Halchhath Pooja in Chhattisgarh: छत्तीसगढ़ में कल होगी हलछठ पूजा, बच्चों की दीर्घायु, स्वास्थ्य और सुख की कामना के लिए महिलाएं करेंगी पूजा...
Halchhath Pooja in Chhattisgarh : रायपुर। छत्तीसगढ़ में हलछठ की पूजा का विशेष महत्व है।भाद्रपद के महीने के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को हलछठ की पूजा की जाती है। इस दिन माताएं अपने बच्चों की दीर्घायु और सुख-समृद्धि की कामना के साथ व्रत करती हैं। कई जगहों पर पुत्रवती माताएं यह पूजा करती हैं और कई जगह ऐसा कोई बंधन नहीं है। इस दिन की खासियत यह भी है कि इस दिन महिलाएं हल से जोता हुआ अनाज नहीं खातीं। इस दिन माताएं शाम को व्रत खोलती हैं और पसहर चावल को भैंस के दूध से बने दही के साथ खाती हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था। आइए जानते हैं छत्तीसगढ़ में किस खास रीति से यह पूजा की जाती है।
हलछठ पूजा की प्रारंभिक तैयारी
हलछठ की पूजा के ढेर सारे नियम हैं। और इसके लिए खासी तैयारी करनी होती है। छत्तीसगढ़ के गली-मोहल्लों में इस दिन सुबह पांच बजे से ही दोना-पत्तल बेचने वाले आने लगते हैं। अपने बच्चों की दीर्घायु की कामना के साथ व्रत कर रही स्थानीय महिला दुर्गा मार्कंडेय बताती हैं कि इस पूजा में छह की संख्या का बहुत महत्व है। इसलिए मुंह-अंधेरे उठ कर वे दोना-पत्तल, खम्हार या महुआ पेड़ की दातौन, कांस का फूल आदि पूजन सामग्री लेकर बेचने आने वालों का रास्ता देखती हैं। सामान लेकर पूजा स्थल में रखने के उपरांत वे दातौन से ही दांत मांजती हैं और स्नानादि करने के बाद पूजा की तैयारी करती हैं।
ऐसी होती है पूजा की थाली
हलछठ पूजा की थाली बहुत अनूठे ढंग से तैयार होती है। छह दोनों में लाई रखी जाती है, फिर छोटे-छोटे तीन पात्रों में भैंस का दूध, भैंस के दूध से ही बना दही और घी रखा जाता है। छह तरह के भूने हुए अनाज भी पूजा में रखे जाते हैं। इसके अलावा फूल, दूब, फल, नारियल आदि रखे जाते हैं। सूती कपड़े के छह छोटे चौकोर टुकड़े भी हल्दी या छुई मिट्टी के घोल में डुबोकर थाली में रखे जाते हैं। साथ ही माताएं अपने हाथ से ही बच्चों के लिए मिट्टी के खिलौने बनाती हैं जैसे भौंरे, नाव, पतवार आदि। ये सभी छह-छह की संख्या में ही बनाए जाते हैं।
मंदिर जाकर पूजती हैं माता हलषष्ठी को
सारी तैयारियों के बाद महिलाएं यथासंभव नई साड़ी पहन, पैरों में आलता लगा, बाकी श्रृंगार करती हैं। फिर पूजा की थाल लेकर प्रायः समूह में मंदिर पहुंचती हैं। स्थानीय निवासी ममता आगे की विधि बताती हैं कि मंदिर में पूजा कर महिलाएं मंदिर के बाहर ही दो कुंड (कम गहराई के दो गड्ढे) बनाती हैं। दोनों कुंड के बीच हाथ से बने गौरा-गौरी स्थापित करती हैं। कांसे के फूल गाड़े जाते हैं। हलषष्ठी माता की छवि बनाई जाती है। पुजारी पूजन की विधि संपन्न करवाते हैं जिसमें महिलाएं साथ लाई पूजा की सामग्री कुंड में एक-एक कर समर्पित करती हैं। इस समय पुजारी छह कथाएं भी सुनाते हैं। सभी महिलाएं आरती करती हैं और पूजन के पश्चात अपने द्वारा चढ़ाए सूती कपड़े के टुकड़े भी साथ लेकर घर लौट आती हैं।
माताएं घर लौट इस तरह करती हैं बच्चों का समस्या से बचाव
खासकर बच्चों के लिए माताएं इतने विधि-विधान से पूजा करती हैं। पूजा कर लौटते समय साथ लाए गए सूती कपड़े के रंगे हुए टुकड़ों को वे अपने बच्चों की पीठ पर थपथपाती हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से हलषष्ठी माता की कृपा से बच्चों पर आने वाली सभी विपदाएं टल जाती हैं और वे दीर्घायु होते हैं, और सुख-समृद्धि को प्राप्त करते हैं।
इस तरह खोलती हैं व्रत
हलषष्ठी व्रत में सूर्यास्त से पूर्व ही महिलाएं व्रत खोलती हैं। इस दिन पसहर चावल खाए जाते हैं। भैंस के दूध से बने दही के साथ आमतौर पर महिलाएं चावल खाती हैं। इस चावल की खीर भी बनाई जा सकती है। दुर्गा मार्कंडेय बताती हैं कि छह सब्जियों - मुनगा, कुमढ़ा, उड़द, बरबटी, सेमी, कांदा भाजी को घी में छौंक कर सेंधा नमक और काली मिर्च के साथ पकाया जाता है। इस मिक्स सब्जी को भी कई महिलाएं व्रत खोलने पर खाती हैं।
लेकिन यह भी ध्यान रखने की बात है कि खुद खाने से पहले पसहर चावल को छह पत्तलों में रखकर छह गायों को खिलाया जाता है। उसके बाद ही महिला स्वयं कुछ खाती है। पत्तल में खाने के बाद उस पत्तल को तालाब आदि में प्रवाहित किया जाता है, कचरे में नहीं डाला जाता। इस तरह हलषष्ठी पूजा संपन्न होती है।