो सकती है.

. गलत या फ्रॉड लोगों से दोस्‍ती होने पर वह रिस्‍की ऑनलाइन व्‍यवहार को अपना सकता है.

. बच्‍चा साइबर बुलिंग का शिकार हो सकता है.

. सेक्‍सुअल मेटेरियल या चैटिंग प्‍लेटफॉर्म्स की तरफ बच्‍चा मुड़ सकता है.

. बच्‍चा प्राइवेट चीजों को लीक कर सकता है जैसे बैंक अकाउंट डिटेल्‍स, क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड डिटेल्‍स आदि और बड़ा फ्रॉड हो सकता है.

पेरेंट्स करें ये काम

गाइडलाइंस कहती हैं क‍ि अपने बच्‍चों को सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म या वीडियो गेम देने से पहले आप खुद उसे देखें, खेलें और फिर एनालाइज करें कि क्‍या इस उम्र के आपके बच्‍चे के लिए ये ठीक है या नहीं. इतना ही नहीं बच्‍चों से सोशल मीडिया इस्‍तेमाल करने के उनके कारणों के बारे में भी सुनें और उन्‍हें ऑनलाइन सेफ्टी के बारे में बताएं.

इस तरह होती है पहचान

सोशल मीडिया पर मोबाइल या टीवी आदि अन्य माध्यम से जुड़ने के बाद बच्चा अति उत्साहित होता है। वह अकेले रहना अधिक पसंद करने लगता है। बाहर जाने का कहने पर आनाकानी करता है। बच्चा कई बार काल्पनिक बातें भी करता है। उसका वजन बढऩे लगता है। नजर कमजोर हो जाती है। खाने-पीने में लापरवाही बरतता है। नींद कम लेता है। पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। ये ऐसे लक्षण है, जिससे बच्चों के सोशल मीडिया पर रील का आदी होने का पता लगता है।

यह है बच्चों के हालात




शहर निवासी एक बच्ची कोविड काल में मोबाइल से अध्ययन करने लगी। वह पढऩे के साथ उस पर रील भी देखने लगी। उसकी स्थिति यह हो गई कि वह स्कूल शुरू होने के बाद भी तीन से चार घंटे तक रील देखती। स्कूल से आते ही मोबाइल की मांग करती। इसी तरह से एक ढाई साल का बच्चा, मोबाइल पर रील व अन्य सामग्री देखता है। उसकी स्थिति यह है कि वह मोबाइल पर रील देखे बिना खाना तक नहीं खाता है। नाश्ता करते समय भी माता-पिता को उसे मोबाइल देना पड़ता है। ऐसे एक-दो नहीं बल्कि कई बच्चे है जो मोबाइल पर रील देखने की आदत है और इसका नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है।

माता-पिता बच्चों पर रखें नजर

यदि बच्चा सोशल मीडिया का आदी हो गया है तो अचानक उसे डांटकर या उसमें कमी लाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। वह गुस्सा कर सकता है। यह लत छुड़वाने के लिए धीरे-धीरे प्रयास करने चाहिए। मोबाइल में टाइम लिमिट डाली जा सकती है। जिससे तय समय बाद मोबाइल बंद हो जाए, लेकिन इसका पता बच्चे को नहीं लगना चाहिए। कई बच्चे मोबाइल पर रील से कमाई करने के बारे में सोचते है। उनको इसके अच्छे व बुरे परिणाम के बारे में बताएं। अभिभावकों को बच्चों के साथ खेलने के साथ अन्य गतिविधियों में समय गुजारना चाहिए। बच्चों के सामने खुद भी मोबाइल का उपयोग सीमित करना चाहिए। वहीं बच्चों को कम से कम मोबाइल हाथ में दिया जाए। माता-पिता को बच्चों पर मॉनिटरिंग भी रखनी चाहिए, ताकि बच्चा अधिक समय के लिए मोबाइल नहीं देखे.

रील्स से आई मानसिक बीमारियों की सुनामी


शहर के मनोविकित्सक डॉ. अमृत मजूमदार के अनुसार सोशल मीडिया जहां पहले लोगों से जुड़ने का साधन था, वहीं आज मनोरंजन का भी बड़ा मंच है। लेकिन मनोरंजन के चक्कर में आपकी सेहत से किस तरह का खिलवाड़ हो रहा है, इसका अंदाजा लगाना तक मुश्किल है। लोगों पर रील्स और सोशल मीडिया का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। सेहत के लिहाज से हमारी सोसायटी में ये एक सुनामी है जो आ चुकी है। अब हमें इससे लड़ना है। मोबाइल का प्रयोग तो जरूरी है लेकिन अति में प्रयोग करने की वजह से युवाओं में इतना असर हो रहा है कि उनमें इंसोम्निया, स्लीप डिसऑर्डर, एंग्जाइटी की समस्या और स्ट्रेस काफी बढ़ गया है।


