Chhattisgarh Ki 36 Deviyan: छत्तीसगढ़ की रक्षा करती है 36 देवियां, जाने कहाँ-कहाँ हैं इन देवियों के मंदिर, क्या है इनकी मान्यताएं...
Chhattisgarh Ki 36 Deviyan: छत्तीसगढ़ में हैहयवंशी राजाओं ने 36 किले का निर्माण कराया था. वहीं पर 36 शक्तिपीठ का भी निर्माण करवाया गया था. छत्तीसगढ़ राज्य में 36 देवियाँ अपने प्राचीनतम इतिहास, पौराणिक कथाओं, किवंदतियों, जनश्रुतियों, स्वप्न दृष्टियों, और लोकदृष्टियों के साथ लोगों की मनोकामनाओं को पूर्ण करती रही हैं. ये देवियाँ अपने विशेष स्थानों पर पूजी जाती हैं और यहाँ की संस्कृति, आस्थाएँ, और धार्मिक परंपराओं का एक अभिन्न हिस्सा हैं. इन देवी-मंदिरों का धार्मिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक महत्व है. आइये जानते हैं कुछ प्रमुख देवी मंदिरों और उनकी मान्यताओं के बारे में….

Chhattisgarh Ki 36 Deviyan: छत्तीसगढ़ राज्य में 36 देवियाँ हैं, जिनका इतिहास, पौराणिक कथाएँ, किवंदतियाँ और जनश्रुतियाँ इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं. यहां की प्रत्येक देवी ने अपने अनुयायियों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और आज भी इन देवी-माता के मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है. इन देवियों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी और उनका इतिहास जानते हैं..
1 - मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर
मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर डोंगरगढ़, छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले में स्थित है. यह मंदिर प्रसिद्ध शक्ति पीठों में से एक है और यहां की पूजा अर्चना से श्रद्धालु अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए आते हैं. यह मंदिर अत्यंत ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है. मां बम्लेश्वरी के इस मंदिर परिसर के आसपास के क्षेत्र में बड़ी संख्या में भक्त प्रतिदिन पूजा अर्चना करने आते हैं. विशेष रूप से नवरात्रि के समय मंदिर में विशेष पूजा अर्चना होती है, और यहां एक विशाल मेला लगता है, जिसमें लाखों भक्तों की भीड़ जुटती है.
मां बम्लेश्वरी का इतिहास
डोंगरगढ़ स्थित मां बम्लेश्वरी शक्तिपीठ का इतिहास लगभग 2000 वर्ष पुराना है. यह मंदिर न केवल एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, बल्कि एक ऐतिहासिक धरोहर भी मानी जाती है. डोंगरगढ़ का इतिहास मध्य प्रदेश के उज्जैन से जुड़ा हुआ है, जिसे प्राचीन समय में कामाख्या नगरी के नाम से जाना जाता था. इस क्षेत्र का महत्व धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक है. मां बम्लेश्वरी देवी को उज्जयिनी (अब उज्जैन) के महान प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी मानी जाती थी. राजा विक्रमादित्य के शासनकाल के दौरान, इस शक्तिपीठ का अत्यधिक महत्व था और इसे एक प्रमुख धार्मिक स्थल माना जाता था.
इतिहासकारों के अनुसार, इस क्षेत्र को कलचुरी काल का हिस्सा माना गया है, जो मध्यकाल में एक प्रमुख राजवंश था. इस समय के दौरान, मंदिर का निर्माण और विस्तार हुआ. यहां की अधिष्ठात्री देवी मां बगलामुखी हैं, जिन्हें मां दुर्गा का स्वरूप माना जाता है, जिन्हें यहां मां बम्लेश्वरी के रूप में पूजा जाता है.
कैसे पहुंचे
मां बम्लेश्वरी मंदिर डोंगरगढ़ पहुंचने के लिए जिला मुख्यालय राजनांदगांव से सड़क मार्ग द्वारा 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इसके अलावा, यह हावड़ा-मुंबई रेलमार्ग से भी जुड़ा हुआ है, जिससे रेल और सड़क दोनों मार्गों से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है. इस मंदिर तक पहुंचने के लिए यात्री अपनी सुविधा के अनुसार ट्रेन या बस का उपयोग कर सकते हैं, जो एक सरल और सुविधाजनक यात्रा का अनुभव प्रदान करते हैं.
2 - मां करेला भवानी
मां करेला भवानी का मंदिर छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के भंडारपुर गांव में स्थित है, जो खैरागढ़ तहसील के अंतर्गत आता है, मंदिर परिसर में 900 सीढ़ियां चढ़कर पहाड़ी के शीर्ष तक पहुंचा जा सकता है, जहां मां भवानी का मुख्य मंदिर स्थित है. सीढ़ियों के दोनों ओर हरियाली और प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लिया जा सकता है। नवरात्रि के दौरान यहां विशाल मेला आयोजित किया जाता है. मंदिर के नीचे एक बड़ा तालाब स्थित है, जिसे भवानी तालाब कहा जाता है, जहां श्रद्धालु स्नान कर माता के दर्शन के लिए जाते हैं.
मां करेला भवानी का इतिहास
मां करेला भवानी का मंदिर ढाई सौ वर्ष पुरानी मान्यता से जुड़ा हुआ है. कहा जाता है कि एक दिन नारायण सिंह कंवर नामक व्यक्ति और कुछ ग्रामीण अपने घर के बाहर बैठे थे, तभी एक श्वेत वस्त्र पहने कन्या उनके पास आई और विश्राम की मांग की. कन्या जंगल की ओर चली गई, जहां एक मकोईया की झाड़ी के नीचे बैठकर उसने मंदिर बनाने की बात की. जब वहां खुदाई की गई, तो एक पाषाण प्रतिमा मिली, जिसे मां भवानी के रूप में स्थापित किया गया. समय के साथ यह मंदिर विस्मृत हो गया, लेकिन 25 वर्ष पहले एक गोरखनाथ पंथी बाबा ने उसी स्थान पर ध्यान करते हुए एक दिव्य प्रकाश देखा और मंदिर के पुनर्निर्माण का आग्रह किया. गांववासियों ने बाबा की बात मानी और मंदिर का निर्माण कराया, जिसके बाद यह स्थान "मां करेला भवानी" के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
कैसे पहुंचे
राजनांदगांव से 30 किलोमीटर की दूरी पर यह मंदिर स्थित है. राजनांदगांव से खैरागढ़ की ओर यात्रा करें और फिर वहां से डोंगरगढ़ मार्ग पर 14 किलोमीटर दूर करेला गांव की ओर मुड़ें. राजनांदगांव या खैरागढ़ तक ट्रेन से पहुंच सकते हैं. वहाँ से टैक्सी या निजी वाहन से मंदिर तक पहुँच सकते हैं.
3 - चंडी माता मंदिर
चंडी माता मंदिर, महासमुंद जिले के विकासखंड बागबाहरा के ग्राम घुंचपाली में स्थित एक प्रसिद्ध और प्राचीन शक्तिपीठ है. यह मंदिर आदिशक्ति मां चंडी को समर्पित है और तंत्रोक्त सिद्धि के लिए प्रसिद्ध है. यहां स्थित 23 फीट ऊंची प्राकृतिक पत्थर की मूर्ति, जो समय के साथ आकार में बढ़ती जा रही है, श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र है.यह दक्षिणमुखी स्वयंभू मूर्ति के रूप में प्रसिद्ध है. मंदिर के आस-पास जंगलों और पहाड़ियों से घिरा हुआ है, जो इसकी सुंदरता को और बढ़ाता है. यहां चमत्कारी घटनाएं भी होती रहती हैं, जैसे कि जंगली भालुओं का मंदिर परिसर में आना, जो मंदिर के भक्तों के बीच विश्वास और आस्था को बढ़ाता है.
इतिहास
महासमुंद जिले के बागबाहरा विकासखंड के ग्राम घुंचपाली में स्थित चंडी माता का मंदिर प्राचीन तंत्रोक्त सिद्धि स्थल के रूप में प्रसिद्ध है, यह मंदिर लगभग डेढ़ सौ साल पुराना है और यहां मां चंडी की 23 फीट ऊंची प्राकृतिक पत्थर की प्रतिमा स्थित है, खास बात यह है कि यह मूर्ति स्वयंभू है, जो तंत्र-मंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध है, प्राचीन काल में इस मंदिर का मुख्य उद्देश्य तांत्रिक और अघोरी साधकों द्वारा तंत्र विद्या साधना करना था, बाद में, लगभग 1950-51 के आसपास, इस मंदिर को आम श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया गया.
चंडी माता की मूर्ति और चमत्कारी घटनाएं
चंडी माता की मूर्ति के बारे में मंदिर के पुजारी टुकेश्वर प्रसाद तिवारी बताते हैं कि प्रारंभिक दिनों में यह मूर्ति छोटी थी, लेकिन समय के साथ इसकी ऊंचाई बढ़ने लगी और अब यह 23 फीट ऊंची हो गई है. यह प्राकृतिक महा प्रतिमा न केवल भारत, बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है. मंदिर पहाड़ियों से घिरा हुआ है, जिससे यहां का दृश्य अत्यंत आकर्षक और मनमोहक है. मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को दो पहाड़ियों के बीच से होकर गुजरना पड़ता है, जो इस यात्रा को और भी रोमांचक बनाता है.
मंदिर में जंगली भालू का आना
यह मंदिर एक और चमत्कारी घटना के लिए भी प्रसिद्ध है, जिसमें 10 से 15 वर्षों से जंगली भालू मंदिर परिसर में आते हैं. यह भालू शाम 5 बजे से रात 8 बजे तक मां चंडी देवी की आरती के समय मंदिर परिसर में दिखाई देते हैं. पहले ये भालू सीढ़ियों से चढ़कर मां की मूर्ति के पास पहुंच जाते थे और उनकी परिक्रमा करते थे. भालू प्रसाद में चढ़े नारियल को भी फोड़कर खाते थे. इस अजीबो-गरीब घटना को देख भक्तों ने इन भालुओं को मां का भक्त मान लिया और उन्हें हाथों से प्रसाद भी देने लगे. भक्तों ने इन भालुओं को एक नाम भी दिया.
श्रद्धालुओं की आस्था और तंत्र-मंत्र साधना
यह मंदिर एक विशेष स्थान है, जहां मां चंडी ने खुद प्रकट होने का अद्भुत चमत्कार किया है. यहां आने वाले श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं, जो मां चंडी के आशीर्वाद से पूरी होती हैं. चाहे वह घर परिवार में खुशहाली, बिजनेस में तरक्की, संतान प्राप्ति या शिक्षा में सफलता हो, सभी की इच्छाएं यहां पूरी होती हैं. इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालु अपनी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मां चंडी से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.
कैसे पहुंचें
चंडी माता मंदिर तक पहुंचने के लिए विभिन्न साधन उपलब्ध हैं. यह मंदिर बागबाहरा तहसील मुख्यालय से लगभग 4 किलोमीटर दूर स्थित है, और यहां तक सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है. बागबाहरा रेलवे स्टेशन से भी टैक्सी या ऑटो रिक्शा के माध्यम से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है. इसके अलावा, बागबाहरा से बस सेवाएं भी उपलब्ध हैं, जिससे श्रद्धालु आसानी से मंदिर तक पहुंच सकते हैं. मंदिर तक पहुंचने के लिए सड़क, रेल और स्थानीय वाहन सेवाओं का उपयोग किया जा सकता है.
4 - मां पाताल भैरवी मंदिर
मां पाताल भैरवी मंदिर एक राजनांदगांव में है. यह मंदिर ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व का स्थल है, जो अपने चमत्कारी और अद्वितीय गुणों के कारण श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है. मंदिर का गर्भगृह पाताल यानी जमीन के नीचे स्थित है, जहां मां पाताल भैरवी की मूर्ति स्थापित है. मंदिर की दूसरी मंजिल पर त्रिपुर सुंदरी का तीर्थ और नवदुर्गा की पूजा होती है, जबकि तीसरी मंजिल पर भगवान शिव की प्रतिमा और देशभर के 12 ज्योर्तिलिंगों के प्रतिरूप स्थापित हैं. यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के कारण एक प्रमुख आकर्षण बन चुका है.
इतिहास
मंदिर के इतिहास के अनुसार, यह मंदिर 1998 में स्थापित हुआ था और इसे तीन मंजिलों में बनाया गया है. सबसे खास बात यह है कि मंदिर का गर्भगृह पाताल यानी जमीन के नीचे स्थित है, जहां मां पाताल भैरवी की 15 फीट ऊंची और 11 टन वजन वाली विशाल मूर्ति स्थापित है. पाताल में स्थित इस मूर्ति को देखना एक अद्भुत अनुभव है. श्रद्धालु यहां अपनी मनोकामनाओं के लिए जोत प्रज्वलित करने आते हैं. नवरात्रि के समय विशेष पूजा अर्चना होती है, और मंदिर में भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं.
औषधि युक्त खीर का वितरण
इसके अलावा, मंदिर में औषधि युक्त खीर का वितरण भी किया जाता है, जिसे विशेष रूप से शरद पूर्णिमा के दिन तैयार किया जाता है. इस खीर में मिश्रित जड़ी-बूटियों से दमा, अस्थमा और श्वास संबंधित बीमारियों में लाभ होता है. श्रद्धालु आधी रात के समय इस खीर का प्रसाद प्राप्त करने के लिए मंदिर में एकत्रित होते हैं.
कैसे पहुंचे
मां पाताल भैरवी मंदिर तक पहुंचने के लिए सबसे आसान तरीका सड़क मार्ग है. यह मंदिर राजनांदगांव जिले के मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर स्थित है. श्रद्धालु यहां आसानी से निजी वाहन, टैक्सी या बस से पहुंच सकते हैं. यदि आप रेल मार्ग से यात्रा कर रहे हैं, तो राजनांदगांव रेलवे स्टेशन से टैक्सी या ऑटो रिक्शा लेकर सीधे मंदिर तक पहुंच सकते हैं. मंदिर में जाने के लिए मार्ग में पहाड़ी रास्ते हैं, जो मंदिर के प्राकृतिक सौंदर्य को और बढ़ाते हैं. इस प्रकार, राजनांदगांव जिले के विभिन्न परिवहन साधनों का उपयोग करके मंदिर तक पहुंचा जा सकता है.
