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Kondagaon fair of chhattisgarh : कोंडागांव के इस मेले में होता है अनेक देवी-देवताओं का समागम, साल 1330 से चली आ रही है परंपरा

Kondagaon fair of chhattisgarh : कोंडागांव के इस मेले में होता है अनेक देवी-देवताओं का समागम, साल 1330 से चली आ रही है परंपरा
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Kondagaon Fair of Chhattisgarh: क्या आपने सुना है कि किसी मेले में स्वयं देवी-देवता अवतरित होते हैं। कोंडागांव के ऎतिहासिक मेले में ऐसा होता है। मेले में एक नहीं बल्कि अनेक गांवों के देवी-देवताओं का समागम होता है। इन देवी-देवताओं को ग्रामीण पूर्ण विधि-विधान से पूजते हैं। देवी-देवताओं के साथ छत्र और बहुरंगी झंडियों से सजे देव विग्रह पकड़कर सैकड़ों श्रद्धालु मेले की परिक्रमा करते हैं। ढ़ोल- नगाड़े की थाप पर लोग नाचते- गाते और जश्न मनाते हैं। यह दृश्य अपने आप में अद्भुत होता है। झूले-मनोरंजन , खानपान और खरीदारी का भी मज़ा ग्रामीण लेते हैं। साल 1330 से इस मेले का आयोजन किया जा रहा है और आज भी यह परंपरा पूरे उत्साह से ज़ारी है।

ऐसे शुरू होता है मेला, आम की टहनी हाथ में ले कोटवार देते हैं निमंत्रण

हर साल होली से करीब 10 दिन पहले इस मेले का आयोजन किया जाता है। इसका आयोजन मेला समिति द्वारा किया जाता है। गांव का कोटवार हाथ में आम की टहनी लेकर मेला समिति के सदस्यों के साथ साप्ताहिक बाजार में घूमते हुए लोगों को मेले में आने का निमंत्रण देता है। यह परंपरा मेला आयोजन की शुरुआत से जस की तस चली आ रही है।

गाड़ी जाती है कील

मेले के आगाज के पहले मेला स्थल में कील गाड़ी जाती है। इस रस्म को मांडो रस्म कहते हैं। इसका प्रयोजन यह होता है कि मेले के दौरान कोई आपदा न आए। कोई अनहोनी न घटे।

परिक्रमा है आवश्यक

'परिक्रमा' कोंडागांव के इस वार्षिक मेले का आवश्यक अंग है। सबसे पहले बूढ़ी माता या डोकरी देवी मंदिर में गायता, पुजारी और ग्रामीण इकट्ठे होते हैं। पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुन के साथ बूढ़ी माता की पालकी लेकर लोग मेला स्थल पहुंचते हैं। बूढ़ी माता की पूजा के बाद समागम में आए विभिन्न देवी-देवताओं का स्वागत होता है।

मेले की प्रमुख देवी पलारी से आई पलारीमाता कहलाती हैं। सबसे पहले उन्हीं के द्वारा मेला स्थल का फेरा लगाया जाता है। इसके बाद विभिन्न समुदायों से आए देवी-देवता मेले की परिक्रमा करते हैं। इनमें सियान देव, चौरासी देव, बूढाराव, जरही मावली, गपा-गोसीन, सेदंरी माता, दुलारी माई, राजाराव, झूलना राव, आंगा, कलार बूढ़ा, बाघा बसीन आदि शामिल होते हैं। जब देवी-देवता मेले की परिक्रमा करते हैं तब महिलाएं भीगे चावल व पुष्प अर्पित कर क्षेत्र की खुशहाली की कामना करती है।इस दौरान पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुन गूंजती है। लोकनृत्यों की प्रस्तुति भी की जाती है।

परंपरा निर्वहन के साथ ग्रामीण लेते हैं मेले का आनंद

ग्रामीण धार्मिक आस्था के साथ परंपरा निर्वहन करने के बाद मेले का आनंद भी खूब लेते हैं। मेले में तरह-तरह के झूले लगते हैं। लकड़ी, बांस, बेलमेटल सहित कई तरह के हस्तशिल्प बिक्री के लिए आते हैं। खानपान का भी बंदोबस्त होता है। वर्ष में एक बार लगने वाले मेले में आसपास के अनेक गांवों के लोगों की भीड़ उमड़ती है।

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