Raja Bharthari Ki puri katha: राजा भर्तृहरि की संपूर्ण कथा! आखिर कैसे एक स्त्री ने चक्रवर्ती सम्राट को बना दिया सन्यासी? पढ़िए इनके जीवन से जुड़ी एक फेमस कहानी।
Raja Bharthari Ki puri katha: भारत के इतिहास में अनेक प्रतापी राजा और महान ऋषि मुनि हुए, लेकिन कहते है कि इस राजा के समान दूसरा कोई न हो सका, ये है राजा भर्तृहरि। आज हम आपको इतिहास के एक ऐसे शख्स की कहानी बताने वाले है जिसे पढ़कर आपको अपने जीवन के सबसे गहरे सत्यों का पता चलेगा।

Raja Bharthari Ki puri katha: भारत के इतिहास में अनेक प्रतापी राजा और महान ऋषि मुनि हुए, लेकिन कहते है कि इस राजा के समान दूसरा कोई न हो सका, ये है राजा भर्तृहरि। आज हम आपको इतिहास के एक ऐसे शख्स की कहानी बताने वाले है जिसे पढ़कर आपको अपने जीवन के सबसे गहरे सत्यों का पता चलेगा। आपको ये भी पता चलेगा कि प्रेम क्या होता है और प्रेम में मिले धोखे का दर्द कैसा होता है। जानिए विलासिता पूर्ण जीवन जीने वाले राजा भर्तृहरि में किस प्रकार जाग गया वैराग्य। पढ़िए राजा भर्तृहरि की ज्ञादायिनी शिक्षा...
कौन थे राजा भर्तृहरि
राजा भर्तृहरि उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट थे और महान राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम गंधर्व सेन था। वे अपने न्यायप्रिय शासन और प्रजा के प्रति समर्पण के लिए जाने जाते थे। उनके राज्य में शांति और समृद्धि का वातावरण था। एक बात आज भी लोगों के बीच प्रसिद्ध है कि उनके शासनकाल में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे, इस बात से आप अंदाजा लगा सकते है कि वे कितने न्यायपूर्ण शासक थे। परंतु महान राजा भर्तृहरि की एक कमजोरी थी और वह थी उनकी तीसरी पत्नी रानी पिंगला के प्रति उनका अंधा प्रेम। यही प्रेम उन्हें अपने जीवन के उद्देश्य और वैराग्य की राह दिखाएगा।
राजा का रानी पिंगला के प्रति अंधा प्रेम
राजा भर्तृहरि ने कई विवाह किए परंतु उनके सबसे करीब उनकी तीसरी पत्नी थी जिसका नाम था पिंगला। वे सबसे ज्यादा इसी पर मोहित थे। पिंगला उस समय की सौदर्यमूर्ति थी। लोग सुंदरता की परिभाषा देते वक्त रानी पिंगला का नाम जरूर लिया करते थे। राजा भर्तृहरि उसकी सुंदरता पर इतने फिदा थे कि राजकाज के कामों को उन्होंने छोड़ ही दिया और राजसभा में आना भी बंद कर दिए। उनका विश्वास रानी पिंगला पर इतना था कि वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि उनकी प्रिय रानी कभी उन्हें धोखा भी दे सकती है।
अमर फल की कथा
इसी समय महान तपस्वी गुरु गोरखनाथ का उज्जैन में आगमन हुआ। राजा भर्तृहरि ने उनका भव्य स्वागत सत्कार किया जिससे गोरखनाथ अत्यंत प्रसन्न हुए। प्रसन्नता में उन्होंने राजा को एक अलौकिक अमर फल प्रदान किया और कहा कि इसे खाने से शरीर पर कभी बुढ़ापा नहीं आएगा और सदैव जवानी और सौंदर्य बनी रहेगी। राजा भर्तृहरि ने फल लेकर विचार किया कि उन्हें स्वयं इसकी क्या जरूरत है। ऐसा सोचते हुए उन्हें यह विचार आया कि यह फल वे अपनी प्रिय रानी पिंगला के देना चाहिए, जिससे वे हमेशा रूपवती बनी रहेगी। इसी प्रेम के कारण उन्होंने वह अमूल्य फल पिंगला को दे दिया।
रानी पिंगला का विश्वासघात