5 - खल्लारी माता मंदिर
महासमुंद से 24 किलोमीटर दूर स्थित मां खल्लारी का मंदिर ऊंची पहाड़ियों पर स्थित है और यह एक प्रमुख धार्मिक स्थल है. यहां श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दूर-दूर से आते हैं, विशेषकर संतान सुख की इच्छा रखने वाले दंपत्तियों के लिए यह एक प्रमुख स्थल बन चुका है. यह मंदिर शारदीय नवरात्रि और कंवर के नवरात्रि में विशेष रूप से भीड़-भाड़ से भर जाता है. यहां पर भक्त मां खल्लारी की पूजा अर्चना करते हैं और मनोकामना ज्योति भी प्रज्वलित करते हैं, जोकि उनके संतान सुख के लिए एक विश्वास का प्रतीक है. मंदिर का वातावरण धार्मिक आस्था से ओत-प्रोत है और यह स्थान श्रद्धालुओं के लिए एक आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है. नवरात्र के नौ दिनों में इस मंदिर में श्रद्धा और भक्ति का सैलाब उमड़ पड़ता है.
इतिहास
छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक स्थल खल्लारी में स्थित मां खल्लारी के मंदिर का आगमन चौथी शताब्दी में हुआ था, जब राजा ब्रम्हदेव के शासनकाल में 1415 में देवपाल नामक एक मोची ने इस मंदिर का निर्माण कराया था. मंदिर के पुजारी अरुण तिवारी के अनुसार, माता का आगमन महासमुंद के डेंचा गांव से हुआ था, जहां से वह खल्लारी के बाजार में कन्या रूप में आती थीं. एक बंजारा, जो माता के रूप से मोहित हो गया था, उनका पीछा करने लगा, लेकिन माता ने उसे श्राप देकर पाषाण में बदल दिया और खुद वहां विराजमान हो गईं. इसके बाद माता ने राजा ब्रह्मदेव को सपने में मंदिर बनाने का आदेश दिया, जिसके बाद इस प्राचीन मंदिर का निर्माण हुआ. यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है,
भीम और राक्षसी हिडिंबा का यहीं हुआ था विवाह
महासमुंद जिले के खल्लारी में स्थित माता खल्लारी का मंदिर एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है. कहा जाता है कि इस मंदिर से जुड़ी घटना महाभारत काल की है, जब महाबली भीम और राक्षसी हिडिंबा का विवाह यहीं हुआ था. महाभारत के अनुसार, इस स्थान पर एक राक्षस हिडिंब और उसकी बहन हिड़िंबा रहती थीं. एक दिन भीम इस जगह पर विश्राम करने आए, और हिड़िंबा उन्हें देखकर मोहित हो गई. इस दौरान हिडिंब राक्षस और भीम के बीच युद्ध हुआ, जिसमें हिडिंब की मौत हो गई. इसके बाद माता कुंती के आदेश पर भीम ने हिडिंबा से विवाह किया. इस घटना के बाद इस जगह को 'भीमखोज' के नाम से जाना जाने लगा. मंदिर में आज भी भीम चूल्हा और भीम की नाव जैसे ऐतिहासिक स्थल देखे जा सकते हैं.
कैसे पहुंचे
मां खल्लारी मंदिर तक पहुंचने के लिए विभिन्न साधन उपलब्ध हैं. यदि आप महासमुंद से आ रहे हैं, तो यहां से मंदिर की दूरी लगभग 24 किलोमीटर है. आप सड़क मार्ग से निजी वाहन, टैक्सी या बस का उपयोग कर सकते हैं. सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन महासमुंद है, जहां से आप टैक्सी या बस द्वारा मंदिर तक पहुंच सकते हैं. मंदिर पहाड़ी पर स्थित है, तो श्रद्धालुओं को पहाड़ी चढ़ाई करने के लिए पैदल यात्रा करनी पड़ती है. इस रास्ते में प्राकृतिक सौंदर्य और शांति का अनुभव किया जा सकता है, जिससे यात्रा और भी यादगार बनती है.
6 - मां दंतेश्वरी मंदिर
मां दंतेश्वरी मंदिर छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में स्थित एक प्रमुख शक्ति पीठ है, जो तांत्रिकों की साधना का केंद्र भी मानी जाती है. यह मंदिर डंकिनी और शकिनी नदियों के संगम पर स्थित है, और यहां की मान्यता अनुसार, यह वही स्थान है जहां माता सती का दांत गिरा था, जिसके कारण इसे दंतेश्वरी माता का मंदिर कहा जाता है. यह मंदिर दुनिया के 52 शक्ति पीठों में से एक है और बस्तर अंचल के दंतेवाड़ा जिले में स्थित है. प्राचीन काल से ही इस स्थान पर श्रद्धालुओं और तांत्रिकों की आस्था रही है, जो इसे अपनी साधना और पूजा के लिए एक पवित्र स्थल मानते हैं.
इतिहास
छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल के दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय में स्थित मां दंतेश्वरी मंदिर दुनिया के 52 शक्ति पीठों में से एक है, और इसका ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व बहुत गहरा है. इस मंदिर से जुड़ी एक प्रसिद्ध कहानी के अनुसार, जब राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया था और भगवान शंकर को इसमें आमंत्रित नहीं किया, तो भगवान शंकर ने क्रोधित होकर तांडव नृत्य किया। सती, जो राजा दक्ष की पुत्री थीं, अपने पति के अपमान से आहत होकर अपने पिता के यज्ञ में कूदकर अपनी जान दे दी. जब भगवान शंकर को यह सूचना मिली, तो उन्होंने सती के शव को अपनी गोद में लेकर पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा शुरू कर दी. भगवान विष्णु ने फिर सती के शव को चक्र से काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया और जिन-जिन स्थानों पर सती के अंग गिरे, वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई. दंतेवाड़ा में सती के दांत गिरे थे, जिससे यह स्थान विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो गया.
इसके अलावा, दूसरी कहानी वारंगल के नरेश अन्न्मदेव से जुड़ी है, जिन्होंने गोदावरी नदी में मां दंतेश्वरी की मूर्ति पाई और पूजा करने के दौरान देवी ने उन्हें दर्शन दिए और उनके विजय अभियान की शुरुआत की. अन्न्मदेव ने बस्तर साम्राज्य की नींव रखी और इसके बाद इस क्षेत्र का महत्व बढ़ा.
मंदिर का निर्माण करीब 850 साल पहले अन्न्मदेव ने किया था, जबकि 700 साल पहले वारंगल से आए पांडव अर्जुन कुल के राजाओं ने इसका जीर्णोद्धार किया था. 1883 तक यहां नर बलि होती रही थी, और 1932-33 में दंतेश्वरी मंदिर का दूसरा जीर्णोद्धार बस्तर की महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी ने कराया. यह स्थान तांत्रिक साधना के लिए भी प्रसिद्ध है और आज भी कई तांत्रिक यहां साधना करते हैं. मां दंतेश्वरी को बस्तर राज परिवार की कुल देवी माना जाता है, और अब वे पूरे बस्तर क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं.
कैसे पहुंचे
दंतेवाड़ा जिला, जो छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर में स्थित है, में माता का प्रसिद्ध मंदिर है.यदि कोई भक्त रायपुर से मंदिर जाना चाहता है, तो उसे सड़क मार्ग से लगभग 400 किमी की दूरी तय करनी होगी. रायपुर से धमतरी, कांकेर, कोंडागांव और फिर बस्तर (जगदलपुर) जिले की सीमा पार करते हुए दंतेवाड़ा पहुंचा जा सकता है. इसके अतिरिक्त, हैदराबाद और रायपुर से फ्लाइट के जरिए भक्त जगदलपुर पहुंच सकते हैं, जहां से फिर सड़क मार्ग से दंतेवाड़ा जा सकते हैं.
7 - हिंगलाज माता का सिद्धपीठ
कवर्धा के सुतियापाट पहाड़ पर स्थित हिंगलाज माता का मंदिर 52 सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है. यह मंदिर श्रद्धालुओं के लिए एक तीर्थ स्थल बन चुका है, जहां आने वाले भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं. माता हिंगलाज भवानी के दर्शन के लिए भक्तों को 25 सौ फीट ऊंचे पहाड़ तक पथरीले रास्ते से चढ़ाई करनी पड़ती है.
मंदिर का इतिहास
मंदिर के पुजारी हेमलाल ने बताया कि वे लगभग 30-40 वर्षों से हिंगलाज माता के मंदिर में पूजा-पाठ कर रहे हैं, जबकि उनके पूर्वज भी इस मंदिर की देख-रेख करते थे. आजकल मंदिर की देख-रेख मंदिर समिति करती है, और पुजारी के रूप में वे पूजा करते हैं. आसपास के पुराने लोग भी नहीं जानते कि यह मंदिर कब से अस्तित्व में है, लेकिन कहते हैं कि गाय-बकरी चराने आए लोगों ने पहाड़ पर स्थित एक गुफा को देखा, और जब वे गुफा में गए, तो वहां माता हिंगलाज के दर्शन हुए. इसके बाद धीरे-धीरे लोग मंदिर आने लगे.
मंदिर में स्थित गुफा को रहस्यमयी माना जाता है. गुफा के अंदर लगभग 50 मीटर तक देवी मां विराजमान हैं, लेकिन इसके बाद रास्ता संकरा हो जाता है और कोई भी व्यक्ति पूरी गुफा में नहीं जा पाता. लोग मानते हैं कि इस गुफा से एक गुप्त रास्ता डोंगरगढ़ के मां बम्लेश्वरी मंदिर और भोरमदेव मंदिर तक जाता है, हालांकि इसकी सच्चाई की कोई पुष्टि नहीं है. 2003 में इस पहाड़ के नीचे प्रशासन ने एक जलाशय का निर्माण कराया, जिसे "सुतियापाट" नाम दिया गया. इसके बाद से इस स्थान पर बसी आबादी और मंदिर में आने वाले भक्तों की संख्या बढ़ी है.
कैसे पहुंचे
कवर्धा के सुतियापाट पहाड़ पर स्थित हिंगलाज माता के मंदिर तक पहुंचने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग किया जा सकता है. सबसे सामान्य और आसान तरीका सड़क मार्ग है, जहां आप निजी वाहन, टैक्सी, या बस सेवा का इस्तेमाल कर सकते हैं. कवर्धा से लगभग 65 किलोमीटर और राजनांदगांव से 50-60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर तक आप बस या टैक्सी से पहुंच सकते हैं.
8 – मावली माता मंदिर
मावली माता मंदिर छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के पुरुर गांव में स्थित एक अनोखा और ऐतिहासिक मंदिर है, जो अपनी विशेष परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है. यह मंदिर देवी मावली को समर्पित है, जिन्हें आदि शक्ति का रूप माना जाता है। इस मंदिर की सबसे अनोखी विशेषता यह है कि यहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है. मंदिर की मान्यता के अनुसार, मां मावली की कृपा से भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं. यहां हर साल नवरात्रि के दौरान भक्तों की बड़ी भीड़ उमड़ती है और इस दौरान 166 ज्योतियां भी प्रज्वलित की जाती हैं.
इतिहास
मंदिर के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि इस मंदिर के पुजारी श्यामलाल साहू और शिव ठाकुर के अनुसार, यह मंदिर बहुत पुराना है और इसकी स्थापना के समय एक बैगा पुजारी ने एक सपना देखा था, जिसमें मां मावली प्रकट हुईं और उन्होंने कहा कि चूंकि वह कुंवारी हैं, इसलिए महिलाओं को मंदिर में दर्शन के लिए नहीं आना चाहिए. तब से इस मंदिर में केवल पुरुषों को ही दर्शन की अनुमति है.
मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की रोक के बावजूद, पूजा-अर्चना के लिए परिसर में एक छोटा सा मंदिर भी स्थापित किया गया है, जहां महिलाएं जाकर अपनी मनोकामनाएं मांग सकती हैं. महिलाएं यहां नमक, मिर्च, चावल, दाल, साड़ी और चुनरी जैसे प्रसाद चढ़ाती हैं. गांव की महिलाएं मंदिर के बाहर स्थापित छोटे मंदिर में जाकर अपनी मन्नतें पूरी करती हैं.
मंदिर में अब सौंदर्यीकरण का कार्य भी किया जा रहा है. एक सुंदर बगीचा बनाया गया है, जहां गुलाब, गोंद, सूरजमुखी और सेवंती के फूल खिले हुए हैं, जो मंदिर के वातावरण को और भी आकर्षक बना रहे हैं. यहां के भक्तों का कहना है कि मावली माता के दर्शन से उनकी हर मनोकामना पूरी होती है, और यही कारण है कि दूर-दूर से लोग इस मंदिर में आकर माता का आशीर्वाद लेते हैं
कैसे पहुंचे
मावली माता मंदिर तक पहुंचने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग किया जा सकता है. यह मंदिर छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के पुरुर गांव में स्थित है और यहां पहुंचने के लिए सड़क मार्ग सबसे उपयुक्त है. धमतरी शहर से मंदिर की दूरी करीब 5 किलोमीटर है, जिसे आप निजी वाहन या टैक्सी द्वारा आसानी से पहुंच सकते हैं. यदि आप सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना चाहते हैं, तो धमतरी से बस सेवा भी उपलब्ध है, जो आपको पुरुर गांव के पास छोड़ सकती है.
9 - मां चंडी देवी मंदिर, बिरकोनी
महासमुंद जिले के बिरकोनी गांव में स्थित मां चंडी देवी का मंदिर एक ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व का स्थल है. यह मंदिर सिद्ध शक्ति पीठ के रूप में प्रसिद्ध है और यहां आने वाले श्रद्धालु हर साल नवरात्रि के दौरान भारी संख्या में अपनी मन्नतें मांगने पहुंचते हैं. यह मंदिर खास है क्योंकि इसे किसी ने स्थापित नहीं किया, बल्कि देवी चंडी ने खुद इस स्थान पर अपना वास स्थापित किया था. इस मंदिर में हर साल नवरात्रि के दौरान एक खास रौनक देखने को मिलती है, जब मंदिर के द्वार 24 घंटे श्रद्धालुओं के लिए खुले रहते हैं और लोग मां चंडी की पूजा-अर्चना करने के लिए तांता लगाते हैं.
