Jagnnath Rath Yatra Special: पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा होती है बहुत खास, जानिए इसके पीछे छिपे रहस्य
Jagnnath Rath Yatra Special: जगन्नाथ की रथयात्रा ओडिशा के जगन्नाथ पुरी मंदिर का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण आयोजन है। यह विश्वप्रसिद्ध यात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को शुरू होती है और आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को इसका समापन होता है। इस उत्सव के लिए पुरी नगर देश भर के कृष्ण भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र होता है। जगन्नाथपुरी का वर्णन स्कन्द पुराण के साथ-साथ नारद पुराण में भी किया गया है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। 12वीं शताब्दी में बने श्री जगन्नाथ मंदिर के सामने लकड़ी से बने तीन विशाल रथ सजा-धजा कर खड़े किए जाते हैं, जिन्हें हजारों लोग मोटी-मोटी रस्सियों से खींचते है। तीनों रथ भगवान जगन्नाथ, भाई बलरामजी और उनकी बहन सुभद्राजी के होते हैं। रथ यात्रा उत्सव 9 दिनों तक चलता है।
रथयात्रा के धार्मिक महत्व
इस रथ यात्रा के आरंभ से पहले भगवान जगन्नाथजी के रथ के सामने सोने के हत्थे वाली झाडू लगाई जाती है। जिसके बाद मंत्रोच्चार और जयघोष के साथ ढोल, नगाड़े और तुरही बजा कर रथों को खींचा जाता है। इस रथ यात्रा का आरंभ सबसे पहले बड़े भाई बलरामजी के रथ से होता है। जिसके बाद बहन सुभद्राजी और फिर अंत में जगन्नाथ जी के रथ को चलाया जाता है।तीनों भाई-बहन के रथों के रंग अलग होते हैं और नाम भी अलग-अलग होते हैं। भगवान जगन्नाथ के रथ को ‘गरुड़ध्वज” या ‘कपिलध्वज” कहा जाता है। यह इन तीनों रथों में सबसे बड़ा होता है। इसमें कुल 16 पहिए लगे होते हैं। इस रथ की ऊंचाई 13.5 मीटर होती है। इस रथ में लाल व पीले रंग के कपड़े का इस्तेमाल होता है। रथ की रक्षा गरुड़ करते हैं। रथ पर लगे ध्वज को ‘त्रैलोक्यमोहिनी” कहते हैं।
बलरामजी का रथ ‘तलध्वज” के नाम से पहचाना जाता है। यह भगवान जगन्नाथ के रथ से छोटा लेकिन सुभद्राजी से रथ से बड़ा होता है जिसकी ऊंचाई 13.2 मीटर होती है। बलरामजी के रथ में लाल और हरा कपड़े का इस्तेमाल होता है। इस रथ में कुल 14 पहिए लगे होते हैं। इस रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं।
सुभद्राजी के रथ को ‘पद्मध्वज” कहा जाता है। यह रथ 12.9 मीटर ऊंचा होता है और इसमें कुल 12 पहिए लगे होते हैं। इस रथ में लाल, काले कपड़े का इस्तेमाल होता है। रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। मौसी के घर पहुंच कर संपन्न होती है यात्रा।जगन्नाथ जी की रथ यात्रा पुरी से गुंडिचा मंदिर पहुंचकर पूरी होती है। इस मंदिर को भगवान की मौसी का घर माना जाता है। इस मंदिर में भगवान को एक हफ्ते तक ठहराया जाता है, जहां वे आराम करते हैं और उनकी पूजा की जाती है।इस मंदिर में यानी मौसी के घर पर तीनों को स्वादिष्ट पकवानों का भोग लगाया जाता है। जिसके बाद भगवान जगन्नाथ बीमार भी पड़ते हैं। यही नहीं उन्हें पथ्य का भोग लगा कर जल्द ठीक भी कर दिया जाता है।
पुराणों में बताया गया है कि राजा इंद्रद्युम्न अपने राज्य में भगवान की प्रतिमा बनवा रहे थे, उनके शिल्पकार भगवान की प्रतिमा को बीच में ही अधूरा छोड़कर चले गए। यह देखकर राजा विलाप करने लगे। भगवान ने इंद्रद्युम्न को दर्शन देकर कहा ‘विलाप न करो। मैंने नारद को वचन दिया है कि बालरूप में इसी आकार में पृथ्वीलोक पर रहूंगा।” बाद में भगवान ने राजा को आदेश दिया कि 108 घट के जल से मेरा अभिषेक किया जाए। तब ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा थी। तब से यह मान्यता चली आ रही है कि किसी शिशु को यदि कुएं के ठंडे पानी से स्नान कराया जाएगा तो बीमार पड़ना स्वाभाविक है। इसलिए तब से ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा से अमावस्या तक भगवान की बीमार शिशु की तरह सेवा की जाती है। इस दौरान मंदिर के पट बंद रहते हैं और भगवान को सिर्फ काढ़े का भोग लगाया जाता है।
रथयात्रा के 10 वें दिन वापसी करते हैं भगवान जगन्नाथ
भगवान जगन्नाथ आषाढ़ माह के दसवें दिन पुरी के लिए प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। यात्रा समाप्त होने के बाद भी तीनों देवी-देवता रथ में ही रहते हैं। फिर दूसरे दिन एकादशी को इन्हें मंदिर में प्रवेश कराया जाता है। रथ यात्रा के दौरान घरों में सभी पूजा-पाठ बंद कर दिए जाते हैं और उपवास भी नहीं रखा जाता है। रथयात्रा से लेकर अनेक मान्यताएं हैं लेकिन सबसे पौराणिक मान्यता यह है कि द्वारका में एक बार भगवान जगन्नाथ से उनकी बहन सुभद्रा ने नगर देखना चाहा था। तब भगवान श्री कृष्ण यानी जगन्नाथ ने अपनी बहन को रथ पर बैठाकर नगर का भ्रमण कराया। यही कारण है कि हर साल जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा में भगवान श्री कृष्ण, भाई बलराम और बहन सुभद्रा की प्रतिमाएं रखी जाती है और इसी घटना की याद में हर साल तीनों देवों को रथ पर बैठाकर नगर के दर्शन कराए जाते हैं।