लत बन चुकी है ये आदत

रील्स के प्रयोग की वजह से फिजिकल एक्टिविटी तो अब बहुत कम हो गई हैं और लोग वर्चुअल दुनिया में जी रहे हैं। ज्यादा टाइम तक ऐसे ही रील्स या मोबाइल का प्रयोग करने से ये तमाम समस्याएं बढ़ सकती हैं। रील्स का अत्यधिक प्रयोग दिमाग के फोकस पर बुरा असर डाल रहा है। ये भी एक बीमारी है कि सुबह उठकर आपको लगता है कि मुझे रील्स देखनी है। ये आदत ऐसी है जिसके बिना आप रह नहीं पाते।

वर्चुअल दुनिया में रहकर हो गए अकेले


कहते हैं कि किसी भी चीज में अति नुकसान की वजह बन जाती है। रील्स भी आपके जीवन में ऐसा ही रोल निभा रही हैं। लोग असल दुनिया में ना रहकर वर्चुअल दुनिया में इतना घुस गए हैं कि उनको अहसास तक नहीं हो पा रहा है कि वो कितने अकेले हो गए हैं।

पहले लोग एक-दूसरे से मिलते थे, बाहर जाकर समय बिताते थे, वो अब बंद हो गया है। अब सब ऑनलाइन ही बोलचाल तक सीमित हो गया है। बड़े लोगों में तो सोशलाइजेशन वाली स्किल डेवलप हो चुकी है लेकिन आज के बच्चों में वो विकसित नहीं हो पा रही। वो परिवार और दूसरे लोगों से बातचीत करना पसंद नहीं कर रहे हैं। इस वजह से एंग्जाइटी और आइसोलेशन की समस्या खड़ी हो रही है।

कंपेयरिंग की समस्या




बच्चों में भी खासतौर पर लड़कियों में कंपेयरिंग की समस्या खड़ी हो रही है। वह रील्स में देखकर सोचती हैं कि मैं इतनी गुड लुकिंग क्यों नहीं हूं। इस कारण उनमें ईटिंग डिसऑर्डर तक पनप रहा है।

बहुत सारे बच्चे नींद में सोशल मीडिया के बारे में बात करते हैं। रील्स का प्रयोग इतना बढ़ गया है कि बच्चे का ब्रेन सोने और जागने के टाइम में फर्क नहीं कर पा रहा। लोग रील्स की वजह से टाइम मैनेजमेंट नहीं कर पा रहे हैं, जिसके कारण उनके दूसरे कामों पर फर्क पड़ रहा है।


गर्दन, कमर टेढ़ी होने के बढ़ रहे मामले


हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉ. संजय पांडे के अनुसार रील्स की लत कुछ ऐसी है कि हम एक ही पोजिशन में कई घंटे बैठे और लेटे हुए उसे देखते रहते हैं। ज्यादातर लोग उसी पोजिशन में रहते हैं जो उनको आराम महसूस कराए। मम्मी-पापा बोलते रह जाते हैं लेकिन हम उनको भी नजरअंदाज करते रहते हैं। इसका असर आपकी हड्डियों पर भी पड़ रहा है। रील्स का सबसे बुरा असर अभी युवाओं में देखने को मिल रहा है। उनमें पॉश्चर से जुड़ी समस्याएं खड़ी हो रही हैं। बहुत से लोगों में गर्दन में दर्द और टेढ़ेपन की परेशानियां देखने को मिल रही हैं।

फोन देखते हुए भावनात्मक रूप से जूझते हैं बच्चे

वीडियो की वजह से बच्चे में जल्दी-जल्दी होने वाले इन इमोशनल चेंज से वो कन्फ्यूज हो जाता है, जिसकी वजह से बच्चा चिड़चिड़ा हो सकता है, गुस्सा करने लग सकता है और छोटी-छोटी बातों पर रोने लग सकता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बच्चों के दिमाग का एक बहुत अहम हिस्सा जिसे prefrontal cortex कहते हैं, जो डिसीजन मेकिंग और इंपल्स कंट्रोल के लिए रिस्पांसिबल होता है, वो अब तक डेवलप नहीं हुआ होता है.

बच्चों की आंखों पर फोन के नुकसान

नेत्र चिकित्सकों का मानना है कि खराब लाइफस्टाइल और स्क्रीन का लंबे समय तक इस्तेमाल करने से 2030 तक भारत के शहरों में 5-15 साल की उम्र के एक-तिहाई बच्चों के मायोपिया से पीड़ित होने की संभावना है. इसलिए बहुत जरूरी है कि पेरेंट्स इस बात पर खास ध्यान दें कि उनका बच्चा कहीं ज्यादा देर तक रील्स या शॉर्ट वीडियो तो नहीं देख रहा.

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