इतिहास
यहां की मान्यता के अनुसार, इस स्थान पर पहले चारों ओर पठारी मैदान और महुआ का घना जंगल हुआ करता था. इस जंगल में एक समय गांव में मलेरिया और हैजा जैसी गंभीर बीमारियों का प्रकोप फैलने लगा था. गांववाले अपनी बीमारी से छुटकारा पाने के लिए मां चंडी से मन्नतें मांगने जंगलों में गए, और फिर चमत्कारी रूप से मां चंडी वहां बसीं. माना जाता है कि जब मां चंडी देवी ने इस स्थान को अपनी उपस्थिति से पवित्र किया, तो गांव में फैल रही बीमारियों का अंत हुआ. तभी से यह मंदिर विशेष रूप से श्रद्धालुओं का ध्यान आकर्षित करता है, जो यहां अपनी बीमारियों और अन्य समस्याओं के समाधान के लिए मन्नतें मांगने आते हैं.
नवरात्रि के दौरान विशेष आयोजन
नवरात्रि के दौरान इस मंदिर में खास आयोजनों का आयोजन किया जाता है. यहां पर हर साल 2,000 से 2,200 मनोकामना ज्योति कलश जलाए जाते हैं, और पूरा गांव मेले जैसा माहौल बना रहता है. श्रद्धालु नवरात्रि के नौ दिनों तक माता के दरबार में आकर अपनी मन्नतें मांगते हैं और पूजा करते हैं. इस समय मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है, जो आने वाले हर साल की तरह मां चंडी की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए यहां आते हैं.
कैसे पहुंचे
मां चंडी देवी के मंदिर, बिरकोनी गांव तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग सबसे सुविधाजनक तरीका है. महासमुंद से मंदिर की दूरी लगभग 10 किलोमीटर है, जिसे आप निजी वाहन, टैक्सी या बस से आसानी से तय कर सकते हैं. रायपुर से भी यहां पहुंचने के लिए लगभग 50-60 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है. इसके अलावा, महासमुंद रेलवे स्टेशन से भी आप सड़क मार्ग से मंदिर तक पहुंच सकते हैं. अगर आप पहली बार मंदिर जा रहे हैं, तो स्थानीय गाइड की मदद ले सकते हैं, जो आपको सही रास्ते और मार्गदर्शन प्रदान करेंगे. मंदिर तक पहुंचने के लिए कोई कठिन चढ़ाई नहीं है, लेकिन अगर आप प्रकृति का आनंद लेना चाहते हैं तो पैदल यात्रा भी कर सकते हैं.
10 - समलाई मंदिर सारंगढ़
सारंगढ़ जिले के गिरी विलास के पास स्थित समलाई मंदिर, एक प्राचीन धार्मिक स्थल है, जो करीब 800 वर्ष पुराना माना जाता है. इस मंदिर की विशेषता है कि यहां समलाई देवी की पूजा अर्चना की जाती है, जो कि सारंगढ़ की कुलदेवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं. यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी एक अमूल्य धरोहर के रूप में उभरता है.
मंदिर की धार्मिक महत्वता
समलाई देवी के प्रति आस्था रखने वाले लोग पूरे वर्ष भर इस मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए आते हैं, लेकिन नवरात्रि के दौरान यहां विशेष धार्मिक आयोजन होते हैं. हर साल नवरात्रि के दौरान 9 दिनों तक मंदिर में ज्योति दीप जलाए जाते हैं, जो एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करते हैं. इसके अलावा, इस समय जस गायन का भी आयोजन किया जाता है, जो भक्ति की भावनाओं को प्रगाढ़ करता है.
काली माता का मंदिर भी पास में
समलाई मंदिर से केवल 100 मीटर की दूरी पर काली माता का एक और मंदिर स्थित है, जो श्रद्धालुओं के लिए एक और पवित्र स्थल है. यह स्थान भी भक्तों द्वारा अत्यधिक पूजनीय माना जाता है.
इतिहास और संरचनात्मक धरोहर
समलाई मंदिर एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्थल है, जिसे पहले के राजा और महाराजाओं द्वारा बनवाया गया था. यह मंदिर आज भी अपनी वैभवशाली और ऐतिहासिक धरोहर को संजोए हुए है. मंदिर के प्रांगण में प्राचीन खंडित मूर्तियों का संग्रह देखने को मिलता है, जो इस स्थान की समृद्ध ऐतिहासिकता का प्रतीक हैं. इन मूर्तियों को देख कर यह अहसास होता है कि यह स्थान धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध रहा होगा.
11 - माँ चंद्रहासिनी देवी मंदिर
माँ चंद्रहासिनी का मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य के जांजगीर चांपा जिले के चंद्रपुर में स्थित है. यह मंदिर महानदी नदी के तट पर एक छोटी सी पहाड़ी पर विराजित है और छत्तीसगढ़ के सबसे प्राचीन और प्रमुख मंदिरों में से एक माना जाता है. चंद्रहासिनी देवी के प्रति श्रद्धा रखने वाले भक्त यहां रोज़ाना पूजा अर्चना करते हैं, लेकिन विशेष रूप से नवरात्रि के दिनों में यह स्थान भक्तों से भर जाता है.
इतिहास
माँ चंद्रहासिनी को चंद्रमा के आकार के कारण "चंद्रहासिनी" और "चंद्रसेनी" के नाम से भी जाना जाता है. यह मान्यता है कि देवी ने सरगुजा क्षेत्र को छोड़कर रायगढ़ और उदयपुर होते हुए चंद्रपुर के महानदी तट पर यात्रा की थी। यहाँ पहुंचने के बाद, पवित्र नदी की शीतलता से प्रभावित होकर देवी ने विश्राम किया और उनकी नींद लम्बे समय तक नहीं खुली. जब संबलपुर के राजा की सवारी इस स्थान से गुजरी, तो गलती से राजा का पैर देवी पर लग गया, जिससे देवी जाग गईं. इसके बाद देवी ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर मंदिर बनाने और वहाँ एक मूर्ति स्थापित करने का आदेश दिया.
नवरात्रि और विशेष पूजा
माँ चंद्रहासिनी देवी का मंदिर नवरात्रि के दिनों में विशेष रूप से प्रसिद्ध है. चैत्र नवरात्रि के दौरान यहाँ महाआरती का आयोजन होता है, जिसमें 108 दीपों की पूजा की जाती है. इस अवसर पर भक्तों की संख्या में भारी वृद्धि होती है और मंदिर में भव्य धार्मिक अनुष्ठान होते हैं. यह पूजा विशेष रूप से देवी की शक्ति की महिमा का गुणगान करती है और यहाँ आने वाले श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए पूजा अर्चना करते हैं.
कैसे पहुंचे
माँ चंद्रहासिनी देवी मंदिर, चंद्रपुर, जांजगीर चांपा जिले में स्थित है, और यहां पहुंचने के लिए आप सड़क मार्ग, ट्रेन या हवाई मार्ग का उपयोग कर सकते हैं. रायपुर से लगभग 130 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर तक सड़क मार्ग से 3-4 घंटे में पहुंचा जा सकता है. आप रायपुर या बिलासपुर से बस, टैक्सी या निजी वाहन के माध्यम से आसानी से चंद्रपुर पहुंच सकते हैं. अगर आप ट्रेन से यात्रा करना चाहते हैं, तो जांजगीर चांपा रेलवे स्टेशन तक पहुंचकर वहां से टैक्सी या ऑटो रिक्शा द्वारा मंदिर तक पहुंच सकते हैं. हवाई यात्रा से आ रहे यात्रियों के लिए रायपुर एयरपोर्ट नजदीकी हवाई अड्डा है, जहां से आप सड़क मार्ग से चंद्रपुर तक जा सकते हैं.
12 - नाथल दाई मंदिर
नाथल दाई का मंदिर छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में स्थित है, जो महानदी के बीच एक टापू पर बना हुआ है. इसे सरगुजहिन देवी का प्राचीन मंदिर भी कहा जाता है. यह मंदिर देवी नाथल दाई को समर्पित है, जो सरगुजा की राज देवी मानी जाती हैं. यह धार्मिक स्थल न केवल आस्था का केंद्र है, बल्कि अपने अद्वितीय स्थान और संरक्षण के कारण भी चर्चा में है.
इतिहास और मान्यता
नाथल दाई के मंदिर से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर चंद्रसेनी देवी का मंदिर स्थित है, और दोनों मंदिरों के बीच एक दिलचस्प धार्मिक कनेक्शन है. एक जनश्रुति के अनुसार, देवी सरगुजा क्षेत्र को छोड़ते हुए नाराज होकर रायगढ़ की ओर जा रही थीं, तभी महानदी की बीच धारा में उनकी भेंट चंद्रहासिनी देवी से हुई. देवी चंद्रहासिनी ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका और वे वहीं पर उस टापू पर स्थापित हो गईं. इसके बाद देवी नाथल दाई का मंदिर उसी स्थान पर बनवाया गया.
राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण
मान्यता के अनुसार, राजा चंद्रहास ने देवी चंद्रहासिनी के आदेश का पालन करते हुए महानदी के तट पर पहाड़ी के ऊपर मंदिर का निर्माण कराया था. साथ ही, उन्होंने माँ चंद्रहासिनी की बहन माँ नाथल दाई के मंदिर का निर्माण नदी के बीच स्थित टापू पर करवाया था. यह मंदिर नदी के बीच स्थित होने के बावजूद कभी भी बाढ़ के कारण डूबता नहीं है, जो इस स्थान की दिव्यता और शक्ति को प्रमाणित करता है.
कैसे पहुंचे
नाथल दाई का मंदिर सरगुजा जिले के महानदी के बीच स्थित एक टापू पर है, और यहाँ पहुंचने के लिए आपको पहले सड़क मार्ग से सरगुजा तक पहुंचना होगा. रायपुर या बिलासपुर से आप बस, टैक्सी या निजी वाहन से सरगुजा जा सकते हैं, जो लगभग 4-5 घंटे का समय ले सकता है. सरगुजा पहुंचने के बाद, आपको स्थानीय मार्ग द्वारा नदी तक जाना होगा, और फिर नाव या अन्य जल परिवहन का उपयोग करके मंदिर तक पहुंच सकते हैं. यदि आप ट्रेन से आ रहे हैं, तो बिलासपुर या रायपुर तक ट्रेन पकड़ सकते हैं, और फिर सड़क मार्ग से सरगुजा पहुंच सकते हैं. रायपुर से हवाई यात्रा करने वाले यात्री भी एयरपोर्ट से सड़क मार्ग से सरगुजा तक पहुंच सकते हैं.
13 - बंजारी माता मंदिर
रायपुर का बंजारी माता मंदिर 500 साल पुराना है और बंजारा समाज की कुलदेवी मानी जाती हैं. यह मंदिर न केवल बंजारा समाज के लोगों का आस्था केंद्र है, बल्कि पूरे देश-विदेश से श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए आते हैं. विशेष रूप से चैत्र और शारदीय नवरात्र में मंदिर में बड़ी संख्या में श्रद्धालु पूजा-अर्चना के लिए जुटते हैं, जहां दीप प्रज्ज्वलन और अन्य धार्मिक अनुष्ठान होते हैं. इस मंदिर में श्रद्धालु अपनी मन्नतें पूरी होने के बाद नारियल और चुनरी चढ़ाते हैं, और माता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.
इतिहास
रायपुर स्थित बंजारी माता मंदिर का इतिहास 500 साल पुराना है, जो बंजारा समाज के लिए एक पवित्र स्थल है. यह मंदिर रायपुर के भनपुरी क्षेत्र की बंजर जमीन पर स्थित है, जहां 500 साल पहले बंजारी माता प्रकट हुई थीं. प्रारंभ में माता का स्वरूप एक सुपारी जितना छोटा था, और बंजर जमीन पर प्रकट होने के कारण ही उन्हें बंजारी माता का नाम मिला. मंदिर के पंडित नवरत्न चौबे के अनुसार, बंजारा समाज के लोगों ने माता के रूप को देखकर वहां एक मंदिर स्थापित किया था, और इस मंदिर की स्थापना के बाद यह एक प्रमुख धार्मिक स्थल बन गया.
मंदिर की बढ़ती महिमा
बंजारी माता का मंदिर सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि एक धाम बन चुका है. यहां पर श्रद्धालुओं का गहरा विश्वास है और मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं. 500 साल पहले जब मंदिर की स्थापना हुई थी, तब माता की प्रतिमा का आकार सुपारी जितना था, जो आज बढ़कर 1 से 2 फुट हो चुका है. बंजारी माता धाम में पूरे साल श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा रहता है और हर किसी को माता से आशीर्वाद मिलने की उम्मीद रहती है.
बरगद के पेड़ की मान्यता
मंदिर में बंजारी माता की मूर्ति के पास स्थित एक विशाल बरगद का पेड़ भी बहुत महत्वपूर्ण है. लोग यहां मन्नतें मांगने के बाद नारियल और चुनरी बांधते हैं. यह पेड़ भी काफी पुराना है और श्रद्धालुओं के लिए एक शुभ प्रतीक बन चुका है.
कैसे पहुंचे
बंजारी माता मंदिर रायपुर स्थित है, और यहां पहुंचने के लिए आप विभिन्न साधनों का उपयोग कर सकते हैं। यदि आप सड़क मार्ग से यात्रा करना चाहते हैं, तो रायपुर शहर से आप बस, टैक्सी या निजी वाहन से मंदिर तक पहुंच सकते हैं, जो रायपुर के भनपुरी क्षेत्र में स्थित है.रायपुर रेलवे स्टेशन और स्वामी विवेकानंद एयरपोर्ट से मंदिर तक सड़क मार्ग द्वारा पहुंचना बहुत आसान है. यदि आप ट्रेन से यात्रा कर रहे हैं, तो रायपुर रेलवे स्टेशन उतरने के बाद आप टैक्सी या ऑटो से सीधे मंदिर तक पहुंच सकते हैं. हवाई यात्रा करने वाले श्रद्धालु रायपुर एयरपोर्ट पर उतरकर भी स्थानीय परिवहन के माध्यम से मंदिर तक पहुंच सकते हैं.