यहीं से इस कहानी का सबसे दुखद मोड़ आरंभ होता है। रानी पिंगला, राजा भर्तृहरि पर नहीं बल्कि वह राज्य के अश्वपाल यानी घोड़ों के रखवाले पर मोहित थी। यह रहस्य राजा से छिपा हुआ था और पिंगला अपने इस प्रेम संबंध को बड़ी चतुराई से छिपाए हुए थी। जब राजा ने उसे अमर फल दिया तो उसके मन में लालच जागा। उसने सोचा कि यदि अश्वपाल यह फल खाकर सदैव जवान रहे तो वह लंबे समय तक उसके साथ रह सकेगा।
पिंगला ने वह अमर फल अश्वपाल को दे दिया। परंतु अश्वपाल का प्रेम भी पिंगला के लिए नहीं था। वह एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने सोचा कि यदि वह वैश्या सदैव सुंदर और जवान रहे तो उसका साथ लंबे समय तक रहेगा। उसने वह फल उस वैश्या को दे दिया।
उस वैश्या ने विचार किया कि यदि वह सदैव जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे जीवन भर यही कार्य करते रहना पड़ेगा। ऐसे में उसके मन में विचार आया कि इस अमर फल की सबसे अधिक आवश्यकता राजा को है। यदि राजा सदैव जीवित रहेंगे तो प्रजा को लंबे समय तक सुख सुविधाएं मिलती रहेंगी। इस विचार से उसने वह फल राजा भर्तृहरि को अर्पित कर दिया।
जब भर्तृहरि ने वह फल देखा तो वे भयंकर आश्चर्य में पड़ गए। यह वही फल था जो उन्होंने पिंगला को दिया था। उन्होंने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहां से मिला। वैश्या ने सच बता दिया कि अश्वपाल ने दिया है। राजा ने तुरंत अश्वपाल को बुलवाया और पूछताछ की तो अश्वपाल ने सारा सच उगल दिया कि यह फल उसे महारानी पिंगला ने दिया था।
राजा भर्तृहरि का वैराग्य जीवन
जब भर्तृहरि के सामने पूरी सच्चाई आई तो उनका हृदय टूट गया। जिस पत्नी पर उन्होंने अंधा विश्वास किया था, वही उन्हें धोखा दे रही थी। उन्होंने सोचा कि मैं 52 गढ़ों का गढ़पति और सातों महाद्वीप का अकेला चक्रवर्ती सम्राट फिर भी पिंगला मुझसे खुश नहीं है और एक साधारण अश्वपाल पर मोहित है, वह अश्वपाल भी महारानी से संतुष्ट नहीं है और एक वैश्या के पीछे लगा हुआ है।
इतना सब विचार करने के पश्चात उन्हें यह समझ आया कि यह संसार काम वासना और मोह माया से भरी हुई है जहां रहना निरर्थक है। इस एक घटना ने भर्तृहरि के जीवन की दिशा ही बदल दी। उनके मन में वैराग्य जाग उठा और उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप दिया और उज्जैन की एक गुफा में जाकर तपस्या करने लगे।
12 वर्षों की कठोर तपस्या
उज्जैन की एक गुफा में राजा भर्तृहरि ने पूरे 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की। यह गुफा शिप्रा नदी के तट पर स्थित है और आज भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विद्यमान है। इस गुफा में एक सुरंग भी है ऐसा माना जाता है कि इस सुरंग से चार धामों की यात्रा की जा सकती है परंतु वर्तमान में इसे बंद कर दिया गया है। इस गुफा के पास में ही एक और गुफा है जिसे गोपीचंद गुफा कहते है। गोपीचंद, भर्तृहरि के भांजे थे और वे भी गोरखनाथ के शिष्य बने थे।
जब राजा अपना सन्यासी जीवन व्यतीत करने के लिए गुरु गोरखनाथ के पास आए तो गुरु ने राजा को पूरी सच्चाई बताई की उसकी पत्नी पूरी तरह से पतिव्रता नारी है, उसमें कोई दोष नहीं है। यह सब मेरी ही माया थी, जो तुम्हें यहां तक ले आई।
राजा भर्तृहरि एक महान सन्यासी होने के साथ साथ उत्कृष्ठ लेखक भी थे। जब वे भोग विलासिता में डूबे हुए थे तब उन्होंने शृंगारशतक की रचना की थी, जिसमें प्रेम और सौंदर्य का वर्णन किया है। फिर जब वे सन्यासी बने तब उन्होंने नीतिशतक और वैराग्यशतक नाम के संस्कृत के महान ग्रंथों की रचना की।