14 - रतनपुर महामाया देवी मंदिर
रतनपुर, जो छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित है, एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्थल है, जो देवी महामाया को समर्पित शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध है. यह मंदिर पूरे भारत में फैले 52 शक्तिपीठों में से एक है, और यहां देवी महामाया की पूजा की जाती है, जिन्हें कोशलेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है. रतनपुर की भौगोलिक स्थिति और यहां के मंदिरों और तालाबों की सुंदरता इसे एक धार्मिक और पर्यटन स्थल के रूप में स्थापित करती है. यह नगर देवी महामाया के नाम से विख्यात है और न्यायधानी बिलासपुर से लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित है.
इतिहास और मंदिर की स्थापना
रतनपुर का इतिहास बहुत ही गौरवमयी है. त्रिपुरी के कल्चुरियों की एक शाखा ने रतनपुर को अपनी राजधानी बनाकर लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में शासन किया. राजा रत्नदेव प्रथम ने 11वीं शताब्दी में रतनपुर का नामकरण किया और इसे अपनी राजधानी बनाया. उन्होंने मणिपुर नामक गांव को रतनपुर नाम दिया और वहां आदिशक्ति मां महामाया देवी का मंदिर बनवाया. 1045 ई में राजा रत्नदेव ने रात्रि विश्राम के दौरान वट वृक्ष के नीचे आलौकिक प्रकाश देखा इतना देखकर वे अपनी चेतना खो बैठे. सुबह होने पर वे अपनी राजधानी तुम्मान खोल लौट गए और रतनपुर को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया. सुबह होते ही उन्होंने रतनपुर को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया और 1050 ई में मंदिर का निर्माण कराया.
किंवदंती और शक्तिपीठ का महत्व
यह भी एक किंवदंती प्रचलित है कि जब सती माता की मृत्यु हुई, तो भगवान शिव उनके मृत शरीर के साथ ब्रह्मांड में तांडव करते हुए भटकते रहे. माता के अंग जहां-जहां गिरे, वहां शक्तिपीठ बने, और रतनपुर का मंदिर भी उन्हीं स्थानों में से एक है, जहां माता का दाहिना स्कंध गिरा था. इसे कौमारी शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है और इस कारण यह स्थल माता के 51 शक्तिपीठों में शामिल है. यहां नवरात्रि के दौरान पूजा करना बहुत ही फलदायी माना जाता है.
मंदिर का वास्तु और स्थापत्य
12-13वीं शताब्दी में बने इस मंदिर का स्थापत्य बहुत ही सुंदर है और यह देवी महामाया को समर्पित है. शुरुआत में मंदिर में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की पूजा होती थी, लेकिन बाद में महाकाली ने मंदिर छोड़ दिया. राजा बहार साईं ने एक नया मंदिर बनवाया था, जो देवी महालक्ष्मी और देवी महासरस्वती के लिए समर्पित था. मंदिर का जीर्णोद्धार 18वीं शताब्दी के अंत में मराठा काल में हुआ, और इसकी वास्तुकला बहुत ही आकर्षक और प्रभावशाली है. गर्भगृह और मंडप एक सुंदर प्रांगण के साथ किलेबंद हैं.
कैसे पहुंचे
रतनपुर स्थित महामाया देवी मंदिर तक पहुंचने के लिए आप विभिन्न साधनों का उपयोग कर सकते हैं. रायपुर से रतनपुर लगभग 144 किलोमीटर दूर है, और आप रायपुर से बस, टैक्सी या निजी वाहन द्वारा आसानी से वहां पहुंच सकते हैं. अगर आप रेल मार्ग से यात्रा कर रहे हैं, तो बिलासपुर रेलवे स्टेशन से टैक्सी या बस द्वारा रतनपुर तक पहुंच सकते हैं. वहीं, यदि आप हवाई यात्रा से आ रहे हैं, तो रायपुर एयरपोर्ट से रतनपुर तक टैक्सी या बस के माध्यम से पहुंचा जा सकता है.
15 - मरही माता मंदिर
मरही माता मंदिर, जो भनवारटंक रेलवे स्टेशन के पास स्थित है, जंगल के बीच स्थित एक शांत और रमणीय स्थल है. यहां का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत है, जहां दूर-दूर तक सिर्फ घने जंगल ही नजर आते हैं. इस क्षेत्र का वातावरण हिल स्टेशन जैसा लगता है. हर साल नवरात्र के दौरान यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है, जो अपनी मन्नतें पूरी करने के लिए मंदिर आते हैं. श्रद्धालुओं के अलावा, ट्रेन यात्री भी बिना दर्शन किए यहां से नहीं गुजरते.
इतिहास
रायपुर के नजदीक स्थित मरही माता मंदिर, जो कि 101 साल पुराना है, छत्तीसगढ़ के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है. मंदिर का निर्माण 1984 में इंदौर-बिलासपुर नर्मदा एक्सप्रेस रेल दुर्घटना के बाद हुआ था, जब नर्मदा एक्सप्रेस के कर्मचारियों द्वारा माता की मूर्ति स्थापित की गई. इसके बाद मंदिर का महत्व बढ़ गया और धीरे-धीरे यह श्रद्धालुओं का एक प्रमुख स्थल बन गया. यहां के भक्तों का मानना है कि मरही माता उनकी रक्षा करती हैं और उनकी इच्छाओं को पूरी करती हैं. मंदिर के पास दो अखंड दीप जलते हैं, एक दीप माता के पास और दूसरा दीप मंदिर के अंदर समाधि स्थल पर जलता है, जहां कांकेर के महाराजा नरहर देवरिया और महारानी की समाधि स्थित है.
कैसे पहुंचे
मरही माता मंदिर छत्तीसगढ़ के गौरेला-पेंड्रा-मरवाही जिले में स्थित एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जो बिलासपुर और कटनी के बीच स्थित भनवारटंक रेलवे स्टेशन के पास घने जंगलों में बसा हुआ है. यहां पहुंचने के लिए आप बिलासपुर रेलवे स्टेशन से कटनी की ओर जाने वाली पैसेंजर ट्रेन पकड़ सकते हैं, जो भनवारटंक स्टेशन पर रुकती है. रेलवे स्टेशन से मंदिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय वाहन उपलब्ध हैं. इसके अलावा, निजी वाहन से भी बिलासपुर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी तय कर मंदिर पहुंचा जा सकता है. मंदिर परिसर में पार्किंग सुविधा उपलब्ध है.
16 - माता अंगारमोती
धमतरी में स्थित अंगारमोती मंदिर एक प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटन स्थल है, जो छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए अत्यधिक महत्व रखता है. यह मंदिर वन देवी माँ अंगार मोती को समर्पित है और उनकी पूजा करने के लिए भक्त यहाँ आते हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस मंदिर का इतिहास गहरे धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व से जुड़ा हुआ है. यह स्थान न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि एक अद्भुत धार्मिक अनुभव प्रदान करता है, जहाँ लोग मानसिक शांति और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते हैं.
मंदिर की स्थापना और मान्यताएं
छत्तीसगढ़ जिले में स्थित माता अंगारमोती की प्रतिमा दो स्थानों पर स्थापित है. गंगरेल में माता का पैर और सीताकुंड स्थित रुद्रीरोड में माता का धड़ विराजमान है. मंदिर के पुजारी के अनुसार, माता का धड़ एक दिन पास के तालाब में मछुआरों के जाल में फंसा मिला था, जिसे वे मामूली पत्थर समझकर वापस तालाब में डाल दिए थे. बाद में गांव के एक व्यक्ति को माता का स्वप्न आया, जिसमें उन्हें माता की प्रतिमा तालाब से निकालकर पास के झाड़ के नीचे स्थापित करने का आदेश मिला। इसके बाद गांववासियों के सहयोग से माता की प्रतिष्ठापना की गई.
इतिहास से जुड़ी एक अन्य कहानी
पुजारी के मुताबिक, उनकी परंपरा के अनुसार, बस्तर के धापचावर गांव में पहले अंगारमोती माता विराजित थीं. यह मान्यता है कि एक चोर ने माता की मूर्ति चुरा ली थी, जिससे माता के पैर गंगरेल में और धड़ सीताकुंड में स्थापित हो गए. इस चोर को बाद में दंडित किया गया और माता की मूर्ति यहां स्थापित हुई. 20 साल पहले माता की प्रतिमा स्थापित की गई थी, और माता के साथ शेर और एक सर्प भी दिखे हैं, जिन्हें कई श्रद्धालु देख चुके हैं. किंवदंती है कि अंगार मोती धमतरी प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा की बेटी थी, जिनका आश्रम सिहावा के पास गथुला में स्थित है.
माता की महिमा और भक्तों की आस्था
माता अंगारमोती को 42 गांवों की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है. यहां आने वाले श्रद्धालुओं का मानना है कि उनकी मनोकामनाएं माता पूरी करती हैं. श्रद्धालु श्रद्धा के साथ नारियल बांधकर अपनी मुराद मांगते हैं, और उनकी इच्छाएं पूरी होती हैं. इस साल के चैत्र नवरात्र में 36 भक्तों ने मंदिर में ज्योत जलाया, और यह परंपरा शहर और अन्य जिलों से आने वाले भक्तों द्वारा जारी है. मंदिर में माता के अलावा शीतला माता, दंतेश्वरी माता और भैरव बाबा की मूर्तियां भी स्थापित हैं, और विशेष अवसरों पर मड़ई का आयोजन होता है.
कैसे पहुंचे
धमतरी तक हवाई मार्ग से पहुंचने के लिए आप रायपुर के स्वामी विवेकानंद हवाई अड्डे तक उड़ान भर सकते हैं, जो धमतरी का निकटतम हवाई अड्डा है. इसके बाद, धमतरी रेलवे स्टेशन अंगार मोती मंदिर के निकटतम रेलवे स्टेशन है, जो प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है. आप रायपुर, दुर्ग या भिलाई से टैक्सी या बस ले सकते हैं, क्योंकि धमतरी इन शहरों से लगभग 70 किलोमीटर दूर है. सड़क मार्ग से यात्रा करने पर आमतौर पर 2-3 घंटे का समय लगता है, जो ट्रैफिक की स्थिति पर निर्भर करता है.
17 - बिलाई माता मंदिर
धमतरी शहर की दक्षिण दिशा में स्थित मां बिलाई माता का मंदिर धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है. इसे मां विंध्यवासिनी भी कहा जाता है और यह मंदिर विशेष रूप से चैत्र और क्वांर नवरात्रि के दौरान भक्तों से भरा रहता है. मंदिर का इतिहास और इसका चमत्कारी महत्व आज भी श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र बना हुआ है, और इसे प्रदेश के पांच शक्तिपीठों में से एक माना जाता है.
मंदिर का पौराणिक इतिहास
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार देवी की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है, और यह मंदिर पौराणिक कथाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है. मंदिर स्थल पर एक समय घना जंगल हुआ करता था, जहाँ राजा के घोड़े एक जगह रुक गए और आगे नहीं बढ़ पाए. जब राजा ने इसके कारण की जांच की, तो उन्हें एक छोटे पत्थर के दोनों ओर जंगली बिल्लियाँ बैठी हुई मिलीं, जो भयावह रूप में थीं.
मूर्ति का चमत्कार
राजा के आदेश पर बिल्लियों को भगाकर पत्थर को निकालने की कोशिश की गई, लेकिन इस प्रयास के दौरान वहां से जलधारा फूट पड़ी। उस रात राजा को देवी ने स्वप्न में दर्शन दिए और बताया कि इस स्थान पर ही पूजा की जाए. राजा ने अगले दिन देवी की मूर्ति की स्थापना वहीं की.समय के साथ मंदिर का स्वरूप विकसित हुआ और द्वार का निर्माण हुआ, परंतु एक दिलचस्प घटना यह है कि जब मूर्ति पूरी तरह से बाहर आई, तो उसका चेहरा द्वार के सीधे सामने नहीं था, बल्कि थोड़ा तिरछा था, जो आज भी देखा जा सकता है.
18 - जतमाई मंदिर
जतमाई छत्तीसगढ़ के प्रमुख तीर्थ और पर्यटन स्थलों में से एक है, जो प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक आस्था का संगम है. यह स्थल रायपुर से लगभग 65 किलोमीटर दूर गरियाबंद जिले में स्थित है, और जंगलों के बीच बसा हुआ है. जतमाई अपनी कल-कल करते सदाबहार झरनों के लिए प्रसिद्ध है, जो वर्षा ऋतु में विशेष रूप से आकर्षक होते हैं. यह स्थान प्रदूषण से मुक्त, शांत वातावरण प्रदान करता है और यहां का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों को आकर्षित करता है.
इतिहास और निर्माण
जतमाई मंदिर का निर्माण 20वीं शताब्दी में स्थानीय ग्रामीणों ने मिलकर किया था। मंदिर के निर्माण में स्थानीय कला और संस्कृति का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है. यह मंदिर आज भी श्रद्धालुओं के बीच आस्था का प्रतीक बना हुआ है और एक प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाता है। जतमाई की प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक महत्व इसे छत्तीसगढ़ का एक अनूठा तीर्थ स्थल बनाते हैं.
माँ जतमाई का मंदिर और उसकी महिमा
जतमाई में स्थित माँ जतमाई का प्रसिद्ध मंदिर पहाड़ों की देवी की पूजा का केंद्र है. मंदिर के पास बहने वाली जलधाराएं माता की सेविकाएं मानी जाती हैं, जो भक्तों को नहलाती हैं। मान्यता है कि ये जलधाराएं माता की कृपा से भक्तों को पवित्र करती हैं. यहां आने वाले भक्तों का कहना है कि यह स्थान जन्नत जैसा अनुभव प्रदान करता है. हर साल चैत्र और क्वार नवरात्रि के दौरान यहां मेला लगता है, जब दूर-दूर से भक्त माँ जतमाई के दर्शन करने और यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने आते हैं.
कैसे पहुंचे
जतमई मंदिर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 85 किलोमीटर दूर गरियाबंद जिले के कोसमपानी गांव में स्थित है. रायपुर से जतमई मंदिर तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग सबसे सुविधाजनक तरीका है। आप रायपुर से राजिम होते हुए बेल्तुकरी और कौन्द्केरा मार्ग से होते हुए जतमई पहुंच सकते हैं. राजिम में पुन्नी रिसोर्ट और लाज जैसी रुकने की सुविधाएं उपलब्ध हैं, जहां आप विश्राम कर सकते हैं. इसके अलावा, जतमई में वन विभाग द्वारा विश्राम गृह की व्यवस्था भी है, जहां पर्यटक ठहर सकते हैं. यह स्थान विशेष रूप से जुलाई से दिसंबर तक आकर्षक होता है, जब झरनों में पर्याप्त पानी होता है और चारों ओर हरियाली छाई रहती है.
19 - घटारानी मंदिर
घटारानी मंदिर छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित एक प्रमुख धार्मिक और पर्यटन स्थल है. यह मंदिर आदिकाल से घने जंगलों में एक पहाड़ी की खोह में विराजमान है, जिसे समय के साथ खोह के ऊपर मंदिर का निर्माण कर दिया गया. माना जाता है कि यह स्थान भटकते हुए लोगों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण था, क्योंकि देवी घटारानी उन लोगों को उनके मंजिल तक पहुंचाने में मदद करती थीं. साथ ही, यहाँ एक शिवलिंग भी स्थापित है, जिसे घटेश्वरनाथ के नाम से जाना जाता है. मंदिर के पास स्थित घटारानी जलप्रपात इस स्थान को और भी आकर्षक बनाता है, जहाँ पानी ऊँचाई से चट्टानों के ऊपर गिरता है और एक सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है. इस जलप्रपात के नीचे कुंड भी है, जहां पर्यटक जल क्रीड़ा का आनंद लेते हैं.
इतिहास
घटारानी मंदिर छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित एक प्राचीन और ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है, जो आदिकाल से श्रद्धालुओं के लिए पूजनीय रहा है. यह मंदिर एक पहाड़ी की खोह में स्थित है, जिसे बाद में खोह के ऊपर मंदिर के रूप में विकसित किया गया. स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, पहले जब लोग जंगलों में भटक जाते थे और मार्ग से भटकने के कारण परेशान हो जाते थे, तो वे देवी घटारानी के पास आकर फल-फूल अर्पित करते थे. देवी घटारानी उनकी भक्ति और श्रद्धा के बदले उन्हें उनके मंजिल तक सुरक्षित पहुंचा देती थीं. यही कारण है कि इस मंदिर को श्रद्धालु विशेष रूप से मार्गदर्शन और आशीर्वाद के लिए पूजते हैं.
इसके अलावा, इस मंदिर के पास स्थित घटेश्वरनाथ का शिवलिंग भी है, जो श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत पवित्र है। समय के साथ, घटारानी मंदिर और इसके जलप्रपात ने अपने भव्य दृश्य और आध्यात्मिक महत्व से एक अद्वितीय पहचान बनाई है. आज भी यहाँ हर साल भक्तजन आते हैं और देवी की पूजा करते हैं, जबकि जलप्रपात के नजदीक जल क्रीड़ा का आनंद लेते हैं. यह स्थान न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि यह एक प्रमुख पर्यटन स्थल भी बन चुका है.
कैसे पहुंचे घटारानी मंदिर
राजधानी रायपुर से घटारानी मंदिर की दूरी लगभग 80 किलोमीटर है. सबसे पहले आपको रायपुर पहुंचकर अपनी यात्रा की शुरुआत करनी होगी, और फिर आप अपने वाहन या टैक्सी की मदद से 80 किलोमीटर का सफर तय कर मंदिर तक पहुंच सकते हैं. अगर आप इस स्थान की प्राकृतिक खूबसूरती का पूरा अनुभव लेना चाहते हैं, तो जुलाई से जनवरी के बीच का समय सबसे उपयुक्त है, जब झरने में भरपूर पानी होता है और वातावरण हरा-भरा रहता है.
20 - कुदरगढ़ धाम
कुदरगढ़ धाम, जो सूरजपुर जिले के ओडगी विकासखंड में स्थित है, एक प्राचीन और प्रमुख धार्मिक स्थल है, जहां माता बागेश्वरी का मंदिर स्थित है. यह मंदिर लगभग 1500 फीट ऊंचे पहाड़ पर वट वृक्ष के नीचे स्थापित है, और इसे शक्ति पीठ के रूप में भी जाना जाता है. आज भी बैगा जनजाति के लोग यहां पूजा-अर्चना करते हैं. कुदरगढ़ धाम श्रद्धालुओं के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है, जहां लोग अपनी मन्नतें पूरी होने की उम्मीद में आते हैं.
इतिहास और महत्व
सूरजपुर जिले का कुदरगढ़ धाम, जिसे कुदरगढ़ी माता का मंदिर भी कहा जाता है, छत्तीसगढ़ के प्रमुख धार्मिक स्थल में से एक है. यह प्राचीन मंदिर मां बागेश्वरी को समर्पित है और यहां की मान्यताओं का इतिहास काफी दिलचस्प और रोचक है. मान्यता के अनुसार, इस क्षेत्र में मां भगवती ने राक्षसों का संहार किया था और यह स्थान उनकी तपस्थली रही है. करीब 400 साल पहले राजा बालंद ने इस स्थान पर माता बागेश्वरी की मूर्ति स्थापित की थी. बाद में चौहान वंश के राजा ने उन्हें युद्ध में पराजित किया और उसी वंश ने मंदिर की देख-रेख की.
कैसे पहुंचे
कुदरगढ़ धाम सूरजपुर जिले के ओडगी विकासखंड में स्थित एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जहां मां बागेश्वरी का प्राचीन मंदिर विराजमान है. यह स्थान प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है और जंगलों से घिरा हुआ है. सूरजपुर मुख्यालय से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित कुदरगढ़ धाम तक पहुंचने के लिए रायपुर से सड़क मार्ग का उपयोग किया जा सकता है, जो लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर है. आप रायपुर से टैक्सी या निजी वाहन लेकर कुदरगढ़ तक पहुंच सकते हैं, जहां से मंदिर तक जाने के लिए लगभग 800 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं. यह स्थल न सिर्फ धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य के कारण पर्यटकों के बीच भी आकर्षण का केंद्र है.
21 - महामाया मंदिर सूरजपुर
महामाया मंदिर, जो सूरजपुर से लगभग 4 किलोमीटर दूर देवीपुर में स्थित है, छत्तीसगढ़ का एक प्रसिद्ध और ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है. इस मंदिर का इतिहास और महत्व स्थानीय लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. माना जाता है कि यह मंदिर बहुत पुराना है और यहाँ की माँ महामाया की पूजा हजारों वर्षों से की जा रही है. मंदिर की मान्यता के अनुसार, नवरात्रि के दौरान यहाँ विशेष पूजा-अर्चना होती है, और मेला आयोजित किया जाता है, जिसमें दूर-दराज के लोग और श्रद्धालु शामिल होते हैं. सूरजपुर जिले के लोग विशेष रूप से इस मंदिर में श्रद्धा भाव से आते हैं, और यह स्थान स्थानीय विश्वास और संस्कृति का प्रतीक बन गया है.
कैसे पहुंचे
महामाया मंदिर सूरजपुर शहर से करीब 4 किलोमीटर दूर देविपुर में स्थित है और यहाँ पहुँचने के लिए विभिन्न विकल्प उपलब्ध हैं। सूरजपुर शहर से आप बस या निजी वाहन के जरिए सीधे मंदिर तक पहुँच सकते हैं. यहाँ तक पहुँचने के लिए सूरजपुर रेलवे स्टेशन से टैक्सी या अन्य स्थानीय परिवहन का उपयोग भी किया जा सकता है. इसके अलावा, रायपुर में स्थित स्वामी विवेकानंद हवाई अड्डा निकटतम हवाई अड्डा है, जहाँ से आप सड़क मार्ग से सूरजपुर तक पहुँच सकते हैं. नवरात्रि के दौरान यहाँ विशेष पूजा और मेला आयोजित होता है, जिससे भक्तों की संख्या अधिक होती है, इसलिए इस समय यात्रा की योजना बनाते समय अग्रिम व्यवस्था करना उचित होता है.
22- खुड़िया रानी देवी मंदिर
खुड़िया रानी देवी मंदिर जशपुर जिला मुख्यालय से लगभग 100 किलोमीटर दूर बगीचा जनपद में स्थित है, और यह क्षेत्र 3000 फीट की ऊंचाई पर बसा हुआ है. यह मंदिर पहाड़ी कोरवा जनजाति के लोगों के लिए कुल देवी के रूप में पूजा जाता है, खासकर नवरात्रि के दौरान. मंदिर में स्थित 100 मीटर लंबी गुफा में साल भर बहने वाली जलधारा भक्तों को शांति और शीतलता का अनुभव कराती है, और यह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है. यह स्थान कभी खुड़िया दीवान क्षेत्र का हिस्सा था, जहां पहाड़ी कोरवा दीवान समाज के मुखिया का शासन चलता था. मंदिर के बाहर देवी-देवताओं की अनेक प्रतिमाएं स्थित हैं, जिनमें भगवान शिव, भैरव बाबा, मां काली और मां शिरंगी की प्रतिमाएं शामिल हैं. आंतरिक गुफा में मां खुड़िया रानी की प्रतिमा स्थित है, और यहां की पूजा एक विशेष मान्यता से जुड़ी है. कहा जाता है कि एक बार पूजा के दौरान बैगा अपना औजार भूल गए और जब वे लौटे, तो गुफा का कपाट बंद हो गया, जिसके बाद पूजा बाहरी स्थान पर होने लगी.
खुड़िया रानी गुफा का ऐतिहासिक महत्व
खुड़िया रानी गुफा का इतिहास और इसके प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ इसकी मान्यताएं भक्तों को आकर्षित करती हैं। गुफा के अंदर बहती शीतल जलधारा और गुफा के आंतरिक और बाहरी सौंदर्य को देखकर यह स्थान ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बनता है। जशपुर दशहरे के समय यहां शक्ति पूजा का आयोजन किया जाता है, जो नवरात्रि से लेकर दशहरा तक चलता है।
कैसे पहुंचें
खुड़िया रानी देवी मंदिर तक पहुंचने के लिए, जशपुर जिला मुख्यालय से 100 किलोमीटर की दूरी तय करनी होती है. यहां आप निजी वाहन या टैक्सी से पहुंच सकते हैं, और बगीचा, रौनी होते हुए खुड़िया रानी पहुंच सकते हैं. अंबिकापुर से भी यह स्थान लगभग 70 किलोमीटर दूर है. खुड़िया रानी तक पहुंचने के लिए, एक किलोमीटर पहाड़ी चढ़ाई के बाद पक्की सीढ़ियों से गुफा तक जाना होता है, जहां बैगा समुदाय के सदस्य मार्गदर्शन करते हैं. यात्रा के दौरान भक्तों को ठहरने के लिए जशपुर में रेस्टहाउस और निजी होटल की सुविधा भी उपलब्ध है, और बगीचा, सन्ना, पंडरापाठ में रेस्टहाउस भी हैं.
23- मड़वारानी मंदिर
मड़वारानी मंदिर छत्तीसगढ़ के कोरबा और चांपा जिले के बीच स्थित एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जहाँ न केवल आसपास के गांवों से बल्कि पड़ोसी राज्यों जैसे उड़ीसा और झारखंड से भी श्रद्धालु आते हैं. यह मंदिर नवरात्रि के दौरान विशेष रूप से आकर्षण का केंद्र बन जाता है, जब यहां मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित किए जाते हैं और भव्य तैयारियां की जाती हैं. मड़वारानी देवी की पूजा के साथ जुड़ी एक प्रचलित मान्यता के अनुसार, मां मड़वारानी ने शादी के मंडप को छोड़कर बरपाली के इस पहाड़ पर आकर यहां निवास किया, और इसी कारण देवी का नाम मड़वारानी पड़ा. मंदिर के मुख्य पुजारी सुरेंद्र कंवर बताते हैं कि उनका परिवार चार पीढ़ियों से इस मंदिर की सेवा कर रहा है.
मंदिर का इतिहास और मान्यताएं
मड़वारानी मंदिर का इतिहास लगभग 4 पीढ़ी पुराना है और यह छत्तीसगढ़ की एक स्थानीय देवी मड़वारानी को समर्पित है. देवी के बारे में यह मान्यता है कि जब उन्हें शादी के लिए मजबूर किया गया तो उन्होंने मंडप को छोड़कर इस पहाड़ पर आकर निवास किया। इसके बाद, इस स्थान को मड़वारानी के नाम से जाना गया. एक अन्य मान्यता यह भी है कि भगवान शिव ने भी उन्हें मनाने की कोशिश की थी, लेकिन देवी न मानी और अंततः शिव कनकेश्वर धाम में बस गए। इसके साथ ही, मड़वारानी का नाम और महिमा बढ़ी.
कलमी पेड़ और साक्षात देवी की उपस्थिति
मंदिर में कलमी पेड़ का विशेष महत्व है. इस पेड़ के नीचे देवी के दर्शन हुए थे, और यह मान्यता भी है कि इस पेड़ पर 8 बार बिजली गिरी, लेकिन पेड़ अब भी खड़ा है, जिससे इसे देवी की साक्षात उपस्थिति का प्रमाण माना जाता है. यहां मीठे पानी का एक स्त्रोत भी था, जो एक किसान के बर्तन गिरने के बाद कभी नहीं मिला। यह स्थान अब भी श्रद्धालुओं के लिए एक चमत्कारी स्थल माना जाता है.
कैसे पहुंचें
मड़वारानी मंदिर कोरबा और चांपा के बीच मुख्य मार्ग पर स्थित है. कोरबा शहर से मंदिर की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है, जिसे निजी वाहन या टैक्सी से लगभग 45 मिनट में तय किया जा सकता है। कोरबा रेलवे स्टेशन से भी मंदिर तक पहुंचने के लिए टैक्सी या ऑटो की सुविधा उपलब्ध है. राजधानी रायपुर से मड़वारानी मंदिर की दूरी लगभग 170 किलोमीटर है, जिसे सड़क मार्ग से लगभग 3-4 घंटे में तय किया जा सकता है. रायपुर से कोरबा के लिए नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं, और वहां से मड़वारानी मंदिर के लिए स्थानीय परिवहन उपलब्ध है. मंदिर तक पहुंचने के लिए मुख्य मार्ग से एक सड़क पहाड़ी की चोटी तक जाती है, जहां वाहन पार्क कर श्रद्धालु पैदल मार्ग से मंदिर तक पहुंचते हैं.
24 - मां सियादेवी मंदिर
मां सियादेवी मंदिर जिला मुख्यालय बालोद से लगभग 25 किलोमीटर दूर है. मंदिर का वर्णन बहुत ही सुंदर और धार्मिक महत्व से भरा हुआ है. इस मंदिर का इतिहास और इसके साथ जुड़ी पौराणिक कथाएं, पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए एक आकर्षण का केन्द्र बनी हुई हैं. यह मंदिर प्राचीन काल से महत्वपूर्ण रहा है और त्रेतायुग की घटनाओं से जुड़ा हुआ है. विशेष रूप से, सीता माता से जुड़ी कथाएं और यहां के धार्मिक स्थल की ऐतिहासिकता इसे और भी महत्वपूर्ण बनाती हैं.
पौराणिक महत्व
यह मंदिर त्रेतायुग से जुड़ी मान्यताओं और कथाओं का केंद्र है. मान्यता है कि वनवास काल में भगवान श्रीराम और लक्ष्मण देवी सीता को ढूंढते हुए इस स्थान पर आए थे. यहां पर माता पार्वती ने सीता माता के रूप में भगवान राम की परीक्षा ली थी, लेकिन भगवान राम ने उन्हें पहचान लिया और मां के रूप में संबोधित किया. इसके बाद माता पार्वती ने भगवान शिव से क्षमा मांगी और देवी सीता के अवतार में इस स्थान पर विराजमान होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। तभी से इस स्थान को देवी सीया मैया के नाम से जाना जाने लगा.
सियादेवी नाम का महत्व
मंदिर का नाम "सियादेवी" सीता माता के नाम पर रखा गया है. कहा जाता है कि सीता माता अपने बेटों लव और कुश के साथ इस जंगल में रहती थीं और यहां उनके चरणों के निशान भी देखे जा सकते हैं. यह स्थान धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है और श्रद्धालु यहां सीता माता के चरणों के निशान देखने के लिए आते हैं.
महर्षि वाल्मीकि और अन्य धार्मिक मूर्तियां
यह स्थान महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि के रूप में भी प्रसिद्ध है. यहां पर वाल्मीकि ऋषि की मूर्ति, शंकर माता पार्वती, गणेश, लव, कुश, और सती माता की मूर्तियां स्थापित की गई हैं. ये सभी धार्मिक मूर्तियां श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र हैं.
कैसे पहुंचे
मां सियादेवी मंदिर बालोद जिले के ग्राम नारागांव में स्थित है, जो जिला मुख्यालय बालोद से लगभग 25 किलोमीटर दूर है. यह स्थान प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक आस्था का संगम है, जहां दूर-दूर से श्रद्धालु मां सियादेवी के दर्शन के लिए आते हैं. यहां पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी सड़क मार्ग मुख्य शहर से होकर गुजरता है, जहां से स्थानीय परिवहन, जैसे टैक्सी, ऑटो, और बस सेवा उपलब्ध है. यदि आप निजी वाहन से यात्रा कर रहे हैं, तो जिला मुख्यालय से नारागांव के लिए सीधी सड़क मार्ग से यात्रा की जा सकती है. इसके अलावा, नजदीकी रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड से भी नारागांव तक पहुंचने के लिए परिवहन के साधन उपलब्ध हैं. मंदिर तक पहुँचने के लिए पहाड़ी रास्तों पर चलने की आवश्यकता हो सकती है, जो यात्रा को और रोमांचक बनाता है.
25 - गंगा मइया मंदिर
बालोद जिले में स्थित गंगा मइया मंदिर का इतिहास न केवल धार्मिक बल्कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी बेहद रोचक और दिलचस्प है. यह मंदिर छत्तीसगढ़ के बालोद तहसील के झलमला क्षेत्र में स्थित है और यहां की गंगा मइया की पूजा अर्चना क्षेत्रवासियों के लिए एक प्रमुख धार्मिक कार्य है. इस मंदिर से जुड़ी कहानी अंग्रेजों के शासनकाल से जुड़ी हुई है, जो इसे और भी खास बनाती है. इस मंदिर का इतिहास लगभग 130 साल पुराना है, और इसे लेकर कई मान्यताएं प्रचलित हैं.
इतिहास
गंगा मइया मंदिर का इतिहास उस समय से जुड़ा हुआ है जब बालोद जिले की तांदुला नदी के नहर निर्माण का कार्य चल रहा था। यह समय ब्रिटिश शासन के दौरान था. उस समय झलमला गांव में केवल 100 लोग ही रहते थे और यहां सोमवार के दिन एक बाजार लगता था, जिसमें दूर-दूर से लोग आते थे. बाजार में पशुओं की अधिकता के कारण पानी की कमी होने लगी. इस पानी की कमी को पूरा करने के लिए गांव में एक तालाब बनाने का निर्णय लिया गया, जिसे बांधा तालाब का नाम दिया गया. आज जहां मां गंगा की मूर्ति स्थापित है, वह वही स्थान था जहां पहले तालाब हुआ करता था.
मां गंगा की मूर्ति का रहस्यमय मिलना
गंगा मइया मंदिर से जुड़ी एक महत्वपूर्ण और रोचक मान्यता यह है कि तालाब की खुदाई के दौरान एक केवट मछली पकड़ने के लिए बांधा तालाब आया. वहां जाल डालते समय उसे मछली की जगह पत्थर की एक मूर्ति मिली। पहले तो उसे साधारण पत्थर समझकर जाल से बाहर फेंक दिया, लेकिन जब गांव के गोड़ जाति के बैगा को सपने में मां गंगा ने दर्शन दिए और बताया कि वह जल में पड़ी हुई हैं, तो बैगा ने गांव वालों को सूचित किया. बैगा के बताने पर पुनः तालाब में जाल फेंका गया और वही मूर्ति फिर से मिली. इसके बाद गांव वालों ने मूर्ति को निकालकर उसे श्रद्धा भाव से पूजा और प्राण प्रतिष्ठा की.
अंग्रेजों की कोशिशें और मूर्ति की रक्षा
इतिहास में यह भी उल्लेख मिलता है कि अंग्रेजों ने नहर निर्माण के दौरान इस मूर्ति को हटाने की कई बार कोशिश की, लेकिन हर बार मूर्ति को हटाना असंभव रहा. अंग्रेज अफसर एडम स्मिथ की कई कोशिशों के बावजूद गंगा मइया की मूर्ति अपने स्थान से हिली तक नहीं. यह घटना गांव में और आसपास के क्षेत्रों में धार्मिक मान्यता के रूप में प्रसिद्ध हो गई. अंग्रेजों का हर प्रयास विफल हुआ, और गंगा मइया की मूर्ति को उनके कब्जे से बचाने में ग्रामीणों को सफलता मिली.
कैसे पहुंचे
बालोद जिले के झलमला क्षेत्र में स्थित मां गंगा मइया मंदिर तक पहुंचने के लिए, रायपुर से बालोद की ओर राष्ट्रीय राजमार्ग 53 पर यात्रा करें. बालोद पहुंचने के बाद, झलमला गांव के लिए स्थानीय मार्गों का अनुसरण करें. वहां से मंदिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय मार्गों और संकेतों का पालन करें. सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध हो सकता है, लेकिन निजी वाहन से यात्रा करना अधिक सुविधाजनक होगा. अधिक सटीक मार्ग निर्देशों के लिए, स्थानीय निवासियों या यात्रा पोर्टल्स से संपर्क करें .
26 – मां गंगई मंदिर
कवर्धा, छत्तीसगढ़ का एक ऐतिहासिक और धार्मिक केंद्र है, जहां स्थित है मां गंगई का मंदिर. यह मंदिर न केवल अपनी धार्मिक मान्यता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की परंपराएं भी बेहद अनोखी और दिलचस्प हैं. खासकर नवरात्रि के दौरान, यहां एक विशेष परंपरा निभाई जाती है, जिसके तहत तृतीया तिथि से मनोकामना ज्योति प्रज्ज्वलित की जाती है, जो अन्य देवी मंदिरों से एकदम अलग है, क्योंकि अधिकांश देवी मंदिरों में यह ज्योति नवरात्रि के पहले दिन ही प्रज्ज्वलित की जाती है. मां गंगई मंदिर के पास एक बावली भी स्थित है, जो प्राचीन वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण है.
इतिहास
मां गंगई मंदिर की स्थापना कवर्धा में प्राचीन काल में शासकों द्वारा की गई थी. यह क्षेत्र हमेशा से ही शासकों का गढ़ रहा है, और उनके द्वारा अपने-अपने ईष्ट देवी-देवताओं के मंदिरों की स्थापना की गई. मां गंगई का मंदिर भी उन्हीं प्राचीन मंदिरों में से एक है, जिसे शासकों ने अपने समय में बनवाया था. इस मंदिर की खासियत यह है कि यहां की परंपरा तृतीया तिथि से मनोकामना ज्योति प्रज्ज्वलित करने की है, जो लगभग 1949 से चली आ रही है.
तृतीया तिथि से ज्योति प्रज्ज्वलित करने की परंपरा
मां गंगई के मंदिर में नवरात्रि के दौरान ज्योति कलशों की स्थापना की जाती है, लेकिन यहां यह कार्य नवरात्रि के पहले दिन की बजाय तृतीया तिथि को किया जाता है. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है और मंदिर के सेवक भवगती शंकर गुप्ता के अनुसार, इसकी वजह गण-गौरी तीज है. कहा जाता है कि मां गंगई की उत्पत्ति तृतीया तिथि को ही हुई थी, इसलिए यहां पर तृतीया तिथि से ही नवरात्रि की शुरुआत की जाती है. यह परंपरा खासकर चैत्र और क्वांर दोनों नवरात्रि में निभाई जाती है, जो तृतीया तिथि से लेकर दशमी तिथि तक मनाई जाती है.
किवदंती और धार्मिक मान्यता
मां गंगई के मंदिर के संबंध में एक किवदंती भी प्रचलित है, जिसके अनुसार जब गांव के किसान अपने खेतों में गंडई कीड़े के प्रकोप से परेशान थे, तब उन्होंने मंदिर में प्रार्थना की और मंदिर के जल का छिड़काव अपने खेतों में किया। इसके परिणामस्वरूप, वे कीड़े के प्रकोप से मुक्ति पाने में सफल रहे. तब से यह परंपरा बन गई कि क्षेत्र के किसान अपनी फसलों की बुवाई से पहले मां गंगई की पूजा अर्चना करते हैं और फिर खेतों में काम शुरू करते हैं.
कैसे पहुंचे
कवर्धा के मां गंगई मंदिर तक पहुंचने के लिए रायपुर से राष्ट्रीय राजमार्ग 53 के माध्यम से बालोद की ओर यात्रा करें. बालोद पहुंचने के बाद, झलमला गांव के लिए स्थानीय मार्गों का अनुसरण करें. वहां से मंदिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय मार्गों और संकेतों का पालन करें. सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध हो सकता है, लेकिन निजी वाहन से यात्रा करना अधिक सुविधाजनक होगा. अधिक सटीक मार्ग निर्देशों के लिए, स्थानीय निवासियों या यात्रा पोर्टल्स से संपर्क करें.
27 – अष्टभुजी माता मंदिर
छत्तीसगढ़ के जांजगीर चांपा जिले में स्थित अड़भार गांव में मां अष्टभुजी का मंदिर एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जो न केवल आस्था का केंद्र है बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. इस मंदिर की मान्यता और इसकी संरचना इसे देशभर में प्रसिद्ध बनाती है. विशेषकर नवरात्रि के दौरान, यह मंदिर भक्तों से भरा रहता है और यहां आने वाले श्रद्धालुओं का विश्वास है कि देवी मां उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी करती हैं.
इतिहास
मंदिर के पंडित मनोज गोस्वामी के अनुसार, अष्टभुजी माता का मंदिर प्राचीन काल का है और यहां के स्थान पर पांचवी-छठवीं शताब्दी के अवशेष पाए गए हैं. इस मंदिर का इतिहास काफी पुराना है और इसे पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित किया गया है. अड़भार का नाम पहले अष्ट द्वार के रूप में प्रसिद्ध था, क्योंकि इस नगर के चारों ओर आठ विशाल दरवाजे बनाए गए थे, जिनकी वजह से इसे अष्ट द्वार कहा जाता था. बाद में यह नाम अपभ्रंश होकर अड़भार बन गया। मंदिर के पास दो विशाल इमली के पेड़ हैं, जिनके नीचे मां अष्टभुजी की भव्य प्रतिमा स्थापित है.
मां अष्टभुजी की प्रतिमा और अनूठी विशेषताएं
मंदिर में जो देवी की प्रतिमा है, वह ग्रेनाइट पत्थर से बनी हुई है और इसमें आठ भुजाएं हैं. यह प्रतिमा दक्षिणमुखी है, जो अपनी विशेषता के लिए देशभर में प्रसिद्ध है. पंडित गोस्वामी ने बताया कि भारत में सिर्फ कोलकाता की दक्षिणमुखी काली माता और इस मंदिर की अष्टभुजी देवी की प्रतिमा ही दक्षिणमुखी हैं, अन्य किसी देवी की प्रतिमा इस प्रकार नहीं है.
आस्था और किवदंती
अष्टभुजी माता के मंदिर से जुड़ी कई किवदंतियां और मान्यताएं हैं. एक प्रसिद्ध किवदंती के अनुसार, यहां के लोग जब नए घरों या भवनों का निर्माण करते हैं तो उन्हें प्राचीन काल के टूटे हुए देवी-देवताओं की मूर्तियां या पुराने सिक्के मिलते हैं. यह इस क्षेत्र की पुरातात्विक महत्व को और बढ़ाता है और इस मंदिर के प्रति श्रद्धा को और भी मजबूत करता है.
कैसे पहुंचे
अष्टभुजी माता के मंदिर तक पहुंचने के लिए, सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन सक्ती है, जो इस मंदिर से लगभग 11 किलोमीटर दूर स्थित है. सक्ती से यहां तक बस, कार या मोटरसाइकिल के माध्यम से आसानी से पहुंचा जा सकता है. सक्ती रेलवे स्टेशन से दक्षिण-पूर्व दिशा में यह मंदिर स्थित है और यह स्थान अपने आप में एक अद्भुत धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल है.
28 - भद्रकाली माता बेमेतरा
बेमेतरा के बाजार पारा में स्थित मां भद्रकाली का मंदिर नगरवासियों के लिए कुलदेवी का प्रतीक है और यह शहर की आस्था का प्रमुख केंद्र है. मंदिर की स्थापना की मान्यता के अनुसार, एक भक्त के सपने में देवी भद्रकाली ने दर्शन दिए थे, जिसके बाद श्रद्धालुओं ने यहां मंदिर का निर्माण कराया और देवी की प्रतिमा स्थापित की. यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी है, क्योंकि मंदिर के ठीक सामने एक मस्जिद है, जो दोनों समुदायों के भाईचारे को दर्शाती है. मंदिर की भव्यता और धार्मिक महत्व के कारण यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, और यह बेमेतरा का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल बन चुका है.
इतिहास
बेमेतरा के बाजार पारा में स्थित मां भद्रकाली का दिव्य दरबार नगरवासियों के लिए आस्था का प्रमुख केंद्र है. 1980 में इस मंदिर को नगरवासियों ने भव्य रूप दिया. यह मंदिर न केवल अपनी विशालता और भव्यता के कारण प्रसिद्ध है, बल्कि यह यहां के लोगों के लिए कुलदेवी का रूप है. बेमेतरा के इतिहास में यह मंदिर महत्वपूर्ण स्थान रखता है. स्थानीय मान्यता के अनुसार, मंदिर के स्थान पर पहले भैरव बाबा का मंदिर हुआ करता था. एक दिन नगर के लेखराज शर्मा को देवी भद्रकाली ने सपने में दर्शन दिए और वहां मंदिर निर्माण का आदेश दिया. इसके बाद श्रद्धालुओं ने वहां देवी की प्रतिमा स्थापित की और मंदिर का निर्माण कराया. इसके कारण बेमेतरा नगर को "मां भद्रकाली की नगरी" के रूप में जाना जाता है.
कैसे पहुंचे
बेमेतरा शहर में स्थित इस भव्य मंदिर तक पहुंचने के लिए आप सड़क मार्ग का उपयोग कर सकते हैं. बेमेतरा का रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड यहां के मुख्य परिवहन केंद्र हैं, जहां से आप आसानी से मंदिर तक पहुंच सकते हैं.
29 - चैतुरगढ़ महिषासुर मर्दनी
छत्तीसगढ़ राज्य का चैतुरगढ़ किला एक अद्भुत ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और शांति के लिए प्रसिद्ध है. यह स्थल न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि पर्यटकों के लिए एक रोमांचक पिकनिक स्थल भी बन चुका है. चैतुरगढ़ किला बिलासपुर-कोरबा मार्ग पर पाली से लगभग 25 किमी उत्तर की दिशा में स्थित है और 3060 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यहाँ का महिषासुर मर्दिनी मंदिर भी एक प्रमुख आकर्षण है, जो अपनी धार्मिक महत्ता के साथ-साथ वास्तुकला के कारण भी प्रसिद्ध है. यह स्थल दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं और पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है.
इतिहास
चैतुरगढ़ किले का इतिहास समृद्ध और रोचक है. यह किला राजा पृथ्वीदेव प्रथम द्वारा बनवाया गया था, जो अपनी उत्कृष्ट निर्माण शैली और रणनीतिक स्थिति के कारण महत्वपूर्ण माना जाता है. किला चारों ओर से मजबूत प्राकृतिक दीवारों से संरक्षित है, और इसे पुरातत्वविदों ने मजबूत प्राकृतिक किलों में शामिल किया है। किले में तीन प्रमुख प्रवेश द्वार हैं, जिनके नाम मेनका, हुमकारा और सिम्हाद्वार हैं. यह किला प्राचीन काल से लेकर आज तक छत्तीसगढ़ की धरोहर का एक अहम हिस्सा है.
महिषासुर मर्दिनी मंदिर की स्थापना भी एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसकी मूर्ति में देवी महिषासुर मर्दिनी के 12 हाथों के चित्रण का उल्लेख मिलता है. यह मंदिर अपनी वास्तुकला और धार्मिक महत्व के लिए जाना जाता है. मंदिर का गर्भगृह इस मूर्ति को समर्पित है, और यहां दूर-दूर से श्रद्धालु नवरात्रि के समय विशेष पूजा-अर्चना के लिए पहुंचते हैं. यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि स्थापत्य कला के दृष्टिकोण से भी अत्यधिक महत्व रखता है, क्योंकि इसकी वास्तुकला भोपाल बैरागढ़ के वास्तु कला से मेल खाती है.
कैसे पहुंचे
चैतुरगढ़ किला तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग एक सुविधाजनक तरीका है. यह स्थान बिलासपुर से लगभग 55 किमी और कोरबा से लगभग 50 किमी दूर स्थित है. बिलासपुर से कोरबा मार्ग पर पाली तक आसानी से पहुंचा जा सकता है, और यहां से किले की दूरी लगभग 25 किमी है. इस रास्ते पर जाने के लिए अच्छी तरह से पक्की सड़कें हैं, जो यात्रा को आरामदायक बनाती हैं. हालांकि, किले तक पहुंचने के बाद कुछ दूरी पैदल तय करनी पड़ती है, जो ट्रैकिंग का आनंद प्रदान करती है. पैदल यात्रा करते हुए पर्यटकों को प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने का मौका मिलता है। यह पहाड़ी चढ़ाई थोड़ी चुनौतीपूर्ण हो सकती है, लेकिन यह एक रोमांचक अनुभव भी है.
30- माता कौशल्या मंदिर, चंदखुरी
माता कौशल्या का मंदिर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 22 से 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चंदखुरी गांव में स्थित है. यह मंदिर एक खूबसूरत झील के बीचों-बीच स्थित है, जो इस स्थल को और भी आकर्षक बनाता है. कहा जाता है कि माता कौशल्या का जन्म यहीं हुआ था, और भगवान राम ने अपने प्रारंभिक वर्षों में यहीं पर समय बिताया था। इस राज्य में उनके जीवन के कई महत्वपूर्ण क्षण जुड़े हुए हैं, और यही कारण है कि छत्तीसगढ़ को भगवान राम का ननिहाल माना जाता है.ॉ
मंदिर का इतिहास और पुनर्निर्माण
कहा जाता है कि माता कौशल्या का जन्म यहीं हुआ था, और भगवान राम ने अपने प्रारंभिक वर्षों में यहीं पर समय बिताया था। इस राज्य में उनके जीवन के कई महत्वपूर्ण क्षण जुड़े हुए हैं, और यही कारण है कि छत्तीसगढ़ को भगवान राम का ननिहाल माना जाता है।
माता कौशल्या मंदिर का इतिहास बहुत ही प्राचीन है. माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में सोमवंशी राजाओं द्वारा करवाया गया था. इस मंदिर का कई बार पुनर्निर्माण किया गया है, और 1973 में इसे फिर से बहाल किया गया था. मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद, इसे और भी भव्य और आकर्षक रूप में देखा गया। यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके स्थापत्य और कला का भी एक खास स्थान है.
कैसे पहुंचे
चंदखुरी स्थित माता कौशल्या मंदिर तक पहुंचने के लिए रायपुर शहर से सड़क मार्ग सबसे सुविधाजनक तरीका है. रायपुर से चंदखुरी की दूरी लगभग 25 किलोमीटर है, जिसे आप निजी वाहन, टैक्सी, या स्थानीय बस सेवा के माध्यम से तय कर सकते हैं. रायपुर शहर में प्रमुख बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन हैं, जहां से चंदखुरी के लिए नियमित परिवहन उपलब्ध है. इसके अलावा, रायपुर हवाई अड्डा भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है, जिससे आप हवाई मार्ग से रायपुर पहुंच सकते हैं और वहां से सड़क मार्ग द्वारा चंदखुरी जा सकते हैं.
31 - सर्वमंगला मंदिर, कोरबा
कोरबा शहर में स्थित सर्वमंगला मंदिर, हसदेव नदी के तट पर स्थित एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जो माँ दुर्गा को समर्पित है. यह मंदिर अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता के लिए प्रसिद्ध है, जहाँ प्रतिदिन सैकड़ों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं.
इतिहास और स्थापना
सर्वमंगला मंदिर का निर्माण कोरबा के जमींदार राजेश्वर दयाल के पूर्वजों द्वारा लगभग 1898 में कराया गया था, जिससे इस मंदिर का इतिहास लगभग 123 वर्ष पुराना है. मंदिर परिसर में एक 500 वर्ष पुराना वटवृक्ष स्थित है, जिसे मनोकामना पूर्ण करने वाला माना जाता है. श्रद्धालु इस वृक्ष में रक्षा सूत्र बांधकर अपनी मन्नतें मांगते हैं.
मंदिर की संरचना और विशेषताएँ
मंदिर परिसर में कई अन्य छोटे-बड़े मंदिर स्थित हैं, जैसे त्रिलोकीनाथ मंदिर, काली मंदिर, शीतला माता मंदिर, भैरवनाथ मंदिर और हनुमान मंदिर. इन मंदिरों में विशेष रूप से सूर्य देवता की भव्य प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है, जो घोड़ों से सजे रथ पर विराजमान हैं. मंदिर के भीतर एक गुफा भी है, जो हसदेव नदी के नीचे से गुजरती है और दूसरी ओर निकलती है. कहा जाता है कि रानी धनराज कुंवर देवी इस गुफा का उपयोग अपनी दैनिक यात्रा के लिए करती थीं.
कैसे पहुंचें
सर्वमंगला मंदिर तक पहुंचने के लिए विभिन्न मार्ग उपलब्ध हैं. कोरबा शहर से मंदिर की दूरी लगभग 7-8 किलोमीटर है, जिसे निजी वाहन या ऑटो रिक्शा से आसानी से पहुँच सकते हैं. रेल मार्ग से कोरबा रेलवे स्टेशन से मंदिर लगभग 5 किलोमीटर दूर है, और वहाँ से टैक्सी या ऑटो रिक्शा द्वारा मंदिर पहुँचा जा सकता है. वायु मार्ग से यात्रा करने पर, रायपुर स्थित स्वामी विवेकानंद अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा मंदिर से लगभग 200 किलोमीटर दूर है, जहाँ से टैक्सी या बस के जरिए कोरबा और फिर मंदिर पहुँचा जा सकता है.
32 - सिद्धि माता मंदिर
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में स्थित सिद्धि माता मंदिर स्थानीय लोगों के लिए एक बहुत बड़ी आस्था का केंद्र है. यह मंदिर मां दुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित सिद्धि देवी को समर्पित है, जहां हर साल हजारों भक्त माता के दर्शन के लिए आते हैं. सिद्धि देवी मां के बारे में मान्यता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से अपनी मनोकामना उनके समक्ष रखता है, उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं. इस कारण, यह मंदिर न केवल बेमेतरा बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध है.
मंदिर का इतिहास और महत्व
सिद्धि माता मंदिर का इतिहास बहुत पुराना माना जाता है. स्थानीय लोगों के अनुसार, सिद्धि माता की कहानी एक गरीब मजदूर से जुड़ी हुई है, जो मां दुर्गा का बड़ा भक्त था. एक दिन उसे माता के दर्शन हुए और उसके बाद उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होने लगीं. इसके बाद इस मंदिर का निर्माण संडी गांव में 1965 से 1995 के बीच हुआ. तब से यहां बकरे की बलि देने की प्रथा चली आ रही है, जो होली के दूसरे दिन से 13 दिनों तक होती है. इस समय में मंदिर में विशाल मेला भी आयोजित किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं.
मंदिर के आकर्षण
सिद्धि माता मंदिर का प्रमुख आकर्षण उसकी भव्य गर्भगृह और दीवारों पर की गई नक्काशी है, जो श्रद्धालुओं और पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. गर्भगृह में सिद्धि माता की एक सुंदर मूर्ति स्थापित है. यह मूर्ति श्रद्धालुओं के दिलों में आस्था और श्रद्धा का संचार करती है. मंदिर के दर्शन के दौरान भक्तों को दिव्य शांति और सुख का अनुभव होता है। साथ ही, सिद्धि माता के चमत्कारों की चर्चा भी यहां हर स्थान पर होती है. कहा जाता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से पूजा करता है, उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं.
प्रसिद्ध बकरी बलि की प्रथा
मंदिर में एक प्रथा है कि होली के दूसरे दिन से 13 दिनों तक बकरे की बलि दी जाती है. यह बलि भक्तों द्वारा अपने मनोकामनाओं की पूर्ति के बाद चढ़ाई जाती है. इस दौरान मंदिर में बहुत बड़ी संख्या में बकरे की बलि दी जाती है और भक्त अपनी श्रद्धा के साथ इसे अर्पित करते हैं. यही नहीं, इस समय में यहां विशाल मेला भी लगता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु और पर्यटक शामिल होते हैं.
कैसे पहुंचे
सिद्धि माता मंदिर बेमेतरा शहर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, और यहां पहुंचने के लिए विभिन्न यातायात के साधन उपलब्ध हैं. आप सड़क मार्ग से बेमेतरा से सिद्धि माता मंदिर तक बसों या टैक्सी के माध्यम से आसानी से पहुंच सकते हैं. अगर आप अपनी कार से यात्रा कर रहे हैं, तो यह दूरी लगभग 30 मिनट में तय की जा सकती है. वहीं, यदि आप रेल यात्रा का विकल्प चुनते हैं, तो बेमेतरा रेलवे स्टेशन से मंदिर तक टैक्सी या बस के जरिए आसानी से पहुंच सकते हैं. बेमेतरा स्टेशन देश के प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है, जिससे यात्रा बहुत सुविधाजनक हो जाती है.
32 - सिद्धपीठ माँ महामाया मंदिर
कवर्धा के पांडातराई नगर से मात्र दो किलोमीटर दूर ग्राम डोंगरिया कला में स्थित सिद्धपीठ माँ महामाया मंदिर एक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है. यहाँ स्वयंभू भगवान शिवशक्ति परिवार की दिव्य प्रतिमा विराजमान है, जो जिले में कहीं और देखने को नहीं मिलती. यह मंदिर क्षेत्रीय श्रद्धालुओं के लिए एक आस्था का प्रमुख केंद्र बन चुका है, जहाँ दूर-दराज के भक्त अपनी मनोकामनाओं को लेकर आते हैं और पूजा-अर्चना करते हैं.
मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
ग्राम डोंगरिया में स्थित सिद्धपीठ माँ महामाया मंदिर का इतिहास करीब दो सौ साल पुराना है. बुजुर्गों के अनुसार, पहले इस क्षेत्र में लमान जाति के लोग गेरू बेचने आते थे. एक दिन एक लमान जाति के परिवार का मुखिया, जिसे कुष्ठ रोग था, डबरी के पानी से हाथ धोने के बाद चमत्कारी रूप से ठीक हो गया. उसने इस स्थान पर तालाब खुदवाने की योजना बनाई और गेरू बेचकर कमाए पैसों से तालाब की खुदाई की. तालाब की खुदाई के दौरान भगवान शिव, माता पार्वती, गणेश और कार्तिकेय की दिव्य मूर्तियाँ प्राप्त हुईं. ग्रामीणों ने इन मूर्तियों की पूजा शुरू की और उन्हें एक झोपड़ी में रखकर पूजा-अर्चना की.
मंदिर का निर्माण और विकास
1982 में एक श्रद्धालु महिला, भाजा बाई, ने इस झोपड़ी के स्थान पर मंदिर का निर्माण कराया. तब से अब तक मंदिर का विस्तार हो चुका है और यह आस्था का एक प्रमुख केंद्र बन गया है. हर साल क्षेत्रीय और दूरदराज के श्रद्धालु इस मंदिर में भगवान शिवशक्ति परिवार के दर्शन करने और पूजा अर्चना करने के लिए आते हैं. मान्यता है कि भगवान शिवशक्ति सभी भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं, जिससे यह स्थान श्रद्धा और आस्था का प्रतीक बन गया है.
कैसे पहुंचे
सिद्धपीठ माँ महामाया मंदिर कवर्धा जिले के पांडातराई नगर से लगभग दो किलोमीटर दूर ग्राम डोंगरिया कला में स्थित है, और यहां पहुंचने के लिए विभिन्न यातायात के साधन उपलब्ध हैं. आप सड़क मार्ग से पांडातराई से डोंगरिया कला तक बस, अपनी निजी कार से पहुंच सकते हैं. पांडातराई से मंदिर तक पहुंचने में लगभग 15-20 मिनट का समय लगता है. इसके अलावा, नजदीकी रेलवे स्टेशन या बस अड्डे से टैक्सी या निजी वाहन लेकर भी मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है. मंदिर के पास ही उचित पार्किंग व्यवस्था भी उपलब्ध है.
33- बंजारी माता मंदिर रायगढ़
रायगढ़ शहर से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित बंजारी माता मंदिर, छत्तीसगढ़ के सबसे प्रसिद्ध और पवित्र मंदिरों में से एक है. यह मंदिर देवी बंजारी को समर्पित है, जिन्हें बंजारा जाति के लोग अपनी कुल देवी मानते हैं. पिछले कई सालों से इस मंदिर ने श्रद्धालुओं की आस्था का एक प्रमुख केंद्र बनकर अपनी भव्यता और महत्व को बढ़ाया है. इस मंदिर के आसपास अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों का निर्माण किया गया है और एक सुंदर गार्डन तथा तालाब भी इस क्षेत्र को और अधिक आकर्षक बनाते हैं. बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ मंदिर के दर्शन करने के साथ ही इस स्थान की प्राकृतिक सुंदरता का भी आनंद लेने आते हैं.
मंदिर का इतिहास
बंजारी माता मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है. लगभग 500 साल पहले मुगल शासकों के शासनकाल में यहाँ एक छोटा सा मंदिर हुआ करता था, जो समय के साथ धीरे-धीरे बढ़ा और आज यह भव्य रूप में प्रतिष्ठापित है. करीब 40 साल पहले मंदिर का पुनर्निर्माण और विस्तार हुआ. बंजर धरती से प्रकट होने के कारण माता की प्रतिमा को बंजारी देवी के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई. बंजारा जाति के लोग, जो देशभर में घूमते हैं, इस मंदिर को अपनी कुल देवी के रूप में मानते हैं. बंजारी माता की प्रतिमा बगुलामुखी रूप में स्थित है, और यह विशेष रूप से तांत्रिक पूजा के लिए प्रसिद्ध है. इस मंदिर में स्वर्ग और नरक के सुख-दुःख को विभिन्न मूर्तियों और पेंटिंग्स के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है.
कैसे पहुंचे
बंजारी माता मंदिर तक पहुंचने के लिए कई साधन उपलब्ध हैं. हवाई मार्ग से यात्रा करने के लिए निकटतम हवाई अड्डा रायपुर है, जो मंदिर से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित है, जहां से आप टैक्सी लेकर सीधे मंदिर तक पहुंच सकते हैं. रेल मार्ग से जांजगीर-चांपा रेलवे स्टेशन सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन है, जो लगभग 25 किलोमीटर दूर है, और स्टेशन से आप टैक्सी या बस के माध्यम से मंदिर पहुंच सकते हैं. सड़क मार्ग से भी बंजारी माता मंदिर जांजगीर-चांपा जिले के पास स्थित है, और यहां तक पहुंचने के लिए टैक्सी, ऑटो रिक्शा या बस की सुविधा उपलब्ध है.
34 - अंबेटिकरा मंदिर
अंबेटिकरा मंदिर धरमजयगढ़ से लगभग 7 किलोमीटर दूर कापू रोड पर स्थित है, जो मांड नदी से महज 200 मीटर की दूरी पर स्थित है.
इतिहास
इस मंदिर का निर्माण 1930 में किया गया था और यह देवी दुर्गा को समर्पित है. मंदिर में भगवान गणेश और हनुमान जी की 30 फीट ऊंची भव्य प्रतिमाएं स्थापित हैं, जो श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र हैं. यह मंदिर अपनी भव्यता और धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है. यहाँ देवी दुर्गा के प्रति श्रद्धा और आस्था का बहुत गहरा रिश्ता है, और यह क्षेत्र के प्रमुख धार्मिक स्थलों में एक माना जाता है. हर साल बड़ी संख्या में श्रद्धालु रायगढ़, अंबिकापुर और जशपुर जैसे दूरदराज के इलाकों से यहाँ दर्शन करने आते हैं.
रामचंद्र जी की कथा
अंबेटिकरा मंदिर से जुड़ी एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है, जिसके अनुसार भगवान रामचंद्र जी, लक्ष्मण जी और माता सीता ओडगी के बाद हथफोर गुफा से होते हुए धरमजयगढ़ पहुंचे थे. इसके बाद वे मैनी नदी और मांड नदी के तट से होते हुए देउरपुर गए. रक्सगंडा में उन्होंने हजारों राक्षसों का वध किया, और फिर किलकिला में तीसरा चातुर्मास बिताया. इसके बाद रामचंद्र जी, लक्ष्मण जी और सीता जी अंबे टिकरा होते हुए चंद्रपुर गए. यह माना जाता है कि भगवान राम का इस क्षेत्र में तीन वर्षों का समय बीता था, जो इस मंदिर को एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाता है.
मंदिर का जीर्णोद्धार और वर्तमान स्थिति
पाँच वर्ष पहले इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया, और वर्तमान में इसका प्रशासन मंदिर की देखरेख कर रहा है. मंदिर के प्रबंधन और संचालन के लिए उचित व्यवस्था की गई है ताकि यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं को बेहतर सुविधा मिल सके. इसके साथ ही मंदिर में हर साल चौदह सौ ज्योति कलश प्रज्वलित किए जाते हैं, जो मंदिर की भव्यता और आस्था को और भी प्रकट करते हैं.
कैसे पहुंचे
अंबेटिकरा मंदिर धरमजयगढ़ से 7 किलोमीटर की दूरी पर कापू रोड पर स्थित है. यहां पहुंचने के लिए आप सड़क मार्ग का उपयोग कर सकते हैं. रायगढ़, अंबिकापुर और जशपुर से भी यहाँ पहुंचने के लिए बस, टैक्सी और निजी वाहन उपलब्ध हैं. इसके अलावा, नजदीकी रेलवे स्टेशन और बस अड्डे से भी आसानी से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है.
35 - अंबा देवी मंदिर
हर साल हिंदू संवत्सर के पौष माह की पूर्णिमा तिथि पर रायपुर के सत्ती बाजार स्थित अंबा देवी मंदिर में विशेष रूप से शाकंभरी महोत्सव मनाया जाता है. इस दिन मां अंबे की प्रतिमा का शाकंभरी देवी के रूप में श्रृंगार किया जाता है, जो श्रद्धालुओं के लिए एक अत्यंत आकर्षक और धार्मिक अनुभव है. खास बात यह है कि इस श्रृंगार में हरी सब्जियों का उपयोग किया जाता है. प्रतिमा का यह श्रृंगार मंदिर में आने वाले भक्तों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बनता है. श्रद्धालु मां शाकंभरी को भोग के रूप में सब्जियां अर्पित करते हैं, और यह परंपरा पूरे उत्सव के दौरान बनी रहती है.
50 साल पुरानी परंपरा
मंदिर के पुजारी पंडित पुरुषोत्तम शर्मा के अनुसार, अंबा देवी मंदिर में हर साल मां अंबे की पूजा की जाती है, लेकिन शाकंभरी महोत्सव के दिन यह प्रतिमा शाकंभरी देवी के रूप में श्रृंगारित होती है. इस परंपरा की शुरुआत लगभग 50 साल पहले 1970 में हुई थी, जब मंदिर में पहली बार प्रतिमा का श्रृंगार सब्जियों से किया गया था। तब से यह परंपरा निरंतर निभाई जा रही है. मंदिर में श्रद्धालु एक दिन पहले से ही सब्जियां लेकर आ जाते हैं, और पूजा के दिन सुबह 8 बजे के बाद सब्जियों से श्रृंगार का दर्शन खुलता है. श्रद्धालु दिनभर सब्जियां अर्पित करते रहते हैं, जिसके साथ श्रृंगार का रूप बदलता जाता है.
पौराणिक मान्यता
मां शाकंभरी के बारे में एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा भी है, जिसमें कहा जाता है कि दुर्गम नामक दैत्य ने धरती पर 100 साल तक पानी बरसने से रोक दिया था और चारों वेद भी चुरा लिए थे. इस दैत्य का संहार करने के लिए मां दुर्गा ने शाकंभरी देवी के रूप में अवतार लिया और दैत्य का नाश किया. इसके बाद देवताओं को वेद वापस मिल गए और धरती पर हरियाली छा गई. इसी मान्यता के कारण शाकंभरी देवी के रूप में पूजा के दौरान सब्जियों से श्रृंगार किया जाता है, जो धरती पर हरियाली और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है.
कैसे पहुंचे
रायपुर शहर के सत्ती बाजार में स्थित अंबा देवी मंदिर तक पहुंचने के लिए रायपुर रेलवे स्टेशन से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी तय करके पैदल या ऑटो रिक्शा से पहुंचा जा सकता है.यह मंदिर शहर के केंद्र में स्थित होने के कारण स्थानीय परिवहन सुविधाओं के माध्यम से आसानी से पहुँचा जा सकता है.
36 - कोसगाई माता मंदिर
कोसगाईगढ़, छत्तीसगढ़ का एक महत्वपूर्ण धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल है, जो जिला मुख्यालय से लगभग 42 किलोमीटर दूर स्थित है. यह स्थान एक पहाड़ी पर बने दुर्ग किले के कारण प्रसिद्ध है, जिसमें कोसगाई देवी का मंदिर स्थित है. मंदिर की खासियत यह है कि यहां आम तौर पर लाल ध्वज के बजाय सफेद ध्वज चढ़ाया जाता है, जिससे इसे शांति का प्रतीक माना जाता है. मंदिर में गुंबद नहीं है, क्योंकि जनश्रुति के अनुसार देवी बिना छत्र छाया के रहना पसंद करती हैं. यह मंदिर अपने आप में अनोखा है और यहां हर साल चैत्र और क्वांर नवरात्रि के दौरान ज्योति कलश प्रज्वलित किए जाते हैं, जिससे श्रद्धालु यहां बड़ी संख्या में आते हैं.
इतिहास
कोसगाईगढ़ का इतिहास छत्तीसगढ़ के प्राचीन धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों में से एक है. यह किला और मंदिर 600 फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है, जिसे कभी अभेद्य किला के रूप में विकसित किया गया था. जनश्रुति के अनुसार, कोसगाई शासक और आक्रमणकारियों के बीच यहां युद्ध हुआ था, और युद्ध के दौरान इस स्थान पर नगाड़ा बजाया जाता था, जिसे आज भी "नगारा डुगु" के नाम से जाना जाता है. मंदिर में कोसगाई देवी की पूजा की जाती है, जिन्हें धन और ऐश्वर्य की देवी माना जाता है। मंदिर के भीतर सफेद ध्वज चढ़ाया जाता है, जो शांति का प्रतीक माना जाता है। कोसगाईगढ़ का यह किला और मंदिर आज भी एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में मौजूद है और श्रद्धालुओं के लिए महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है.
कैसे पहुंचे
कोसगाईगढ़ तक पहुंचने के लिए, कोरबा बस स्टैंड से अजगरबहार तक निजी वाहन उपलब्ध हैं. यहां से तीन किलोमीटर पैदल चलकर श्रद्धालु कोसगाई पहाड़ तक पहुंच सकते हैं. पहाड़ की उपस्थिति और उसकी ऐतिहासिक तथा धार्मिक महत्वता इस स्थान को छत्तीसगढ़ के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शामिल करती है.